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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 5
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
    372

    पूर्वो॑ जा॒तो ब्रह्म॑णो ब्रह्मचा॒री घ॒र्मं वसा॑न॒स्तप॒सोद॑तिष्ठत्। तस्मा॑ज्जा॒तं ब्राह्म॑णं॒ ब्रह्म॑ ज्ये॒ष्ठं दे॒वाश्च॒ सर्वे॑ अ॒मृते॑न सा॒कम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पूर्व॑: । जा॒त: । ब्रह्म॑ण: । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । घ॒र्मम् । वसा॑न: । तप॑सा । उत् । अ॒ति॒ष्ठ॒त् । तस्मा॑त् । जा॒तम् । ब्राह्म॑णम् । ब्रह्म॑ । ज्ये॒ष्ठम् । दे॒वा: । च॒ । सर्वे॑ । अ॒मृते॑न । सा॒कम् ॥७.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पूर्वो जातो ब्रह्मणो ब्रह्मचारी घर्मं वसानस्तपसोदतिष्ठत्। तस्माज्जातं ब्राह्मणं ब्रह्म ज्येष्ठं देवाश्च सर्वे अमृतेन साकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पूर्व: । जात: । ब्रह्मण: । ब्रह्मऽचारी । घर्मम् । वसान: । तपसा । उत् । अतिष्ठत् । तस्मात् । जातम् । ब्राह्मणम् । ब्रह्म । ज्येष्ठम् । देवा: । च । सर्वे । अमृतेन । साकम् ॥७.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    ब्रह्मचर्य के महत्त्व का उपदेश।

    पदार्थ

    (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी [मन्त्र १] (ब्रह्मणः) वेदाभ्यास [के कारण] से (पूर्वः) प्रथम [गणना में पहिला] (जातः) प्रसिद्ध होकर (घर्मम्) प्रताप (वसानः) धारण करता हुआ (तपसा) [अपने ब्रह्मचर्यरूप] तपस्या से (उत् अतिष्ठत्) ऊँचा ठहरा है। (तस्मात्) उस [ब्रह्मचारी] से (ज्येष्ठम्) सर्वोत्कृष्ट (ब्राह्मणम्) ब्रह्मज्ञान और (ब्रह्म) वृद्धिकारक धन (जातम्) प्रकट [होता है], (च) और (सर्वे देवाः) सब विद्वान् लोग (अमृतेन साकम्) अमरपन [मोक्ष सुख] के साथ [होते हैं] ॥५॥

    भावार्थ

    ब्रह्मचारी वेदों के अभ्यास और जितेन्द्रियता आदि तपोबल के कारण बड़ा सत्कार पाकर सबको धर्म और सम्पत्ति का मार्ग दिखाकर विद्वानों को परमानन्द पहुँचाता है ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(पूर्वः) प्रथमः। प्रधानः (जातः) प्रसिद्धः सन् (ब्रह्मणः) वेदाभ्यासात् (ब्रह्मचारी) म० १। वेदपाठी वीर्यनिग्राहकश्च (घर्मम्) घृ दीप्तौ-मक्। प्रतापम् (वसानः) आच्छादयन्। धारयन् (तपसा) ब्रह्मचर्यरूपेण तपश्चरणेन (उत्) ऊर्ध्वः (अतिष्ठत्) स्थितवान् (तस्मात्) ब्रह्मचारिणः सकाशात् (ब्राह्मणम्) ब्रह्मज्ञानम् (ब्रह्म) ब्रह्म धननाम-निघ० २।१०। वृद्धिकरं धनम् (ज्येष्ठम्) प्रशस्यतमम् (देवाः) विद्वांसः (च) (सर्वे) समस्ताः (अमृतेन) मरणस्य दुःखस्य राहित्येन। मोक्षसुखेन (साकम्) सह ॥

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    विषय

    सर्वप्रथम आचार्य 'ब्रह्म'

    पदार्थ

    १. जो सर्वजगत् का कारण, सत्यज्ञानादि लक्षणयुक्त 'ब्रह्म' है, उस (ब्रह्मण:) = ब्रह्म से ही (ब्रह्मचारी) = ज्ञान प्राप्त करनेवाला (पूर्व: जात:) = [प्रथमम् उत्पन्न:-सा०] सबसे प्रथम हुआ। सबसे पूर्व ब्रह्म ने ही 'अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा:' इन [पूर्वे चत्वारः] सर्वाधिक मेधावी चार ऋषियों को वेदज्ञान दिया। ये ब्रह्म के ही ब्रह्मचारी हुए। यह ब्रह्मचारी (घर्मं वसान:) = संयमजनित शक्ति से दीस रूप को धारण करता हुआ ऊपर उठा। २. (तस्मात्) = उस ब्रह्मचारी से (ब्राह्मणम्) = ज्ञानियों का 'स्व'भूत [सम्पत्तिरूप] (ज्येष्ठम्) = प्रशस्यतम व वृद्धतम (ब्रह्म) = वेदात्मक ज्ञान (जातम्) = प्रादुर्भूत हुआ, अर्थात् इस ब्रह्मचारी ने अपनी श्रेष्ठतम ज्ञानरूप सम्पत्ति को प्राप्त किया। (च) = और इस ब्रह्मचारी में (सर्वे देवा:) = सब दिव्य गुण (अमृतेन साकम्) = अमृतत्व [नीरोगता] के साथ प्रादुर्भूत हुए। इसका मस्तिष्क ज्ञान से, हृदय दिव्य गुणों से तथा शरीर नीरोगता से परिपूर्ण होता है।

    भावार्थ

    सबसे प्रथम ब्रह्म के समीप 'अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा' ने ब्रह्मचर्यपूर्वक वेदज्ञान को प्राप्त किया। इनका मस्तिष्क ब्रह्म [ज्ञान] से, हृदय देवों [दिव्य गुणों] से तथा शरीर नीरोगता से [अमृतत्व से] परिपूर्ण हुआ।

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    भाषार्थ

    (पूर्वः) पूर्वाश्रमस्थ (ब्रह्मचारी) वेद विद्या तथा ब्रह्म में विचरने वाला ब्रह्मचारी (ब्रह्मणः) वेद माता के गर्भ से (जातः) द्विजन्मा रूप में पैदा होता है, जन्म लेता है, (घर्मम्) शरीर पर उष्णता का (वसानः) वस्त्र धारण करता हुआ (तपसा) तपोमय जीवन द्वारा (उदतिष्ठत्) उत्थान अर्थात् उन्नति करता है। (तस्मात्) उस ब्रह्मचारी से (ज्येष्ठ ब्राह्मणम्) सबसे ज्येष्ठ परमेश्वर और (ब्रह्म) वेदज्ञान (जातम्) प्रकट होता है, तथा (सर्वे देवाः) ब्रह्मचारी की सब दिव्यशक्तियां (अमृतेन साकम्) अमृत अर्थात् अमर परमेश्वर के साथ मिल जाती हैं, परमेश्वरी कार्यों के अनुरूप हो जाती हैं (मन्त्र २३)

    टिप्पणी

    [घर्म वसानः= ब्रह्मचारी का शरीर, बिना वस्त्र धारण किये, गर्म रहता है। ब्राह्मणम्= ब्रह्मैव ब्राह्मणम्, स्वार्थेऽण्। “ज्येष्ठं ये ब्राह्मणं विदुः" (अथर्व० १०।७।१७) में ब्राह्मणम् से अभिप्राय "ब्रह्म" का है, और इस का विशेषण है "ज्येष्ठम्"। तदनुसार व्याख्येय मन्त्र में "ज्येष्ठम्" विशेषण "ब्राह्मणम्" का प्रतीत होता है। सच्चे ब्रह्मचारी की शक्तियां, दिव्य बन कर, अमर ब्रह्म सदृश पवित्र तथा स्वार्थ-हीन और परोपकार करने वाली हो जाती हैं]।

