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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - पञ्चपदा बृहतीगर्भा विराट्शक्वरी सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
    238

    ब्र॑ह्मचा॒रिणं॑ पि॒तरो॑ देवज॒नाः पृथ॑ग्दे॒वा अ॑नु॒संय॑न्ति॒ सर्वे॑। ग॑न्ध॒र्वा ए॑न॒मन्वा॑य॒न्त्रय॑स्त्रिंशत्त्रिश॒ताः ष॑ट्सह॒स्राः सर्वा॒न्त्स दे॒वांस्तप॑सा पिपर्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्र॒ह्म॒ऽचा॒रिण॑म् । पि॒तर॑: । दे॒व॒ऽज॒ना: । पृथ॑क् । दे॒वा: । अ॒नु॒ऽसंय॑न्ति । सर्वे॑ । ग॒न्ध॒र्वा: । ए॒न॒म् । अनु॑ । आ॒य॒न् । त्रय॑:ऽत्रिंशत् । त्रि॒ऽश॒ता: । ष॒ट्ऽस॒ह॒स्रा: । सर्वा॑न् । स: । दे॒वान् । तप॑सा । पि॒प॒र्ति॒ ॥७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्रह्मचारिणं पितरो देवजनाः पृथग्देवा अनुसंयन्ति सर्वे। गन्धर्वा एनमन्वायन्त्रयस्त्रिंशत्त्रिशताः षट्सहस्राः सर्वान्त्स देवांस्तपसा पिपर्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ब्रह्मऽचारिणम् । पितर: । देवऽजना: । पृथक् । देवा: । अनुऽसंयन्ति । सर्वे । गन्धर्वा: । एनम् । अनु । आयन् । त्रय:ऽत्रिंशत् । त्रिऽशता: । षट्ऽसहस्रा: । सर्वान् । स: । देवान् । तपसा । पिपर्ति ॥७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    ब्रह्मचर्य के महत्त्व का उपदेश।

    पदार्थ

    (सर्वे) सब (देवाः) व्यवहारकुशल, (पितरः) पालन करनेवाले, (देवजनाः) विजय चाहनेवाले पुरुष (पृथक्) नाना प्रकार से (ब्रह्मचारिणम्) ब्रह्मचारी [मन्त्र १] के (अनुसंयन्ति) पीछे-पीछे चलते हैं। (त्रयस्त्रिंशत्) तेंतीस, (त्रिशताः) तीन सौ और (षट्सहस्राः) छह सहस्र [६,३३३ अर्थात् बहुत से] (गन्धर्वाः) पृथिवी के धारण करनेवाले [पुरुषार्थी पुरुष] (एनम् अनु) इस [ब्रह्मचारी] के साथ-साथ (आयन्) चले हैं, (सः) वह (सर्वान्) सब (देवान्) विजय चाहनेवालों को (तपसा) [अपने] तप से (पिपर्ति) भरपूर करता है ॥२॥

    भावार्थ

    सब विद्वान् पुरुषार्थी जन पूर्वकाल से जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी के अनुशासन में चलकर आनन्द पाते आये हैं और पाते हैं ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(ब्रह्मचारिणम्) म० १। ब्रह्मचर्यं चरन्तं पुरुषम् (पितरः) पालकाः (देवजनाः) विजिगीषवः (पृथक्) नानाप्रकारेण (देवाः) व्यवहारकुशलाः (अनुसंयन्ति) अनुसृत्य गच्छन्ति (सर्वे) समस्ताः (गन्धर्वाः) अ० २।१।२। गो+धृञ् धारणपोषणयोः-व प्रत्ययः, गोशब्दस्य गमादेशः। गां पृथिवीं धरन्तीति ये ते (एनम्) ब्रह्मचारिणम् (अनु) अनुगत्य (आयन्) इण् गतौ-लङ्। अगच्छन् (त्रयस्त्रिंशत्) (त्रिशताः) त्रीणि शतानि येषु ते (षट्सहस्राः) षट्सहस्रसंख्याकाः। अपरिमिताः (सर्वान्) (सः) ब्रह्मचारी (देवान्) विजिगीषून् (तपसा) ब्रह्मचर्यरूपेण तपश्चरणेन (पिपर्ति) पूरयति ॥

