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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 10
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
    216

    अ॒र्वाग॒न्यः प॒रो अ॒न्यो दि॒वस्पृ॒ष्ठाद्गुहा॑ नि॒धी निहि॑तौ॒ ब्राह्म॑णस्य। तौ र॑क्षति॒ तप॑सा ब्रह्मचा॒री तत्केव॑लं कृणुते॒ ब्रह्म॑ वि॒द्वान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒र्वाक् । अ॒न्य: । प॒र: । अ॒न्य: । दि॒व: । पृ॒ष्ठात् । गुहा॑ । नि॒धी इति॑ । नि॒ऽधी । निऽहि॑तौ । ब्राह्म॑णस्य । तौ । र॒क्ष॒ति॒ । तप॑सा । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । तत् । केव॑लम् । कृ॒णु॒ते॒ । ब्रह्म॑ । वि॒द्वान् ॥७.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अर्वागन्यः परो अन्यो दिवस्पृष्ठाद्गुहा निधी निहितौ ब्राह्मणस्य। तौ रक्षति तपसा ब्रह्मचारी तत्केवलं कृणुते ब्रह्म विद्वान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अर्वाक् । अन्य: । पर: । अन्य: । दिव: । पृष्ठात् । गुहा । निधी इति । निऽधी । निऽहितौ । ब्राह्मणस्य । तौ । रक्षति । तपसा । ब्रह्मऽचारी । तत् । केवलम् । कृणुते । ब्रह्म । विद्वान् ॥७.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    ब्रह्मचर्य के महत्त्व का उपदेश।

    पदार्थ

    (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मज्ञान के (निधी) दो निधि [कोश] (गुहा) गुहा [गुप्त दशा] में (निहितौ) गढ़े हैं, (अन्यः) एक (अर्वाक्) समीपवर्ती और (अन्यः) दूसरा (दिवः) सूर्य की (पृष्ठात्) पीठ [उपरिभाग] से (परः) परे [दूर] है। (तौ) उन दोनों [निधियों] को (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (तपसा) अपने तप से (रक्षति) रखता है, (ब्रह्म) ब्रह्म [परमात्मा] को (विद्वान्) जानता हुआ वह (तत्) उस [ब्रह्म] को (केवलम्) केवल [सेवनीय, निश्चित] (कृणुते) कर लेता है ॥१०॥

    भावार्थ

    परमेश्वर का ज्ञान निकट और दूर अवस्था में रहकर सब स्थानों में वर्तमान है, अनन्यवृत्ति, ब्रह्मचारी योगी तप की महिमा से ब्रह्म का साक्षात् करके और उसकी शरण में रहकर अपनी शक्तियाँ बढ़ाता है ॥१०॥

    टिप्पणी

    १०−(अर्वाक्) समीपवर्ती (अन्यः) एको निधिः (परः) परस्तात्। दूरम् (अन्यः) अपरः (दिवः) सूर्यस्य (पृष्ठात्) उपरिभागात् (गुहा) गुहायाम्। गुप्तदशायाम् (निधी) धनकोशौ (निहितौ) निक्षिप्तौ (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मसम्बन्धिज्ञानस्य (तौ) निधी (रक्षति) (तपसा) (ब्रह्मचारी) (तत्) ब्रह्म (केवलम्) अ० ३।१८।२। सेवनीयम्। निश्चितम् (कृणुते) करोति (ब्रह्म) परमात्मानम् (विद्वान्) विदन्। जानन् ॥

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    विषय

    ब्राह्मण की दो निधि

    पदार्थ

    १. ज्ञानप्रधान जीवनबाला व्यक्ति 'ब्राह्मण' है। 'अपराविद्या और पराविद्या' ये दो ब्राह्मण की निधि हैं। अपराविद्या 'युलोक व धुलोक से नीचे अन्तरिक्षलोक व पृथिवीलोक' का ज्ञान देती है और पराविद्या दिवस्पृष्ठ से भी परे ब्रह्मलोक का ज्ञान प्राप्त कराती है। (अन्य:) = एक अपराविद्यारूप निधि (अर्वाक्) = दिवस्पृष्ठ से नीचे के पदार्थों का ज्ञान है। (अन्य:) = दूसरी पराविद्यारूप निधि (दिवः पृष्ठात् पर:) = दिवस्पृष्ठ से ऊपर ब्रह्म का ज्ञान है। ये दोनों निधी ज्ञानकोश (ब्राह्मणस्य गुहा निहितौ) = ज्ञानी की हृदयगुहा में स्थापित हुए हैं। २. (तौ) = उन दोनों निधियों को (ब्रह्मचारी) = यह ज्ञान में विचरण करनेवाला व्यक्ति (तपसा रक्षति) = तप के द्वारा रक्षित करता है। यह ज्ञानी पुरुष (तत् केवलं ब्रह्म) = उस आनन्द में विचरनेवाले [के वलति] आनन्दरूप प्रभु को (विद्वान्) = जानता हुआ (कृणुते) = [कृ to kill] सब वासनाओं का संहार कर डालता है।

