अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 21
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मचारी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
80
पार्थि॑वा दि॒व्याः प॒शव॑ आर॒ण्या ग्रा॒म्याश्च॒ ये। अ॑प॒क्षाः प॒क्षिण॑श्च॒ ये ते जा॒ता ब्र॑ह्मचा॒रिणः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठपार्थि॑वा: । दि॒व्या: । प॒शव॑: । आ॒र॒ण्या: । ग्रा॒म्या: । च॒ । ये । अ॒प॒क्षा: । प॒क्षिण॑: । च॒ । ये । ते । जा॒ता: । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒रिण॑: ॥७.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
पार्थिवा दिव्याः पशव आरण्या ग्राम्याश्च ये। अपक्षाः पक्षिणश्च ये ते जाता ब्रह्मचारिणः ॥
स्वर रहित पद पाठपार्थिवा: । दिव्या: । पशव: । आरण्या: । ग्राम्या: । च । ये । अपक्षा: । पक्षिण: । च । ये । ते । जाता: । ब्रह्मऽचारिण: ॥७.२१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (6)
विषय
ब्रह्मचर्य के महत्त्व का उपदेश।
पदार्थ
(पार्थिवाः) पृथिवी के और (दिव्याः) आकाश के पदार्थ और (ये) जो (आरण्याः) वन के (च) और (ग्राम्याः) गाँव के (पशवः) पशु हैं। (अपक्षाः) विना पंखवाले (च) और (ये) जो (पक्षिणः) पंखवाले जीव हैं, (ते) वे (ब्रह्मचारिणः) ब्रह्मचारी से (जाताः) प्रसिद्ध [होते हैं] ॥२१॥
भावार्थ
ब्रह्मचारी ही पृथिवी आदि के पदार्थों और जीवों के गुणों को प्रकाशित करता है ॥२१॥
टिप्पणी
२१−(पार्थिवाः) पृथिवीभवाः पदार्थाः (दिव्याः) आकाशभवाः (पशवः) गवाश्वसिंहादयः (आरण्याः) वने भवाः (ग्राम्याः) ग्रामे भवाः (अपक्षाः) पक्षरहिताः प्राणिनः (पक्षिणः) पक्षवन्तः (च)। अन्यत् पूर्ववत् म० २० ॥
पदार्थ
शब्दार्थ = ( पार्थिवाः ) = पृथिवी में होनेवाले ( दिव्या: ) = आकाश में विचरनेवाले पक्षी ( पशवः आरण्या: ) = वन में रहनेवाले पशु ( च ) = और ( ग्राम्याः ) = ग्राम में रहनेवाले पशु ( अपक्षाः ) = बिना पक्ष के ( पक्षिणः च ) = और पंखोंवाले ( ये ते ) = जो ये सब ( जाता: ) = उत्पन्न हुए ( ब्रह्मचारिणः ) = ब्रह्मचारी ही हैं ।
भावार्थ
भावार्थ = प्रभु के सृष्टि क्रम में देख रहे हैं कि ईश्वर रचित पशु, पक्षी ईश्वर के नियम के अनुसार चलते हुए ब्रह्मचारी ही हैं। ब्रह्मचारी होने के कारण मनुष्य की अपेक्षा अधिक उद्यमी और रोग रहित हैं। इसलिए सब मनुष्यों को चाहिये कि इस वेदवाणी को पढ़कर बाल-विवाहादि दोषों से बच कर गृहस्थी होते हुए भी अधिक विषयासक्त न होवें जिससे आयु, ज्ञान, तेज, उद्यम, धर्म और आरोग्यता आदि बढ़ जाएँ ।
विषय
पशु-पक्षियों का ब्रह्मचर्य
पदार्थ
१. (पार्थिवाः) = पृथिवी सम्बन्धी, (दिव्या:) = अन्तरिक्ष में होनेवाले, (आरण्या: ग्राम्या: च) = अरण्य में होनेवाले सिंह आदि तथा ग्राम में होनेवाले गौ आदि (ये पशवः) = जो पशु हैं, (अपक्षा:) = पक्षरहित, (पक्षिण: च) = और पंखोंवाले जो भी प्राणी है, (ते) = वे सब (ब्रह्मचारिणः जाता:) = ब्रह्मचर्य के प्रभाव से उत्पन्न हुए। वस्तुत: प्रभुप्रदत्त वासना-सहज ज्ञान के अनुसार ये सब ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले बने। ब्रह्मचर्य ही इनके स्वास्थ्य का कारण बना।
भावार्थ
सब पशु-पक्षी प्रभुप्रदत्त वासना के कारण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए स्वस्थ जीवनवाले हुए।
भाषार्थ
(पार्थिवाः) पृथिवीवासी, (आरण्याः) अरण्यवासी, (ये ग्राम्याः च) और जो ग्रामवासी (अपक्षाः पशवः) पंखों से रहित पशु हैं, तथा (ये) जो (दिव्याः पक्षिणः) आकाश में विचरने वाले पक्षी हैं, (ते) वे भी (ब्रह्मचारिणः जाताः) ब्रह्मचारी हुए हैं।
टिप्पणी
[पशु तथा पक्षी भी परिपक्व आयु के पश्चात् ही निज सन्तानों को पैदा करते हैं। अतः वे भी नियत कालों के ब्रह्मचारी हुए हैं]
विषय
ब्रह्मचारी के कर्तव्य।
भावार्थ
(पार्थिवाः) पृथिवी के और (दिव्याः) द्यौलोक के समस्त लोक (पशवः) पशु जो (आरण्याः) जंगली और (ग्राम्याश्च ये) जो गांव के हैं और (अपक्षाः) बिना पंख के प्राणी और (ये पक्षिणः च) जो पंख वाले भी हैं (ते ब्रह्मचारिणः जाताः) वे ब्रह्मचारी के ही तप से या वीर्य से उत्पन्न होते हैं।