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    विषय

    देव, मनुष्य आदि सब जगत् का ब्रह्मचर्य द्वारा धारण

    पदार्थ

    १. (ब्रह्मचारिणम्) = ब्रह्मचर्य का आचरण करते हुए पुरुष के लिए (पितर:) = रक्षणात्मक कार्यों में व्यापृत क्षत्रिय, (देवजना:) = [दिव् व्यवहारे] शुद्ध व्यवहार करनेवाले वैश्यजन, (पृथग देवा:) = [दिव् गतौ] अलग-अलग प्रकार के कर्म करनेवाला श्रमिक वर्ग, (सर्वे) = ये सब (अनुसंयन्ति) = अनुकूल गतिवाले होते हैं। (गन्धर्वा:) = ज्ञान की वाणियों का धारण करनेवाले ब्राह्मण तो (एनम् अनु आयन्) = इसके अनुकूल गतिबाले होते ही हैं। ब्रह्मचारी को चातुर्वर्ण्य की अनुकूलता प्राप्त होती है। २. शरीर में जो (त्रय:) = तीन देव हैं-वाणीरूप से अग्नि, प्राणरूप से वायु तथा चक्षु के रूप में सूर्य, इन (सर्वान् देवान्) = सब देवों को (स:) = वह ब्रह्मचारी (तपसा पिपर्ति) = तप के द्वारा अपने में सुरक्षित करता है। ये अग्नि, वायु, सुर्यरूप देव ही अपनी महिमा से (त्रिंशत्) = तीस, (त्रिशता:) = तीन सौ व (षट् सहस्त्रा:) = छह हज़ार हो जाते हैं। इन सब देवशक्तियों को ब्रह्मचारी अपने में धारण करता है।

    भावार्थ

    ब्रह्मचारी को 'क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र व ब्राह्मण' इन सबकी अनुकूलता प्राप्त होती है। वह अपने तप से सष देषों को अपने में पारिलारा करता है। यहाँ रामफे 'पृथप देखा.' शब्द से यह संकेत स्पष्ट है कि इन शूद्रों का इकट्ठ [Union] नहीं होना चाहिए, अन्यथा ये अनसूयापूर्वक ब्राह्मणादि की सेवा नहीं कर सकेंगे।

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    भाषार्थ

    (पितरः) पितृवर्ग, (देवजनाः) विद्वान् तथा दिव्यकोटि के लोग, (सर्वे देवाः) ये सब देव मिलकर तथा (पृथक) पृथक्-पृथक् रूप में (ब्रह्मचारिणम्, अनुसंयन्ति) ब्रह्मचारी के अनुगामी हो जाते हैं। (गन्धर्वाः) तथा पृथिवी का धारण करने वाले ६३३३ देव (एनम्, अनु आयन्) इस की अनुकूलता में आ जाते हैं। (सः) बह ब्रह्मचारी (सर्वान् देवान्) सब देवों को (तपसा) निज तपश्चर्यामय जीवन द्वारा (पिपर्त्ति) प्रसन्नता से भरपूर कर देता है।