    भावार्थ

    अपराविद्या व पराविद्यारूप ब्राह्मण की दो निधि हैं। तप के द्वारा इनका रक्षण होता है। ब्रह्मज्ञानी पुरुष सब वासनाओं का संहार कर डालता है।

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    भाषार्थ

    (अर्वाक्) इधर (अन्य) भिन्न प्रकार की निधि है, (दिवस्पृष्ठात्) और द्युलोक की पीठ से (परः) परे (अन्यः) उस से भिन्न प्रकार की निधि है,—ये (निधी) दोनों निधियां (ब्राह्मणस्य) वेदज्ञ ब्रह्मचारी की (गुहा) हृदय या मस्तिष्क की गुफा में (निहितौ) स्थित रहती हैं। (ब्रह्मचारी) ब्रह्म अर्थात् वेद में विचरने वाला (तपसा) तपोमय जीवन द्वारा (तौ) उन दोनों ज्ञाननिधियों को (रक्षति) निज हृदय या मस्तिष्क में सुरक्षित करता है, (ब्रह्म विद्वान्) वेद का जानने वाला (तत्) उस वेदज्ञान को (केवलम्) केवल अर्थात् एकमात्र लक्ष्य (कृणुते) करता है।

    टिप्पणी

    [इधर निधि है पृथिवी, और द्युलोक की पीठ से परे निधि है द्युलोक। द्युलोक की पीठ भूलोक की ओर है, और मुख ऊपर अर्थात् ऊर्ध्व की ओर है। इन दोनों का परिज्ञान दो निधियां हैं, जिन्हें कि ब्रह्मचारी निज गुहा में सुरक्षित रखता है। ब्राह्मणस्य= अधीतवेदस्य। निधिर्वेदात्मकः। गुहा हृदयरूपा। विद्वान वेदार्थरहस्याभिज्ञः" (सायणाचार्य)। सायणाचार्य की दृष्टि में मन्त्रपठित ब्राह्मणपद जातिपरक नहीं, अपितु यौगिकार्थपरक है]।

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    विषय

    ब्रह्मचारी के कर्तव्य।

    भावार्थ

    (अन्यः) एक (अर्वाक्) यहां, समीप ही और (अन्यः) दूसरा (दिवः पृष्ठात् परः) द्यौलोक से भी परे (ब्राह्मणस्य) ब्राह्मण, ब्रह्मशक्ति से सम्पन्न पुरुषों के (निधी) दो ख़ज़ाने (गुहा निहितौ) गुहा में स्थित हैं। (तौ) उन दोनों की (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (तपसा) अपने तपोबल से (रक्षति) रक्षा करता है। (विद्वान्) विद्या सम्पन्न वह ब्रह्मचारी होकर (तत्) उस (केवलम्) केवल मोक्ष रूप परम (ब्रह्म) ब्रह्म को (कृणुते) प्राप्त करता है। निधि-ख़ज़ाने—एक तो यह ब्रह्मकोश है वेद का विज्ञान, दूसरा स्वयं ब्रह्मपद। ये दोनों उसके गुरु या आचार्य के हृदय के भीतर विराजमान है। वह तप से दोनों को धारण करता है और ब्रह्मज्ञान के बल पर, केवल, परम पद प्राप्त करता है। ‘आचार्यो ब्रह्मणो मूर्त्तिः’ मनु०॥

