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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 25
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - एकावसानार्च्युष्णिक् सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
    73

    चक्षुः॒ श्रोत्रं॒ यशो॑ अ॒स्मासु॑ धे॒ह्यन्नं॒ रेतो॒ लोहि॑तमु॒दर॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    चक्षु॑: । श्रोत्र॑म् । यश॑: । अ॒स्मासु॑ । धे॒हि॒ । अन्न॑म् । रेत॑: । लोहि॑तम् । उदर॑म् ॥७.२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चक्षुः श्रोत्रं यशो अस्मासु धेह्यन्नं रेतो लोहितमुदरम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चक्षु: । श्रोत्रम् । यश: । अस्मासु । धेहि । अन्नम् । रेत: । लोहितम् । उदरम् ॥७.२५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 25
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    ब्रह्मचर्य के महत्त्व का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे ब्रह्मचारी !] (अस्मासु) हम लोगों में (चक्षुः) नेत्र, (श्रोत्रम्) कान, (यशः) यश, (अन्नम्) अन्न, (रेतः) वीर्य, (लोहितम्) रुधिर और (उदरम्) उदर [की स्वस्थता] (धेहि) धारण कर ॥२५॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि वेदवेत्ता विवेकी विद्वान् से नेत्रादि की स्वस्थता की शिक्षा प्राप्त करके आत्मा की शुद्धि से यशस्वी बलवान् होवें ॥२५॥

    टिप्पणी

    २५−(चक्षुः) रूपग्राहकमिन्द्रियम् (श्रोत्रम्) शब्दग्राहकमिन्द्रियम् (यशः) कीर्तिम् (अस्मासु) (धेहि) धारय (अन्नम्) भोजनम् (रेतः) वीर्यम् (लोहितम्) रुधिरस्वास्थ्यम् (उदरम्) जठरस्वास्थ्यम् ॥

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    विषय

    स्नातक

    पदार्थ

    १. हे ब्रह्मचर्यात्मक ब्रह्मन्। आप (अस्मासु) = हममें (चक्षुः श्रोत्रम्) = देखने व सुनने की शक्ति को और (यश:) = कीर्ति को (धेहि) = धारण कीजिए। इसी दृष्टिकोण के (अन्नम्) = भोज्य अन्न को, (रेत:) = अन्न से उत्पन्न इस वीर्य को, (लोहितम्) = रुधिर को तथा (उदरम्) = उदर को-उदरोपलक्षित समस्त शरीर को [धेहि-] धारण कीजिए। २. (तानि) = उन चक्षु, श्रोत्र आदि को (कल्पत) = सामर्थ्ययुक्त करता हुआ (ब्रह्मचारी) = वीर्यरक्षक युवक (समुद्रे) = ज्ञान के समुद्र आचार्य के गर्भ में (तपः तप्यमान:) = तप भी करता हुआ (सलिलस्य पृष्ठे) = ज्ञान-जल के पृष्ठ पर (अतिष्ठत्) = स्थिर होता है। इस ज्ञान-जल में (स्नातः) = स्नान करके शुद्ध बना हुआ (स:) = वह ब्रह्मचारी (बभ्रू:) = वीर्य का धारण करनेवाला (पिंगल:) = तेजस्विता से पिंगल वर्णवाला (पृथिव्याम्) = इस पृथिवी पर (बहु रोचते) = बहुत ही चमकता है।

    भावार्थ

    ब्रह्मचारी अपने में 'चक्षु, श्रोत्र, यश, अन्न, रेत, लोहित व उदर' को धारण करता हुआ आचार्य के गर्भ में तपस्यापूर्वक स्थित होता है। यह ज्ञान-जल में स्नान करके, वीर्यरक्षण से तेजस्वी बना हुआ इस पृथिवी पर खूब ही चमकता है।

    यह निष्पाप जीवनवाला ब्रह्मचारी शान्ति का विस्तार करनेवाला शन्ताति' होता हुआ अगले सूक्त में निष्पापता के लिए प्रार्थना करता है -

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    भाषार्थ

    तथा हे ब्रह्मचारी ! (अस्मासु) हम में, (चक्षुः...) चक्षु, श्रोत्र, यश, अन्न, रेतस्, लोहित और उदर-इन के यथार्थ स्वरूपों का ज्ञान भी (धेहि) स्थापित कर।

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    विषय

    ब्रह्मचारी के कर्तव्य।

    भावार्थ

    हे ब्रह्मचारिन् ! (अस्मासु) हम प्रजाओं में आप (चक्षुः श्रोत्रं यशः) चक्षु, श्रोत्र, यश और (अन्नं रेतः लोहितम् उदरं) अन्न, वीर्य, रक्त और उत्तम जाठर अग्नि से युक्त पेट को भी (धेहि) धारण कराओ।

    टिप्पणी

    ‘वाचं श्रेष्ठां यशोऽस्मासु’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मचारी देवता। १ पुरोतिजागतविराड् गर्भा, २ पञ्चपदा बृहतीगर्भा विराट् शक्वरी, ६ शाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती, ७ विराड्गर्भा, ८ पुरोतिजागताविराड् जगती, ९ बार्हतगर्भा, १० भुरिक्, ११ जगती, १२ शाकरगर्भा चतुष्पदा विराड् अतिजगती, १३ जगती, १५ पुरस्ताज्ज्योतिः, १४, १६-२२ अनुष्टुप्, २३ पुरो बार्हतातिजागतगर्भा, २५ आर्ची उष्गिग्, २६ मध्ये ज्योतिरुष्णग्गर्भा। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (ऊर्ध्वः सुप्तेषु जागार) यह सर्वोपरि हो सोते हुओं में जागता है "प्राणाग्नय एवैतस्मिन् पुरे जाग्रति" [प्रश्नों० ४।३] (ननु तिर्यङ् निपद्यते) क्योंकि उन सोते हुओं को परिभव करता हुआ निरन्तर जाना जाता है “तिरः परिभवे" (अव्ययार्थ निबन्धनम्) (सुप्तेषु अस्य सुप्तं न कश्चन-अनुशुश्राव) सोते हुओं में इसका सोना किसी ने पुरातन समय से भी नहीं सुना है ॥२५॥

    विशेष

    ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahmacharya

    Meaning

    O Brahmacharya, bring us the eye, ear, honour, food, seed vitality, vibrant blood and the noble appetite for living.

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    Translation

    Sight, hearing, glory put thou in us; food, seed, blood (lohita), belly.

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    Translation

    To such an accomplished continent man people should approach and request hint thus; Oh sir! you are will-versed in these matters help us to attain a good power of sight and hering fame, food, virility, (purity of) blood, and power of digestion.

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    Translation

    O Brahmchari bestow on us the power of sight and hearing, glory and food, seed for progeny, pure blood and strong belly.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २५−(चक्षुः) रूपग्राहकमिन्द्रियम् (श्रोत्रम्) शब्दग्राहकमिन्द्रियम् (यशः) कीर्तिम् (अस्मासु) (धेहि) धारय (अन्नम्) भोजनम् (रेतः) वीर्यम् (लोहितम्) रुधिरस्वास्थ्यम् (उदरम्) जठरस्वास्थ्यम् ॥

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