टिप्पणी
(च०) ‘ब्रह्मचारिणा’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मचारी देवता। १ पुरोतिजागतविराड् गर्भा, २ पञ्चपदा बृहतीगर्भा विराट् शक्वरी, ६ शाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती, ७ विराड्गर्भा, ८ पुरोतिजागताविराड् जगती, ९ बार्हतगर्भा, १० भुरिक्, ११ जगती, १२ शाकरगर्भा चतुष्पदा विराड् अतिजगती, १३ जगती, १५ पुरस्ताज्ज्योतिः, १४, १६-२२ अनुष्टुप्, २३ पुरो बार्हतातिजागतगर्भा, २५ आर्ची उष्गिग्, २६ मध्ये ज्योतिरुष्णग्गर्भा। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(ये पार्थिवा: दिव्याः पशवः आरण्या:-ग्राम्याः-च) जो पृथिवी में स्थित पशु-देखने वाले ज्ञानशील मनुष्य और वन्य तथा नागरिक जन द्युलोक में मंगल आदि ग्रह में स्थित (ये पक्षिणः-अपक्षा:-च) जो पक्ष वाले कुक्कुट-मुर्गादि और शुकतोते आदि तथा पक्षहीन पशु वन्य व्याघ्रादि और नागरिक गौ आदि है (ते ब्रह्मचारिणः-जाता:) वे सब आदित्य अर्थात् सूर्य से उत्पन्न होते हैं। इसलिए उसका नाम सविता भी है तथा ब्रह्मचर्यव्रती जन सब ब्रह्मचर्य व्रत से सारे प्राणियों को अनुकूल बनाता है उनसे यथा योग्य उपयोग लेता है और पशु पक्षियों में भी ब्रह्मचर्य संयमगुण है, वे ऋतु रज-धर्म का अतिक्रमण नहीं करते ऋतुचारी होने से ब्रह्मचारी होते हैं ॥२१॥
विशेष
ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-
इंग्लिश (4)
Subject
Brahmacharya
Meaning
All animals, of the earth, forest and the village, who are without wings, or birds of the sky, all of them observe the discipline of Brahmacharya, natural development of the body system and related behaviour.
Translation
The earthly, the heavenly cattle, they of the forest, and they that are of the village, the-wingless and-they that are winged - they are borh of the Vedic student.
Translation
Animals winged and wingless, those that fly in the air and those that live on land, those that be-take themselves to the forest and those that live in a domesticated state in human habitations, all observe the law of restraint in sexual matters.
Translation
All creatures of the earth and heaven, tame domestic animals and sylvan beasts, winged and wingless creatures have sprung to life as Brahmcharis.
Footnote
Animals and birds also follow the law of self-restraint.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२१−(पार्थिवाः) पृथिवीभवाः पदार्थाः (दिव्याः) आकाशभवाः (पशवः) गवाश्वसिंहादयः (आरण्याः) वने भवाः (ग्राम्याः) ग्रामे भवाः (अपक्षाः) पक्षरहिताः प्राणिनः (पक्षिणः) पक्षवन्तः (च)। अन्यत् पूर्ववत् म० २० ॥
बंगाली (1)
পদার্থ
পার্থিবা দিব্যাঃ পশব আরণ্যা গ্রাম্যাশ্চ যে।
অপক্ষাঃ পক্ষিণশ্চ য়ে তে জাতা ব্রহ্মচারিণঃ ।।৮৯।।
(অথর্ব ১১।৫।২১)
পদার্থঃ (পার্থিবঃ) পৃথিবীতে বসবাসকারী (দিব্যাঃ) আকাশচারী পক্ষী, (পশব আরণ্যা) অরণ্যবাসী পশু (চ) এবং (গ্রাম্যাশ্চ) গৃহপালিত পশু (য়ে) যারা, (অপক্ষাঃ) ডানাবিহীন, (পক্ষিণঃ) ডানাযুক্ত (চ) উভয়বিধ প্রাণী (য়ে তে) যারা, তারা (জাতাঃ ব্রহ্মচারিণঃ) সকলেই ব্রহ্মচর্যের প্রভাবে উৎপন্ন ।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ প্রভুর সৃষ্টি ক্রমে আমরা দেখতে পাই ঈশ্বর সৃষ্ট পশু, পক্ষী ঈশ্বরের নিয়ম অনুসারে চলে। ব্রহ্মচারী হবার জন্যই মানুষ অধিক উদ্যমী এবং রোগ রহিত হয়ে থাকে। এজন্য সব মানুষের উচিত এই বেদবাণীকে পড়ে বাল্য বিবাহাদি দোষ থেকে মুক্ত হওয়া ও গৃহস্থ হয়েও অধিক বিষয়াসক্ত না হওয়া । যার ফলে আয়ু, জ্ঞান, তেজ, উদ্যম, ধর্ম এবং আরোগ্য আদি বৃদ্ধি পাবে ॥৮৯॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal