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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 23
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - पुरोबार्हतातिजागतगर्भा त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
    70

    दे॒वाना॑मे॒तत्प॑रिषू॒तमन॑भ्यारूढं चरति॒ रोच॑मानम्। तस्मा॑ज्जा॒तं ब्राह्म॑णं॒ ब्रह्म॑ ज्ये॒ष्ठं दे॒वाश्च॒ सर्वे॑ अ॒मृते॑न सा॒कम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वाना॑म् । ए॒तत् । प॒रि॒ऽसू॒तम् । अन॑भिऽआरूढम् । च॒र॒ति॒ । रोच॑मानम् । तस्मा॑त् । जा॒तम् । ब्राह्म॑णम् । ब्रह्म॑ । ज्ये॒ष्ठम् । दे॒वा: । च॒ । सर्वे॑ । अ॒मृते॑न । सा॒कम् ॥७.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवानामेतत्परिषूतमनभ्यारूढं चरति रोचमानम्। तस्माज्जातं ब्राह्मणं ब्रह्म ज्येष्ठं देवाश्च सर्वे अमृतेन साकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवानाम् । एतत् । परिऽसूतम् । अनभिऽआरूढम् । चरति । रोचमानम् । तस्मात् । जातम् । ब्राह्मणम् । ब्रह्म । ज्येष्ठम् । देवा: । च । सर्वे । अमृतेन । साकम् ॥७.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 23
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    हिन्दी (5)

    विषय

    ब्रह्मचर्य के महत्त्व का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवानाम्) प्रकाशमान लोकों का (परिपूतम्) सर्वथा चलानेवाला, (अनभ्यारूढम्) कभी न हराया गया, (रोचमानम्) प्रकाशमान (एतत्) यह [व्यापक ब्रह्म] (चरति) विचारता है, (तस्मात्) उस [ब्रह्मचारी] से (ज्येष्ठम्) सर्वोत्कृष्ट (ब्राह्मणम्) ब्रह्मज्ञान और (ब्रह्म) वृद्धिकारक धन (जातम्) प्रकट [होता है], (च) और (सर्वे देवाः) सब विद्वान् (अमृतेन साकम्) अमरपन [मोक्षसुख] के साथ [होते हैं] ॥२३॥

    भावार्थ

    ब्रह्मचारी सर्वप्रेरक सर्वशक्तिमान् परमात्मा के गुणों को प्रकट करके संसार में ज्ञान और धन बढ़ाकर सबको मोक्षसुख का अधिकारी बनाता है ॥२३॥इस मन्त्र का तीसरा, और चौथा पाद मन्त्र ५ में आ चुका है ॥

    टिप्पणी

    २३−(देवानाम्) प्रकाशमानानां लोकानाम् (एतत्) एतेस्तुट् च। उ० १।१३३। इण् गतौ-अदि तुट् च। व्यापकं ब्रह्म (परिषूतम्) षू क्षेपे प्रेरणे-क्त। परितः सूतम्। सर्वतः प्रेरकम् (अनभ्यारूढम्) अनाक्रान्तं सर्वोत्कृष्टम् (चरति) व्याप्नोति (रोचमानम्) दीप्यमानम्। अन्यद् व्याख्यातम् म० ५ ॥

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    विषय

    वीर्यरक्षण का महत्व

    पदार्थ

    १. (देवानाम) = वासनाओं को जीतने की कामनावाले, देववृत्ति के पुरुषों का (एतत्) = यह शरीरस्थ वीर्य (परिषूतम्) = परिगृहीत हुआ-हुआ-शरीर में ही चारों ओर व्यास किया हुआ (अनभ्यारूढम्) = रोग आदि से अनाक्रान्त हुआ-हुआ (रोचमानम्) = ज्ञानदीसि से दीप्त हुआ-हुआ (चरति) = शरीर में गतिवाला होता है। २. (तस्मात्) = उस शरीरस्थ वीर्य से ही (ब्राह्मणम्) = ब्रह्म सम्बन्धी (ज्येष्ठं ब्रह्म) = सर्वोत्कृष्ट ज्ञान, (जातम्) = प्रादुर्भूत हुआ (च) = और (अमृतेन साकम्) = अमृत नीरोगता के साथ (सर्वे देवा:) = सब दिव्य गुण उत्पन्न हुए।

    भावार्थ

    देववृत्ति के पुरुष वीर्य का शरीर में ही रक्षण करते हैं। यह सुरक्षित वीर्य रोगों से अनाक्रान्त व दीप्त होकर शरीर में गति करता है। इस सुरक्षित वीर्य से 'सर्वोत्कृष्ट ब्रह्मज्ञान, दिव्य गुणों व नीरोगता' की प्राप्ति होती है।

     