    टिप्पणी

    [गन्धर्वाः= गौः पृथिवी (निघं० १।१) + धर्चाः (धृञ धारणे)। "गन्धर्वाः" का अर्थ पृथिवी का धारण करने वाले शासक-अधिकारी यदि अभिप्रेत हों, तब ६३३३ संख्या इन शासक-अधिकारियों की वेद ने नियत की है, जोकि सार्वभौम शासनार्थ होनी चाहिये। इस संख्या की उत्पति निम्न प्रकार हैं:- (१) शासन के लिये वेद ने 'त्रीणि सदांसि" अर्थात् तीन सभाएं कही हैं। यथा “त्रीणि राजाना विदथे पुरूनि परि विश्वानि भूषथः सदांसि" (ऋ० ३।३८।६)। तीन सभाएं हैं "विद्यार्यसभा, धर्मार्यसभा और राजार्यसभा" (सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास ६)। विद्यार्यसभा शिक्षा के लिये, धर्मार्यसभा नियमनिर्माण तथा तदनुसार न्याय के लिये, तथा राजार्यसभा राज्य शासन के लिये। सत्यार्थप्रकाश में इन सभाओं के साथ "आर्य" शब्द का प्रयोग है। आर्य का अभिप्राय है श्रेष्ठ, धर्मात्मा, सदाचारी, सत्यानुष्ठानी। (२) "सार्वभौमशासक" सर्वोपरि शक्ति हैं, जोकि समग्र पृथिवी की प्रजाओं द्वारा वरण किया गया है। इस के निरीक्षण में तीन सभाएं कार्य करती हैं। (३) प्रत्येक सभा में १ सभापति होता है और न्यून से न्यून १० पारिषद्य या पारिषद। इसे मनु में "दशावरा वा परिषद्" कहा है। १ सभापति और १० पारिषद्यों को "देवा एकादश" कहा है (यजु० २०।११)। ये "एकादश देवाः" ३ भागों या सभाओं में विभक्त हैं "त्रया देवा एकादश" (यजु० २०।११)। इन तीन सभाओं के ग्यारह देवों अर्थात् दिव्य सभासदों में एक-एक पुरोहित होता है, मुखिया होता है जिसे कि बृहस्पति कहा है "बृहस्पतिपुरोहिताः" (यजु० २०।११)। ये तीन सभाएं सार्वभौम राजा की रक्षा करती है "देवा देवैरवन्तु मा" (यजु० २०।११)। यजु० २०।११ की विस्तृत व्याख्या के लिये देखो मत्कृत "यजुर्वेद स्वाध्याय तथा पशुयज्ञ समीक्षा" (प्रकाशक रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़, सोनीपत, हरयाणा)। (४) प्रत्येक सभा का सभापति तो सभा का प्रबन्धक है, और शेष १० अधिकारी अपने-अपने विभागों, महकमों के शासक होते हैं। प्रबन्धकों और शासकों को मिलाकर तीन सभाओं में ११×३ = ३३ होते हैं। ये ३३ देव हैं, दिव्यकोटि के शासक हैं; सार्वभौम शासक हैं। (५) दशावरा परिषदों के दस-दस शासकों में प्रत्येक के अधीन दस-दस उपशासक हों। इस प्रकार प्रत्येक परिषद् के अधीन दस-दस उपशासकों की संख्या होती है १००। अतः तीन परिषदों के उपशासक ३०० होते हैं। संख्या (४) के ३३ देव तथा संख्या (५) के ३०० देव मिल कर ३३३ देव हुए। (६) ३०० उपशासकों में से प्रत्येक उपशासक के अधीन बीस-बीस और उपोपशासक हों। इस प्रकार उपोपशासक होते हैं ३००x२० = ६०००। अतः कुल योग = ३३+३०० + ६००० = ६३३३। (७) काण्ड ११। सूक्त ५ में ब्रह्मचारी का वर्णन होने से सूक्त में आधिभौतिक वर्णन है। इसलिये ६३३३ देव भी आधिभौतिक ही प्रतीत होते हैं। (८) आधिदैविक दृष्टि से, विना दूरबीन के तीव्र दृष्टि द्वारा देखने से दृष्टिगोचर सम्भवतः ६३३३ तारा हों। (९) तथा "यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे" के अनुसार सम्भवतः शरीरस्थ ६३३३ अङ्ग-प्रत्यङ्ग तथा नाड़ियां अभिप्रेत हों। बृहदारण्यकोपनिषद् में केवल हृदय की नाड़ियों की संख्या निम्न प्रकार दर्शाई है:— हिता नाम नाड्यो द्वासप्तति सहस्राणि हृदयात्पुरीततमभिप्रतिष्ठन्ते" (अध्याय २, ब्राह्मण १) अर्थात् हितानामक नाड़ियां ७२ हजार हैं, जोकि हृदय से पुरीतत् की ओर जाती हैं। सुषुम्णा की नाड़ियां इन से अतिरिक्त हैं। सम्भवतः ६३३३ संख्या मुख्य-मुख्य अंग-प्रत्यंगों तथा मुख्य नाड़ियों की अभिप्रेत हो। नाड़ियों के सम्बन्ध में देखो वृहदा० उप० अध्या० ४, ब्राह्मण ३, खण्ड २०। आध्यात्मिक दृष्टि में - तीन शरीर =स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर = ३। प्रत्येक शरीर में दस-दस ऐन्द्रियिक शक्तियां = १०+१०+१० = ३०। सौ वर्ष काल में तीनों शरीर के शारीरिक परिवर्तन = १००+१००+१०० = ३००। सौ वर्ष काल में तीनों शरीर के ऐन्द्रियिक दैवी परिवर्तन= (१००×१०)+ (१००×१०)+ (१००×१०) = ३०००। सौ वर्ष काल में तीनों शरीर में आसुरि परिवर्तन =(१००×१०)+ (१००×१०)+ (१००×१०) = ३०००। ऐन्द्रियिक परिवर्तनों के दो भाग कुल = ३+३०+३००+३०००+३०००= ६३३३। ६३३३ संख्या के सम्बन्ध में उपरिलिखित व्याख्याएं केवल सुझाव रूप है। इस संख्या के सम्बन्ध में निश्चितरूप में कुछ कहा नहीं जा सकता। सायणाचार्य ने लिखा है कि "वैश्वदैवनिविदि देवानां संख्या उत्तरोत्तरं भूयसी, तन्माहात्म्यप्रतिपादनाय समाम्नायते। यथा “ये स्थ त्रय एकादशाः, त्रयश्च त्रिंशच्च त्रयश्च त्री च शता, त्रयश्च त्री च सहस्रा "इति प्रकम्य" अतो वा देवा भूयांसः स्थ" इति (निविदि १।७)। "अर्थात् इस प्रकार प्रदर्शित ६३३३ दैवी संख्या, केवल दैवों के महात्म्य का प्रदर्शन करती है। संख्या अनुसंन्धान योग्य है]।

