अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 20
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मचारी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
115
ओष॑धयो भूतभ॒व्यम॑होरा॒त्रे वन॒स्पतिः॑। सं॑वत्स॒रः स॒हर्तुभि॒स्ते जा॒ता ब्र॑ह्मचा॒रिणः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठओष॑धय: । भू॒त॒ऽभ॒व्यम् । अ॒हो॒रा॒त्रे इति॑ । वन॒स्पति॑: । स॒म्ऽव॒त्स॒र: । स॒ह । ऋ॒तुऽभि॑: । ते । जा॒ता: । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒रिण॑: ॥७.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
ओषधयो भूतभव्यमहोरात्रे वनस्पतिः। संवत्सरः सहर्तुभिस्ते जाता ब्रह्मचारिणः ॥
स्वर रहित पद पाठओषधय: । भूतऽभव्यम् । अहोरात्रे इति । वनस्पति: । सम्ऽवत्सर: । सह । ऋतुऽभि: । ते । जाता: । ब्रह्मऽचारिण: ॥७.२०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
ब्रह्मचर्य के महत्त्व का उपदेश।
पदार्थ
(ओषधयः) ओषधें [अन्न आदि पदार्थ] और (वनस्पतिः) वनस्पति [पीपल आदि वृक्ष], (भूतभव्यम्) भूत और भविष्यत् जगत्, (अहोरात्रे) दिन और राति। (ऋतुभिः सह) ऋतुओं के सहित (संवत्सरः) वर्ष [जो हैं], (ते) वे सब (ब्रह्मचारिणः) ब्रह्मचारी [वेदपाठी और इन्द्रियनिग्राहक पुरुष] से (जाताः) प्रसिद्ध [होते हैं] ॥२०॥
भावार्थ
ब्रह्मचारी पिछले मनुष्यों के उदाहरण से भविष्यत् सुधार कर ओषधि और समय आदि से उपकार लेकर उन्हें प्रसिद्ध करता है ॥२०॥
टिप्पणी
२०−(ओषधयः) अ० १।२३।१। ओषध्यः फलपाकान्ता बहुपुष्पफलोपगाः। मनु० १।४६। ओषः पाको धीयते यासु। व्रीहियवाद्याः (भूतभव्यम्) अतीतमुत्पत्स्यमानं च जगत् (अहोरात्रे) दिनं रात्रिश्च (वनस्पतिः) अपुष्पाः फलवन्तो ये ते वनस्पतयः स्मृताः। मनु० १।४७। अश्वत्थादिवृक्षः (संवत्सरः) अ० १।३५।४। सम्+वस निवासे-सरन्। वर्षकालः (सह) (ऋतुभिः) वसन्ताद्यैः कालविशेषैः (ते) पूर्वोक्ताः (जाताः) प्रसिद्धाः भवन्ति (ब्रह्मचारिणा) ब्रह्मचारिसकाशात् ॥
विषय
'ओषधियों व काल' का ब्रह्मचर्य
पदार्थ
१. (ओषधयः) = फलपाकान्त व्रीहि-यव आदि, (भूतभव्यम्) = उत्पन्न और उत्पत्स्यमान चराचरात्मक जगत् (अहोरात्रे) = दिन और रात, (वनस्पति:) = शरीरों में प्रकाश की रक्षक [वनाना पालयिता-वन Light] वनस्पतियाँ, (संवत्सर:) = द्वादश मासात्मक काल (अत्तभिः सह) = वसन्तादि छह ऋतुओं के साथ, ये सब (ब्रह्मचारिणः जाता:) = ब्रह्मचारी के तप की महिमा से ठीक प्रादुर्भाववाले हुए।
भावार्थ
जिस राष्ट्र में ब्रह्मचर्य का पालन होता है, वहाँ ओषधियों, वनस्पतियों ठीक समय पर प्रादुर्भूत होती हैं। वहाँ ऋतुओं के साथ कालचक्र भी सुचारुरूपेण चलता है।
भाषार्थ
(ओषधयः) ओषधियां, (वनस्पतयः) वनों तथा उपवनों अर्थात् उद्यानों के वृक्ष (अहोरात्रे) दिन और रात (ऋतुभिः सह संवत्सरः) तथा ऋतुओं सहित वर्ष, (ते) वे सब (ब्रह्मचारिणः) ब्रह्मचारी (जाताः) हुए हैं।
टिप्पणी
[अभिप्राय यह कि रोगनाशक ओषधियां तथा अन्नोत्पादक व्रीहि, यव आदि पौधे, और बड़े-बड़े वृक्ष भी पूर्ण यौवन पर पहुंच कर बीज तथा फलरूपी सन्तान पैदा करते हैं, अपरिपक्व अवस्था में नहीं। तथा भूतकाल और भव्य अर्थात् भविष्यत्काल, यथा एकयुग के पश्चात् अगला युग, और एक मन्वन्तर के पश्चात् अगला मन्वन्तर अपना-अपना पूरा यौवन-काल बिता कर ही अगले काल मानो उत्पादक होते हैं। अतः मानो ये भी निज ब्रह्मचर्य काल के नियम को पूर्ण करते हैं। दिन के नियत काल के पूर्ण हो जाने के पश्चात् रात्रि का जन्म होता, तथा रात्रि के नियत काल के पश्चात् ही दिन का जन्म होता है। इनका अपना अपना नियतकाल ही इन का कालिक-ब्रह्मचर्य है। इसी प्रकार प्रत्येक ऋतु नियत काल के पश्चात् ही अगली ऋतु को जन्म देती, और नियतकाल के पश्चात् ही ऋतुएँ वर्ष को जन्म देती हैं। इस प्रकार वैदिक दृष्टि में स्थावर-जङ्गम-जगत्, तथा काल, सभी अपने अपने नियतकालों के ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं]।