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    भाषार्थ

    (अनभ्यारुढम्) विरोधी शक्तियों द्वारा अनाक्रान्त (देवानाम्) दिव्य शक्तियों का (एतत् परिषूतम्) यह निचोड़ अर्थात् सार (रोचमानम्) प्रदीप्यमान ब्रह्मचारी (चरति) विचरता है। (तस्मात्) उस ब्रह्मचारी से (ज्येष्ठं ब्राह्मणम्) सब से ज्येष्ठ ब्रह्म, तथा (ब्रह्म) वेदज्ञान (जातम्) प्रकट होता है, (सर्वे देवाश्च) और ब्रह्मचारी की सब दिव्य शक्तियां (अमृतेन साकम्) अजर-अमर परमेश्वर के साथ मिल जाती हैं, परमेश्वरीय कार्यों के अनुरूप हो जाती हैं।

    टिप्पणी

    [ब्राह्मणम्= ब्रह्म (परमेश्वर), स्वार्थे "अण", देखो (मन्त्र ५)। ब्रह्म, निःस्वार्थ तथा परोपकार भावना से और प्राणियों पर अनुग्रह करता हुआ जगत् का निरीक्षण तथा नियन्त्रण करता है, सच्चे ब्रह्मचारी के कार्य भी एतद्नुरूप हो जाते हैं (मन्त्र ५)]

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    विषय

    ब्रह्मचारी के कर्तव्य।

    भावार्थ

    (देवानाम् एतत् परिषूतम्) देवों को भी यह ब्रह्म रूप वीर्य सब प्रकार से प्रेरणा करने वाला, उनका संचालक (अनभ्यारूढम्) किसी के भी वश न होकर सर्वोपरि विराजमान (रोचमानम्) अति प्रकाशमान होकर (चरति) व्याप्त है। (तस्मात्) उससे (ब्राह्मणम्) ब्रह्म से उत्पन्न (ज्येष्ठम्) सर्वोत्कृष्ट ब्रह्म वेदज्ञान और (अमृतेन साकम्) अमृत मोक्ष के साथ (सर्वे देवाः च) समस्त देवगण दिव्य सूर्यादिलोक और विद्वान् गण भी (जातम्) उत्पन्न हुए।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘देवानामेतत् पुरुहूतम्’ (तृ० च०) ‘तस्मिन् सर्वे पशवस्तत्र यज्ञास्तस्मिन्नन्नं सह देवताभिः’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मचारी देवता। १ पुरोतिजागतविराड् गर्भा, २ पञ्चपदा बृहतीगर्भा विराट् शक्वरी, ६ शाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती, ७ विराड्गर्भा, ८ पुरोतिजागताविराड् जगती, ९ बार्हतगर्भा, १० भुरिक्, ११ जगती, १२ शाकरगर्भा चतुष्पदा विराड् अतिजगती, १३ जगती, १५ पुरस्ताज्ज्योतिः, १४, १६-२२ अनुष्टुप्, २३ पुरो बार्हतातिजागतगर्भा, २५ आर्ची उष्गिग्, २६ मध्ये ज्योतिरुष्णग्गर्भा। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (एतत्) यह ब्रह्म (देवानां परिषूनम्) देवों की अध्यात्मदृष्टि में परिगृहीत अर्थात् साक्षात् किया जाता है (अनभ्यारूढ रोचमानं चरति) जो अनायास प्राप्त स्वतः प्रकाशमान सर्वत्र विभुगति से विचरता है (तस्मात् ब्राह्मणं ज्येष्ठं ब्रह्म जातम्) उससे ब्रह्म-परमात्मा से प्रेरित श्रेष्ठ वेद ज्ञान प्रसिद्ध होता है (सर्वे देवा:-अमृतेन साकम्) सारे मुमुक्षु विद्वान् अमर धर्म के साथ प्रसिद्धि को प्राप्त होते हैं ॥२३॥

    विशेष

    ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahmacharya

    Meaning

    This discipline of Brahmacharya, distilled from nature and impelled from within by divine personages, unopposed and unviolated, brilliant and illuminative, pervades and rules the world of nature and humanity. Of that is born the divine knowledge and discipline of Supreme Brahma and from that arise all the noble and brilliant sages blest with the spirit of immortality against death.

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    Translation

    That, sent forth (? parisuta) of the gods, not mounted onto goes about shining, from that (was) born the brahmana, the chief brahman, and all the gods, together with immortality

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    Translation

    The resplendent Vedic Lore obtaining everywhere and never overpowered impels all the luminous worlds. From the man of restraint Supreme Divine Knowledge and ever increasing wealth spring and all the wise attain immortality.

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    Translation

    God, the Goader of all luminous worlds, Unconquerable, exists, shining brightly. From Him springs the Vedic knowledge about God, and come into existence all learned persons enjoying salvation.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २३−(देवानाम्) प्रकाशमानानां लोकानाम् (एतत्) एतेस्तुट् च। उ० १।१३३। इण् गतौ-अदि तुट् च। व्यापकं ब्रह्म (परिषूतम्) षू क्षेपे प्रेरणे-क्त। परितः सूतम्। सर्वतः प्रेरकम् (अनभ्यारूढम्) अनाक्रान्तं सर्वोत्कृष्टम् (चरति) व्याप्नोति (रोचमानम्) दीप्यमानम्। अन्यद् व्याख्यातम् म० ५ ॥

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