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    विषय

    ब्रह्मचारी के कर्तव्य।

    भावार्थ

    (ब्रह्मणः) ब्रह्म, जगत् के आदिकारण परमेश्वर से (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी ब्रह्म की शक्ति से विचरण करने वाला सूर्य (पूर्वः जातः) सब से प्रथम उत्पन्न हुआ। वह (घर्मं वसानः) तेजोमय रूप धारण करता हुआ (तपसा उद् अतिष्ठत्) तप से ऊपर उठा और उस ब्रह्मचारी से (ब्राह्मणम्) ब्रह्म का अपना स्वरूप (ज्येष्ठम्) सब से उत्कृष्ट (ब्रह्म) ब्रह्मज्ञान और (अमृतेन साकम्) उस अमृत, दीर्घ जीवन के साथ साथ (सर्वे च देवाः) समस्त दिव्य बलों को धारण करने वाले देव प्राणगण और विद्वान् (जातम्) उत्पन्न हुए।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘तपसोऽधितिष्ठत्’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मचारी देवता। १ पुरोतिजागतविराड् गर्भा, २ पञ्चपदा बृहतीगर्भा विराट् शक्वरी, ६ शाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती, ७ विराड्गर्भा, ८ पुरोतिजागताविराड् जगती, ९ बार्हतगर्भा, १० भुरिक्, ११ जगती, १२ शाकरगर्भा चतुष्पदा विराड् अतिजगती, १३ जगती, १५ पुरस्ताज्ज्योतिः, १४, १६-२२ अनुष्टुप्, २३ पुरो बार्हतातिजागतगर्भा, २५ आर्ची उष्गिग्, २६ मध्ये ज्योतिरुष्णग्गर्भा। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    आदित्यपरक व्याख्या- (ब्रह्मणः) परमात्मा से (ब्रह्मचारी पूर्वः जातः) ब्रह्म के आदेश में ब्रह्माण्ड या वायुमय अन्तरिक्ष में विचरणशील आदित्य अन्य आकाशीय पिण्डों से पूर्व उत्पन्न हुआ या प्रसिद्ध हुआ (तपसा धर्मं वसानः-उदतिष्ठत्) स्वकीय ज्वलन तथा प्रकाश से "तप:-ज्वलतो नाम" (निघं० १।१७) दिन को "घर्मः-अर्हनाम" (निघं० १।६) संसार में अन्तरिक्ष में या पिण्डों में फैलाने हेतु उदय होता है (तस्मात् ब्राह्मणं ज्येष्ठं ब्रह्मजातम्) तदनन्तर ब्रह्म-परमात्मा से उत्पन्न ब्राह्मण अर्थात् वेदज्ञानज्येष्ठ पूर्व प्रसिद्ध हुआ मानव-ज्ञान की अपेक्षा से (श्रमृतेन साकं सर्वे देवा:-च) अमृत अर्थात् मोक्ष अमरधाम के साथ सारे जीवन्मुक्त वेदप्रकाशक परमऋषि भी प्रसिद्धि को प्राप्त हुए तथा जड देव भी श्रग्नि, वायु आदि तब तक अमर धर्म से वर्तमान हुए ।विद्यार्थी के विषय में- (ब्रह्मणः) परमात्मा की ओर से (ब्रह्मचारी पूर्व:-जातः) ब्रह्म-परमात्मा में चरणशील विद्यार्थी: सबसे पूर्व प्रसिद्ध हुआ (धर्म वसानः तरसा-उदतिष्ठत्) धर्म अर्थात् यज्ञ-अध्यात्मयज्ञ और ज्ञानयज्ञ को "घर्मो यज्ञनाम" (निघं० ३।२७) स्वजीवन में संसार में प्रसार करने के हेतु ब्राह्म तेज से उद्यत होता है (तस्मात् ब्राह्मणं ज्येष्ठं ब्रह्म जातम्) पुनः ब्रह्म-परमात्मा से उपदिष्ट वेद ज्येष्ठज्ञान वैदिक परम ऋषियों के अन्तःकरण में प्रसिद्ध हुआ है (सर्वे देवा:- अमृतेन साकम्) और सारे प्रारम्भिक विद्वान् स्वाभाविक श्रार्ष धर्म के साथ उत्पन्न हुए!। ॥५॥

    विशेष

    ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahmacharya

    Meaning

    The Brahmachari, earlier born of the parents, now clad in the flames of fire and brilliance of knowledge, emerges reborn from the divine studies of earth, heaven and the middle regions. From him now issues forth divine knowledge of Veda and Supreme Brahma, all his divine potentials with immortality of his spirit shining together, all noble people one with his knowledge and divine potentials.

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    Translation

    Prior born of the brahman, the Vedic student, clothing himself with heat (gharma), stood up with fervor; from him (was) born the brahmana, the chief brahman, and all the gods together with immortality (amrta).

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    Translation

    The Vedic student by his studies, becomes renowned in good time and putting off lustre attain high esteem among men, From him springs the most excellent celestial lore of interpreting the Veda, the Eternal revealed law, and ever increasing wealth. All the wise also attain eternal bliss through his help.

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    Translation

    A Brahmchari, through Vedic study, attains to foremost renown, and acquiring dignity, rises high through his vow of celibacy. Through him is displayed the most excellent knowledge of God, through his sermons do all the learned persons attain to salvation.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(पूर्वः) प्रथमः। प्रधानः (जातः) प्रसिद्धः सन् (ब्रह्मणः) वेदाभ्यासात् (ब्रह्मचारी) म० १। वेदपाठी वीर्यनिग्राहकश्च (घर्मम्) घृ दीप्तौ-मक्। प्रतापम् (वसानः) आच्छादयन्। धारयन् (तपसा) ब्रह्मचर्यरूपेण तपश्चरणेन (उत्) ऊर्ध्वः (अतिष्ठत्) स्थितवान् (तस्मात्) ब्रह्मचारिणः सकाशात् (ब्राह्मणम्) ब्रह्मज्ञानम् (ब्रह्म) ब्रह्म धननाम-निघ० २।१०। वृद्धिकरं धनम् (ज्येष्ठम्) प्रशस्यतमम् (देवाः) विद्वांसः (च) (सर्वे) समस्ताः (अमृतेन) मरणस्य दुःखस्य राहित्येन। मोक्षसुखेन (साकम्) सह ॥

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