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    विषय

    ब्रह्मचारी के कर्तव्य।

    भावार्थ

    (ब्रह्मचारिणम्) ब्रह्मचारी को देखकर (पितरः) पितृ लोग (देवजनाः) दान-शील पुण्यात्मा लोग और (देवाः) तत्वदर्शी विद्वान् राजा लोग भी (पृथक्) अलग (सर्वे) सब (अनु संयन्ति) उसके पीछे चलते हैं, उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। (गन्धर्वाः) गन्धर्व, सामान्य पुरुष (एनम् अनु आयन्) उसके पीछे चलते हैं, उसका अनुकरण करते और आज्ञा पालन करते हैं। (षट्सहस्राः त्रिशताः त्रयः त्रिंशत्) ६३३३ प्रकार के अथवा ३३ और ३०३ और ६००० देव हैं (स सर्वान् देवान्) वह उन समस्त देवों को (तपसा पिपर्त्ति) अपने तप से पालन करता है. अर्थात् ब्रह्मचर्य के बल से सबको धारण करता है।

    टिप्पणी

    ‘पितरो मनुष्या देवजना गन्धर्वा अनुसंयन्ति सर्वे। त्रयस्त्रिंशतम् त्रिशतम् शतसहस्रान् सर्वान् स देवांस्तपसा विभति’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मचारी देवता। १ पुरोतिजागतविराड् गर्भा, २ पञ्चपदा बृहतीगर्भा विराट् शक्वरी, ६ शाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती, ७ विराड्गर्भा, ८ पुरोतिजागताविराड् जगती, ९ बार्हतगर्भा, १० भुरिक्, ११ जगती, १२ शाकरगर्भा चतुष्पदा विराड् अतिजगती, १३ जगती, १५ पुरस्ताज्ज्योतिः, १४, १६-२२ अनुष्टुप्, २३ पुरो बार्हतातिजागतगर्भा, २५ आर्ची उष्गिग्, २६ मध्ये ज्योतिरुष्णग्गर्भा। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    आदित्यपरक व्याख्या- (ब्रह्मचारिणम्) ब्रह्म-परमात्मा के आदेश में वर्तमान आदित्य को (पितरः-देवजना:) पितृसंज्ञक पालनधर्मवाले देवगण द्युस्थान के सब आदित्य आदि निरुक्त के द्यस्थान में पढ़े हुये अथवा देवों के जनक रश्मियां या ऋतुएं (पृथक् देवाः) केवल देवसंज्ञा से प्रसिद्ध अन्तरिक्ष में बहते हुए निरुक्त के मध्य स्थान में पढे हुए मरुत् आदि (सर्वे-अनु संयन्ति) सब अनुकूलता को सेवन अनुसंयन्ति करते हैं (एनम्) इस आदित्य को (गन्धर्वाः) पृथिवी में धरे हुए नदी आदि जलवाह (अन्वायन्) अनुकूलता को प्राप्त होते हैं ऐसे ये तीनों स्थानों के (त्रयस्त्रिंशत् त्रिशताः षट्सहस्राः) तेंतीस तथा उनके विभूतिरूप तीन सौ पुनः उनके विभूतिरूप छः सहस्र हैं 'ये स्थ त्रयः-एकादशास्त्रयश्च' 'त्रिवृत एकादश' त्रिंशच्च त्रयश्च 'त्रिः कृत्व स्त्रिशतानि नवशतानि' च सहस्राः ' [अंशतः प्रसिद्धिं गताः] (काठक सं० ३५।६।३६) (सः सर्वान् देवान् तपसा पिपर्ति) वह आदित्य अपने ताप से सारे देवों को ," पालता है । विद्यार्थी के विषय में- (ब्रह्मचारिणम्) ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी को (पितरः-देवजनाः) पितृसंज्ञक देवजन पिता-पितामह आदि पूज्य जन अथवा विद्वानों के जनक वंश्य नर, शरीर में प्राणवाहक तन्तु (पृथक् देवाः) केवल देव महात्मा विद्वान् अध्यापक उपदेशक, शरीर में ज्ञानंवाहक तन्तु (सर्वे अनुसंयन्ति) सब अनुकूल हो जाते हैं (एवम्) इस ब्रह्मचर्यव्रती को (गन्धर्वाः) वाणी को धारण करते हुए-अध्ययन करते हुए सहपाठी भी, शरीर में रसवाहकतन्तु (अन्वायन् ) अनुकूल हो जाते हैं (त्रयस्त्रिंशत्-त्रिशताः षट्सहस्राः ) तैंतीस तथा तीन सौ और उनके भी विभूतिरूप छः सहस्र पितृजन गुरुजन सहपाठी जन तथा हृदय मस्तिष्क नाभि के तन्तु अनुकूल हो जाते हैं जो कि हृदय के प्राण एवं रक्त के प्रसार को और मस्तिष्क के स्मृतिवाहक, ज्ञानेन्द्रिय विषयों के ग्राहक, नाभि में रसाकर्षण तन्तु पाचक रसत्रावक तन्तु । सुश्रुत शरीरस्थान में इस नाडीजाल को देखो (सः सर्वान् देवान् तपसा पिपर्ति) वह ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी सारे दिव्य गुण वाले जनों को ज्ञान से तथा शरीराङ्ग तन्तुओं को संयम बल से पूरित करता है ॥२॥

