अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मचारी
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
151
इ॒यं स॒मित्पृ॑थि॒वी द्यौर्द्वि॒तीयो॒तान्तरि॑क्षं स॒मिधा॑ पृणाति। ब्र॑ह्मचा॒री स॒मिधा॒ मेख॑लया॒ श्रमे॑ण लो॒कांस्तप॑सा पिपर्ति ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम् । स॒म्ऽइत् । पृ॒थि॒वी । द्यौ: । द्वि॒तीया॑ । उ॒त । अ॒न्तरि॑क्षम् । स॒म्ऽइधा॑ । पृ॒णा॒ति॒ । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । स॒म्ऽइधा॑ । मेख॑लया । श्रमे॑ण । लो॒कान् । तप॑सा । पि॒प॒र्ति॒ ॥७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
इयं समित्पृथिवी द्यौर्द्वितीयोतान्तरिक्षं समिधा पृणाति। ब्रह्मचारी समिधा मेखलया श्रमेण लोकांस्तपसा पिपर्ति ॥
स्वर रहित पद पाठइयम् । सम्ऽइत् । पृथिवी । द्यौ: । द्वितीया । उत । अन्तरिक्षम् । सम्ऽइधा । पृणाति । ब्रह्मऽचारी । सम्ऽइधा । मेखलया । श्रमेण । लोकान् । तपसा । पिपर्ति ॥७.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (6)
विषय
ब्रह्मचर्य के महत्त्व का उपदेश।
पदार्थ
(इयम्) यह [पहिली] (समित्) समिधा (पृथिवी) पृथिवी, (द्वितीया) दूसरी [समिधा] (द्यौः) सूर्य [समान है], (उत) और (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष को [तीसरी] (समिधा) समिधा से (पृणाति) वह पूर्ण करता है। (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (समिधा) समिधा से [यज्ञानुष्ठान से], (मेखलया) मेखला से [कटिबद्ध होने के चिह्न से] (श्रमेण) परिश्रम से और (तपसा) तप से [ब्रह्मचर्यानुष्ठान से] (लोकान्) सब लोकों को (पिपर्ति) पालता है ॥४॥
भावार्थ
ब्रह्मचारी हवन में तीन समिधाएँ छोड़ कर और कटिबन्धन आदि से उद्योग का अभ्यास प्रकट करके व्रत करता है कि वह ब्रह्मचर्य के साथ पृथिवी, सूर्य और अन्तरिक्ष विद्या को जानकर संसार का उपकार करेगा ॥४॥
टिप्पणी
४−(इयम्) दृश्यमाना प्रथमा (समित्) होमीयकाष्ठम् (पृथिवीः) भूमिविद्यारूपा (द्यौः) सूर्यविद्या (द्वितीया) समित् (उत) अपि च (अन्तरिक्षम्) समिधा (तृतीयेन) होमीयकाष्ठेन (पृणाति) पूरयति (ब्रह्मचारी) (समिधा) (मेखलया) अ० ६।१३३।१। कटिबन्धनेन (श्रमेण) परिश्रमेण (लोकान्) जनान् (तपसा) तपश्चरणेन (पिपर्ति) पालयति ॥
विषय
त्रि समिधा
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज
परन्तु देखो, बटकेश्वर की मानो दाड़ी को ले करके, उसकी गो घृत में मुनिवरों! देखो, समिधा भिगोन करते हुए, मानो देखो, आहुति दी। तीन समिधाओं का विधान, परम्परागतों से बेटा! एक यागों में बेटा! मानो प्रचलित रहा हैं। और उसमें गौणिक एक महान रहस्य भरा हुआ हैं। वह रहस्य इस प्रकार का है जिसमें मानो देखो, रहस्याणि गथप्प्रव्हा इन तीन से यह जगत की उत्पति है। तीन तीन से ही मानो देखो, यह जगत चल रहा है। तीन गुणों वाला, यह प्राणी है, प्राणी नृत्त कर रहा है, तीनों पदार्थ अनादि हो करके ब्रह्माण्ड चक्र चल रहा हैं, तो त्रिपादों को ले करके त्रि विद्याएं कहलाती हैं। मैं इस सम्बन्ध में अधिक चर्चा प्रकट नहीं करना चाहता हूँ। मैंने तुम्हें तीन समिधाओं की विशेषता प्रकट की है। तीन समिधाएं यह हैं, और तीन समिधाएं इनके साथ और होती हैं। उन