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘तौ ब्रह्मचारी तपसाभिरक्षति’ (प्र०) ‘परान्यो’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मचारी देवता। १ पुरोतिजागतविराड् गर्भा, २ पञ्चपदा बृहतीगर्भा विराट् शक्वरी, ६ शाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती, ७ विराड्गर्भा, ८ पुरोतिजागताविराड् जगती, ९ बार्हतगर्भा, १० भुरिक्, ११ जगती, १२ शाकरगर्भा चतुष्पदा विराड् अतिजगती, १३ जगती, १५ पुरस्ताज्ज्योतिः, १४, १६-२२ अनुष्टुप्, २३ पुरो बार्हतातिजागतगर्भा, २५ आर्ची उष्गिग्, २६ मध्ये ज्योतिरुष्णग्गर्भा। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    आदित्यपरक व्याख्या- से अर्थात् आदित्यमण्डल (दिवस्पृष्ठात्) द्युलोक के पृष्ठ से (अर्वाक्-अन्यः) उरली दिशा में अर्थात् पृथिवी पर अन्य प्रकार का अन्य कार्य करने वाला गुण है; (परः अन्यः) आदित्यमण्डल से परे या पृथिवीलोक से परे द्युलोक में अन्य प्रकार का अन्य कार्य करने वाला गुण है (गुहा निहितौ निधी ब्राह्मणस्य) वे दोनों गुण उस आदित्य की गुहा में गुप्त या रखे हैं जो कि ब्राह्मण अर्थात् ज्योतिर्विद्यावेत्ता विद्वानों के कोष रूप में (ब्रह्मचारी तौ तपसा रक्षति) श्रादित्य उन दोनों की अपने तापसे रक्षा करता है (तत् केवलं ब्रह्म विद्वान् कृणुते) जो उस केवल ब्रह्म मात्र आकाश को प्राप्त करने के हेतु "ब्रह्म वै वाचः परमं व्योम" (तै० ३।६।५।५) उन दोनों गुणों को आत्मसात् करता है । विद्यार्थी के विषय में- (दिवस्पृष्टात्) "पादो अस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि” (ऋ० १०।६०।३) अमृत आत्मा का मोक्षरूप से (अर्वाक्-अन्यः) संसारनिर्वाहक अभ्युदयसाधक गुण अन्य है जो आचार्य से लिया जाता है पुनः (परः अन्यः) पर अर्थात् उत्कृष्ट परमात्मदर्शन साधक या निःश्रेयस साधक गुण अन्य है जो आचार्य से लिया जाता है (गुहा निहितौ निधी ब्राह्मणस्य) उस ब्रह्मचर्यव्रती जन की गुहा में- अन्तःकरण में रखे जाते हैं जो ब्राह्मण अर्थात् मुमुक्षु के कोपभूत हैं (तौ ब्रह्मचारी तपसा रक्षति) उन दोनों अभ्युदय और निःन्न यस साधक गुणों को ब्रह्मचर्यव्रती जन आचार्य की सेवा में रहनेरूप तप से रक्षा करता है (तत् केवलं ब्रह्म विद्वान् कृणुते) उस केवल-ब्रह्मपरमात्मा को जानने के हेतु कोषभूत गुणों को आत्मसात् करता है ॥१०॥

    विशेष

    ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahmacharya

    Meaning

    This one right here on earth is one wealth and value, that other beyond the top of heaven is another wealth and value. Both of these lie deep treasured in the heart core of the Brahmana, Brahmachari dedicated to knowledge and enlightened living. These two wealths and values, the Brahmachari, with his relentless discipline of knowledge and living, preserves, protects and promotes. And that is the all, and only that, which the scholar of Vedic knowledge of Brahma pursues as his sole aim in life.

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    Translation

    The one this side, the other beyond, the back of the sky, in secret (are) deposited (ni-dha) the two treasures (nidhi) of the brahmana; them the Vedic student defends by fervor, the whole of that he, knowing, makes brahman for himself.

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    Translation

    The two treasuries of divine lore kept concealed, one this side and the other beyond the other side of the heavens (Ether). The Vedic student, with his fervor protects the two and knowing the Supreme being make him alone the obiect to serve,

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    Translation

    In the intellect of a learned person lie hidden both treasures one of them is near, the other far above the heaven's region. The Brahmchari guards them both with his austerity, and through knowledge, attains to God, the Bestower of salvation.

    Footnote

    Both treasures: Veda and God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(अर्वाक्) समीपवर्ती (अन्यः) एको निधिः (परः) परस्तात्। दूरम् (अन्यः) अपरः (दिवः) सूर्यस्य (पृष्ठात्) उपरिभागात् (गुहा) गुहायाम्। गुप्तदशायाम् (निधी) धनकोशौ (निहितौ) निक्षिप्तौ (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मसम्बन्धिज्ञानस्य (तौ) निधी (रक्षति) (तपसा) (ब्रह्मचारी) (तत्) ब्रह्म (केवलम्) अ० ३।१८।२। सेवनीयम्। निश्चितम् (कृणुते) करोति (ब्रह्म) परमात्मानम् (विद्वान्) विदन्। जानन् ॥

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