    विशेष

    ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahmacharya

    Meaning

    Pitaras, parental protectors of life and society, divinely disposed people, divinities of nature and brilliant people, all in their own way, minister to the needs of the Brahmachari. Gandharvas, those that sustain life on earth, those that sustain the continuity of knowledge and the sacred Word, all divinities, thirty three, three hundred, six thousand, all favour him, and he gives them all the pleasure of fulfilment with his studies and his austere discipline of life.

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    Translation

    The fathers, the god-folk, all the gods individually assemble after the Vedic student; the Gandharvas went after him, thirty-three, three hundred, six thousand; he fills all the gods with fervor.

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    Translation

    Protectors of human society, men wishing for success in life, and those well-versed in the affairs of the world have always in different ways to follow the man of subdued passions given to the pursuit of Vedic learning. May, the diligent six thousand three hundred and thirty three supporters also allow themselves to be led by him, for, he fulfils, by his mortified and regulated life, (the wishes of) all those aspire after success,

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    Translation

    Sons devoted to their parents, virtuous people, scholars of metaphysics separately obey the behest of the Brahmchari. Enterprising persons, who sustain the earth follow him. He satisfies with his fervent devotion the thirty three, three hundred and six thousand forces of nature.

    Footnote

    The words, thirty-three, three hundred, and six thousand mean innumerable.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(ब्रह्मचारिणम्) म० १। ब्रह्मचर्यं चरन्तं पुरुषम् (पितरः) पालकाः (देवजनाः) विजिगीषवः (पृथक्) नानाप्रकारेण (देवाः) व्यवहारकुशलाः (अनुसंयन्ति) अनुसृत्य गच्छन्ति (सर्वे) समस्ताः (गन्धर्वाः) अ० २।१।२। गो+धृञ् धारणपोषणयोः-व प्रत्ययः, गोशब्दस्य गमादेशः। गां पृथिवीं धरन्तीति ये ते (एनम्) ब्रह्मचारिणम् (अनु) अनुगत्य (आयन्) इण् गतौ-लङ्। अगच्छन् (त्रयस्त्रिंशत्) (त्रिशताः) त्रीणि शतानि येषु ते (षट्सहस्राः) षट्सहस्रसंख्याकाः। अपरिमिताः (सर्वान्) (सः) ब्रह्मचारी (देवान्) विजिगीषून् (तपसा) ब्रह्मचर्यरूपेण तपश्चरणेन (पिपर्ति) पूरयति ॥

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