समिधाओं में से एक तो इस पृथ्वी मण्डल की होती है, एक समिधा अन्तरिक्ष मण्डल की होती है, और एक समिधा द्यौ मण्डल की होती है। यह तीन समिधा है। जिनको स्वान, अनुतनी और कृति कहते हैं। इनकी ब्रह्मरन्ध्र में जागरूकता होने के कारण तीनों लोकों की वार्ता जानने वाला याज्ञिक बन जाता है। उन्होंने कहा क्या यह तीन प्रकार का जो परमाणुवाद है, तीन प्रकार की जो प्रतिभा है, मानो इसीलिए यज्ञमान भी तीन ही आहुति प्रदान करता है एक मानो पुनरूक्ति है एक पुनर्वाक है एक वाचक कहलाता है। ये तीन प्रकार की मानो देखो, आहुतियां यज्ञमान अपने में प्रदान करता है जिससे मानो बेटा! देखो, स्वाहा, उच्चारण होते ही वह अग्नि की धाराओं पर विद्यमान हो करके, बेटा! द्यौ में प्रवेश कर जाता है।
मुनिवरों! यह तो यथार्थ में यज्ञ का वर्णन था आगे आलंकारिक वर्णन आता है।
मुनिवरों! ऋषि जी महती समिधाओं के समक्ष पहुंचे और समिधाओं से कहा कि हे समिधाओं! यह क्या हो रहा है? तुम अग्नि में प्रविष्ट हो रही हो, और अग्नि तुम्हें नष्ट कर रही हैं। तुम अग्नि का आहार बन रही हो, इससे तुम्हारा क्या मन्तव्य हैं? बेटा! देखो, उस समय समिधाओं ने कहा कि हे विधाता! संसार में वही मानव सुख पाता है, जो किसी का बन जाता हैं। देखो, ऋषि जब भी बनता है, जब गुरु की शरण में चला जाता हैं। गुरु उसके दुर्गणों को नष्ट कर देते हैं, अग्नि विद्या को धारण करा देते हैं। तभी वह ऋषि बनता हैं। इसी प्रकार विधाता! हम अग्नि रूप गुरु के समक्ष जाकर, अपने पार्थिव परमाणुओं को समाप्त करके, अपने सूक्ष्म रूप को धारण करके, सूर्य मण्डल तक पंहुच कर देवताओं की शरण में चली जाती हैं। देखो, महान आदित्य हमको धारण करके, आहार करके, मुनिवरों! धीमी धीमी किरणों के द्वारा, समुद्रों में पंहुचा देते हैं। समुद्रों से मेघ के रूप को धारण करके वृष्टि द्वारा पृथ्वी पर आ जाती हैं, देखो, पृथ्वी पर स्थावर सृष्टि के रूप में उत्पन्न होकर हम संसार का कल्याण करती हैं।
हमारे यहाँ परम्परा यह मानी जाती है कि जब गुरु आचार्य के समीप जाता है तो उस समय तीन समिधा ले जाती है। वह कहता है कि हे आचार्य! मैं तीन समिधा लेकर के आपके द्वार आया करता हूँ। जब मैं यज्ञमान बनकर के यज्ञशाला समीप जाता हूँ, होता बन करके उस समय भी मैं तीन समिधा लेकर के अग्नि के समीप जाता हूँ, इसी प्रकार भगवन्! मैं आपको भी अग्निस्वरूप ही धारण कर चुका हूँ। मेरे मन में सङ्कल्प हो चुका है कि आप मेरे अग्नि देवता हैं, यज्ञस्वरूप हैं प्रभु! मेरे जो तीन प्रकार के पाप मन, वचन और कर्म से मैं करता हूँ उन्हें तीन समिधाओं के द्वारा दग्ध कर दीजिए। अपनी नाना प्रकार की जो प्रवृत्तियां हैं नाना प्रकार की जो दुर्गन्धियां हैं उन सबकी हवि बना करके ज्ञान रूपी यज्ञशाला में सबको दग्ध करके जब गुरु के समीप समिधा लेकर के आते हैं।