विषय
ब्रह्मचारी के कर्तव्य।
भावार्थ
(ओषधयः) ओषधियें, (भूतभव्यम्) भूत काल, और भविष्यत् काल, (अहोरात्रे) दिन और रात्रि, (संवत्सरः सहः ऋतुभिः) ऋतुओं सहित वर्ष (ते) वे सब (ब्रह्मचारिणः जाताः) ब्रह्मचारी सूर्य के तप से उत्पन्न हुए हैं।
टिप्पणी
(प्र०) ‘भूतभव्य’ (च०) ‘ब्रह्मचारिणा’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मचारी देवता। १ पुरोतिजागतविराड् गर्भा, २ पञ्चपदा बृहतीगर्भा विराट् शक्वरी, ६ शाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती, ७ विराड्गर्भा, ८ पुरोतिजागताविराड् जगती, ९ बार्हतगर्भा, १० भुरिक्, ११ जगती, १२ शाकरगर्भा चतुष्पदा विराड् अतिजगती, १३ जगती, १५ पुरस्ताज्ज्योतिः, १४, १६-२२ अनुष्टुप्, २३ पुरो बार्हतातिजागतगर्भा, २५ आर्ची उष्गिग्, २६ मध्ये ज्योतिरुष्णग्गर्भा। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥
विषय
सामान्य विषयक मन्त्र -
मन्त्रार्थ
(ओषधयः) ओष-ताप और क्षुधा को पीती हुई नष्ट करती हुई वन्य और ग्राम्य गोधूमादि ओषधियाँ 'ओषं धयन्ति तत्-ओषधयः समभवन्' (शत० २।२।४।५) (वनस्पतिः) फलवान् वृक्ष (भूतभव्यम्) भूत, भविष्यत् काल (अहोरात्रे) दिन और रात (संवत्सरः) दोनों अयनों अर्थात् उत्तरायण और दक्षिणायन से युक्त वर्ष (ऋतुभिः) बसन्तादि ऋतुओं के साथ अर्थात् वसन्तादि ऋतु भी (ते ब्रह्मचारिण:-जाता:) वे सब ब्रह्मचारी अर्थात् आदित्य से प्रसिद्ध हुए हैं तथा ब्रह्मचर्य व्रती जन उक्त औषधि वनस्पतियों को खाता हुआ; अपने शरीर में उनका परिणाम लाता है, दिन रात्रि आदि काल अवयव को भी जीवन में उपयोगी बनाता है तथा औषधि आदि वस्तुओं में भी ब्रह्मचर्य गुण संयम से उनकी स्वरूपस्थिति होती है अर्थान् विना गृहस्थ धर्म के औषधि, वनस्पति, अहोरात्र, भूतभव्य, उत्तरायण-दक्षिणायण, हेमन्त शिशिर, ग्रीष्म-वसन्त, शरद और वर्षा ऋतु ये सहयोगी जोडे होते हुए भी गृहस्थ की भाँति आलिङ्गन धर्म वाले नहीं है ॥२०॥
विशेष
ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-
इंग्लिश (4)
Subject
Brahmacharya
Meaning
Herbs, the past time, future time, day and night, the trees, the year with the seasons, they all are observers of the unrelenting discipline and law of Brahmacharya, right things, only at the right time, in nature.
Translation
The herbs, past and future, day and night, the forest tree, the year together with the seasons -they are born of the Vedic student.
Translation
Herbs and plants, the stages of the world that are past and those that are yet to come, day and night, trees, the year all follow the law of seasonal succession, change and fructification and are therefore, the observer of the law of restraint.
Translation
The plants, Past and Future day and night, the tall tree of the forest, the year with its seasons, all spring from the self-controlled Sun.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२०−(ओषधयः) अ० १।२३।१। ओषध्यः फलपाकान्ता बहुपुष्पफलोपगाः। मनु० १।४६। ओषः पाको धीयते यासु। व्रीहियवाद्याः (भूतभव्यम्) अतीतमुत्पत्स्यमानं च जगत् (अहोरात्रे) दिनं रात्रिश्च (वनस्पतिः) अपुष्पाः फलवन्तो ये ते वनस्पतयः स्मृताः। मनु० १।४७। अश्वत्थादिवृक्षः (संवत्सरः) अ० १।३५।४। सम्+वस निवासे-सरन्। वर्षकालः (सह) (ऋतुभिः) वसन्ताद्यैः कालविशेषैः (ते) पूर्वोक्ताः (जाताः) प्रसिद्धाः भवन्ति (ब्रह्मचारिणा) ब्रह्मचारिसकाशात् ॥
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