तुमने यह जान पाया होगा, कि जानकारी जो होती है वह मानव की उत्कट इच्छा होती है, एक मानव परमात्मा की सन्ध्या उपासना कुछ नही कर पाता परन्तु उसकी इच्छा होती है, कि सन्ध्या के प्रति तू कुछ श्रवण कर। इसी प्रकार भौतिकवाद में उसे इच्छा होती है। तत्त्व वह जानता है, कि जल में कितनी तरंगें उत्पन्न होती हैं, अग्नि में कितनी तरंगें और वायु में कितनी तरंगें होती हैं, इन सब तरंगों को जानने के लिए, कितने प्रकार की तरंगे होती है जैसे हम ही है, हम किसी काल में यज्ञ के कर्म में बड़े दक्ष रहे, अब वार्ता हमसे दूर चली गई, हम यह जानते थे किस किस समिधा में कितने प्रकार की तरंगें उत्पन्न होती हैं, कितने परमाणुओं का उसमे सें जन्म होता है। अग्नि के परमाणु कितने होते हैं, जल के परमाणु कितने होते हैं और उसमें वायु के कितने परमाणु मिश्रण करते हैं। और पृथ्वी में कितने परमाणु चले जाते हैं, तो यह मानव की जानकारी होती है। जानकारी करना हमारा कर्तव्य होता है और मानव को करना चाहिए।
विषय
तीन समिधाएँ
पदार्थ
१. (इयं पृथिवी) = यह पृथिवी (समित्) = उस ब्रह्मचारी की पहली समिधा है। (द्यौः द्वितीया) = द्युलोक दूसरी समिधा बनती है (उत) = और (अन्तरिक्षम्) = अन्तरिक्ष तीसरी समिधा प्रणाति-समिधा से अपने को पूरित करता है। पृथिवी के पदार्थों का ज्ञान पहली समिधा है-इससे वह शरीररूप पृथिवीलोक को बड़ा सुन्दर बनाता है। अन्तरिक्ष के पदार्थों का ज्ञान दूसरी समिधा है-इससे वह अपने हदयान्तरिक्ष को पवित्र व शान्त बनाता है। धुलोक के पदार्थों का ज्ञान तीसरी समिधा है-इससे वह अपने मस्तिष्करूप धुलोक को बड़ा उज्वल व दीप्त बनाता है। २. यह (ब्रह्मचारी) = ज्ञान में विचरण करनेवाला विद्यार्थी (समिधा) = ज्ञानदीसि के द्वारा, (मेखलया) = कटिबद्धता कार्य को दृढ़ता से करने के द्वारा, (श्रमेण) = श्रम की वृत्ति के द्वारा तथा (तपसा) = तपस्या के द्वारा [जस्तं तपः, सत्यं तपः, भुतं तपः, दमस्तपः, शमस्तपो दानं तपो यज्ञस्तपः, 'भूर्भुवः सुवः' ब्रौतदुपास्वैतत्तपः-तै० आ० १०॥८] (लोकान् पिपर्ति) = शरीरस्थ 'पृथिवी, अन्तरिक्ष व धुलोक को-शरीर, मन व मस्तिष्क को-पूरित करता है-इनकी कमी को दूर करता है।
भावार्थ
ब्रह्मचारी आचार्यकुल में 'पृथिवी, अन्तरिक्ष व धुलोक' के पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करता है। 'ज्ञानदीति, कटिबद्धता [दृढ़ निश्चय], श्रम व तप के द्वारा वह 'शरीर, मन व मस्तिष्क' रूप तीन लोकों का पूर्ण विकास करता है।
भाषार्थ
(इयं पृथिवी) यह पृथिवी (समित्) पहली समिधा हैं, (द्यौः) द्युलोक (द्वितीया) दूसरी है, (उत) और (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष [तीसरी] है, (समिधा) इस प्रत्येक समिधा द्वारा ब्रह्मचारी (पृणाति) [निज मानसिक, और अध्यात्मिक अग्नि को] पालित करता है। (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (समिधा) प्रत्येक समिधा द्वारा, (मेखलया) मेखला अर्थात् कटिबन्ध द्वारा (श्रमेण) परिश्रम द्वारा, (तपसा) तथा तपश्चर्या द्वारा (लोकान्) पृथिवीस्थ लोकों को (पिपर्ति) परिपालित तथा सुखों से परिपूरित करता है।
टिप्पणी
[पृणाति, पिपर्ति= पॄ पालनपूरणयो। अभिप्राय यह कि ब्रह्मचारी को प्रथम पार्थिव तत्त्वों-तथा-विषयों का परिज्ञान देना चाहिये, तदनन्तर अन्तरिक्ष लोक, तथा द्युलोक का। मन्त्र में छन्दः पूर्ति के लिए द्यौः और अन्तरिक्षम् – यह क्रम रखा है। मन्त्र में यह भी अभिप्रेत है कि ब्रह्मचारी कटिबद्ध होकर, त्रिलोकी रूपी तीन समीधाओं को, मन तथा आत्मरूपी, अग्नि में धारण करता हुआ, अर्थात त्रिलोकी का ज्ञान प्राप्त करता हुआ, और परिश्रम तथा तपोमय जीवन व्यतीत करता हुआ, पृथिवीस्थ लोगों को ज्ञानप्रदान द्वारा परिपालित तथा सुखों से पूरित करता है। लोकाः= लोग। यथा "यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तद् देवेतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्त वनुवर्त्तते" (गीता ३।२१)। श्लोकस्थ लोकः = लोग]।
विषय
ब्रह्मचारी के कर्तव्य।
भावार्थ
(इयं पृथिवी) यह पृथिवी (समित्) ब्रह्मचारी की प्रथम समिधा है। (द्यौः द्वितीया) यह द्यौ दूसरी समिधा है। (उत अन्तरिक्षं) और अन्तरिक्ष तीसरी समित् है। इन तीनों को ब्रह्मचारी (समिधा) अपने अग्नि में आहुति की गयी समिधा अर्थात् आचार्य रूप अग्नि से प्रज्वलित अपने ज्ञानवान् आत्मा से (पृणाति) पालन करता और पूर्ण करता है। (ब्रह्मचारी) ब्रह्म ज्ञान में दीक्षित ब्रह्मचारी (समिधा) समित् आधान द्वारा और (मेखलया) मेखला से (श्रमेण) श्रम से और (तपसा) तप से (लोकान्) समस्त लोकों, मनुष्यों का (पिपर्त्ति) पालन करता है। समिद्-आधान में—ब्रह्मचारी नियम से आचार्य की अग्नि में तीन समिधा या पलाशकाष्ठ मन्त्र पाठपूर्वक आहुति करता है। उसका तात्पर्य यह होता है कि (यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यसे एवमहम् आयुषा मेधया वर्चसा प्रजया पशुभिः ब्रह्मवर्चसेन समिन्धे।) जिस प्रकार अनि काष्ट से प्रज्वलित होकर तेज से चमकती है उसी प्रकार मैं भी आचार्य के समीप रह कर दीर्घ आयु, ज्ञानमय बुद्धि, तेज, प्रजा, पशु और ब्रह्मचर्य से चमकूं। वह तीन समिधों को अग्नि में रखता है अर्थात् तीनों लोकों में विद्यमान अग्नियों के समान स्वयं तेजस्वी होने का दृढ़ संकल्प करता है। भूलोक में अग्नि, मध्यम लोक में विद्युत् और द्यौ लोक में सूर्य ये तीन अग्नियें हैं, उनके समान तेजस्वी होकर वह तीनों लोकों की रक्षा करने में समर्थ होता है अर्थात् जिस प्रकार तीनों लोक जगत् के प्राणियों की रक्षा करते हैं उनके समान वह भी रक्षा करने में समर्थ होता है।
टिप्पणी
(तृ०) ‘मेखलावी’ (च०) ‘विभर्त्ति’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मचारी देवता। १ पुरोतिजागतविराड् गर्भा, २ पञ्चपदा बृहतीगर्भा विराट् शक्वरी, ६ शाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती, ७ विराड्गर्भा, ८ पुरोतिजागताविराड् जगती, ९ बार्हतगर्भा, १० भुरिक्, ११ जगती, १२ शाकरगर्भा चतुष्पदा विराड् अतिजगती, १३ जगती, १५ पुरस्ताज्ज्योतिः, १४, १६-२२ अनुष्टुप्, २३ पुरो बार्हतातिजागतगर्भा, २५ आर्ची उष्गिग्, २६ मध्ये ज्योतिरुष्णग्गर्भा। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
आदित्यपरक व्याख्या- (इयं पृथिवी समित्) यह पृथिवी आदित्य की एक समिधा है जिसको आदित्य अपने प्रकाश से दीप्त करता है (द्वितीया द्यौ:) दूसरी समिधा द्युलोक है जिसको आदित्य स्वप्रकाश से प्रकाशित करता है (उत-अन्तरिक्षम्) अपि च अन्तरिक्ष तीसरी समिधा है (समिधा पृणाति) इस प्रकार तीनों समिधाओं से अपने को पूर्ण प्रकाशमान प्रदर्शित करता है (ब्रह्मचारी समिधा मेखलया श्रमेण तपसा) उस त्रिविध समिधा से स्वाश्रयभूत मेखला-मर्यादा से आकर्षण बल से और प्रखर ताप से (लोकान् पिपत) चन्द्र आदि लोकों और प्राणियों का पालन करता है। विद्यार्थी के विषय में- (इयं समित् पृथिवी) ब्रह्मचारी की प्रथम समिधा पृथिवी अर्थात् माता है जिससे ब्रह्मचर्यव्रती दीप्त होता है (द्वितीया द्यौः) दूसरी समिधा द्यौ अर्थात् पिता है इससे ब्रह्मचर्यव्रती दीप्त होता है (उत-अन्तरिक्षम्) और अन्तरिक्ष अर्थात् आचार्य तीसरी समिधा है (समिधा पिपर्ति) एवं माता, पिता और आचार्य तीन समिधाओं से स्वव्रत ज्ञान और सदाचरण द्वारा अपने को पूरित करता है (ब्रह्मचारी समिधा मेखलया श्रमेण तपसा) ब्रह्मचर्यव्रती जन उस त्रिविध समिधा से कौपीन से शारीरिक श्रम से और ज्ञान-प्रकाश से (लोकान् पिपर्ति) जनों को पूरित करता है - प्रभावित - पालित करता है ॥४॥
विशेष
ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-
इंग्लिश (4)
Subject
Brahmacharya
Meaning
The earth and earthly knowledge is the Brahmachari’s first samit, fuel stick offered in the study yajna. The heaven and divine knowledge is the second samit, and thus with the samits he studies in full the third region of the middle space. Thus the Brahmachari, with the samit inputs into the yajna, with his determination symbolised by his girdle, his hard work and austere discipline covers all the three fields of his study with a sense of fulfilment all round.
Translation
This piece of fuel (is) earth, sky the second; student fills the worlds with fuel, girdle, toil, fervor.
Translation
This first stick stands for earth, the second for heaven and he fills the firmament with third. The Vedic student with this fuel for the Havana, with his girdle, his hard work and his austerity renders all the worlds perfect.[N.B.:—These sticks give the idea that through them the Brahmachari attain the knowledge of these three regions which include all the spheres of knowledge.]
Translation
This Earth is the first sacrificial stick, Sun the second, and mid-region the third stick of the Brahmchari, who preserves all these three with his learned soul, kindled by the fervour of the preceptor. A Brahmchari initiated in Vedic knowledge, nourishes all men, with the performance of Yajna, with sacrificial girdle, with his toil and penance.
Footnote
Just as Earth, Sun and Space rear and nourish human beings, so does the Brahmchari nourish them. Fire in the Earth, Lightning in the Space and Sun in the firmament are three fuels compared to the three sacrificial sticks with which the Brahmchari burns fire while he performs homa.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(इयम्) दृश्यमाना प्रथमा (समित्) होमीयकाष्ठम् (पृथिवीः) भूमिविद्यारूपा (द्यौः) सूर्यविद्या (द्वितीया) समित् (उत) अपि च (अन्तरिक्षम्) समिधा (तृतीयेन) होमीयकाष्ठेन (पृणाति) पूरयति (ब्रह्मचारी) (समिधा) (मेखलया) अ० ६।१३३।१। कटिबन्धनेन (श्रमेण) परिश्रमेण (लोकान्) जनान् (तपसा) तपश्चरणेन (पिपर्ति) पालयति ॥
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