अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 19
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मचारी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
268
ब्र॑ह्म॒चर्ये॑ण॒ तप॑सा दे॒वा मृ॒त्युमपा॑घ्नत। इन्द्रो॑ ह ब्रह्म॒चर्ये॑ण दे॒वेभ्यः॒ स्वराभ॑रत् ॥
स्वर सहित पद पाठब्र॒ह्म॒ऽचर्ये॑ण । तप॑सा । दे॒वा: । मृ॒त्युम् । अप॑ । अ॒घ्न॒त॒ । इन्द्र॑: । ह॒ । ब्र॒ह्म॒ऽचर्ये॑ण । दे॒वेभ्य॑: । स्व᳡: । आ । अ॒भ॒र॒त् ॥७.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत। इन्द्रो ह ब्रह्मचर्येण देवेभ्यः स्वराभरत् ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्मऽचर्येण । तपसा । देवा: । मृत्युम् । अप । अघ्नत । इन्द्र: । ह । ब्रह्मऽचर्येण । देवेभ्य: । स्व: । आ । अभरत् ॥७.१९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (8)
विषय
ब्रह्मचर्य के महत्त्व का उपदेश।
पदार्थ
(ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य [वेदाध्ययन और इन्द्रियदमन], (तपसा) तप से (देवाः) विद्वानों ने (मृत्युम्) मृत्यु [मृत्यु के कारण निरुत्साह, दरिद्रता आदि] को (अप) हटाकर (अघ्नत) नष्ट किया है। (ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य [नियमपालन] से (ह) ही (इन्द्रः) सूर्य ने (देवेभ्यः) उत्तम पदार्थों के लिये (स्वः) सुख अर्थात् प्रकाश को (आ अभरत्) धारण किया है ॥१९॥
भावार्थ
विद्वान् लोग वेदों को पढ़ने और इन्द्रियों को वश में करने से आलस्य, निर्धनता आदि दूर करके मोक्षसुख प्राप्त करते हैं, और सूर्य, ईश्वरनियम पूरा करके, अपने प्रकाश से संसार में उत्तम-उत्तम पदार्थ प्रकट करता है ॥१९॥
टिप्पणी
१९−(ब्रह्मचर्येण) म० १७ (तपसा) तपश्चरणेन (देवाः) विद्वांसः (मृत्युम्) मरणकारणं निरुत्साहनिर्धनत्वादिकम् (अप) निवार्य (अघ्नत) नाशितवन्तः (इन्द्रः) सूर्यः (ह) एव (ब्रह्मचर्येण) ईश्वरनियमपालनेन (देवेभ्यः) उत्तमपदार्थानां प्राप्तये (स्वः) सुखं प्रकाशम् (आ) समन्तात् (अभरत्) धारितवान् ॥
विषय
ब्रह्मचारी कौन
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज
माता मल्दाल्सा के वाक्यों को पान करने वाला ब्रह्मचारी बोला कि हे मातेश्वरी! तुम मुझे ब्रह्मचारी क्यों कहती हो? मैं नहीं जान पाता हूँ कि तुम ब्रह्मचारी मुझे उच्चारण किए जा रही हो? उन्होंने कहा हे ब्रह्मचरिष्यामि! तुझे ब्रह्मचारी इसलिए कह रही हूँ कि इसमें दो शब्द माने गएं हैं। ब्रह्म है, और चरी है। यह जो चरी है, इसका नाम प्रकृति है और ब्रह्म परमपिता परमात्मा को कहा जाता है। मानो जो दोनो का मन्थन करने वाला है वह मन्थन कर रहा है। ब्रह्मचरिष्यामि, ब्रह्मचारी अप्रतम् जो प्रत्येक मानो आभा को अपने में दृष्टिपात करने वाला है और वह ब्रह्म अस्सुतम देखो, ब्रह्म और चरी दोनों का ही मन्थन करता है। मानो देखो, दोनों के गर्भ में एक मृत्यु देखो, नृत्त कर रही है। मृत्यु को जो दूरी करना चाहता है, वो ब्रह्मचारी कहलाता है। इसीलिए तू ब्रह्मचारी है। क्योंकि तू अपने में महान कहलाएगा। मेरे पुत्रो! जब माता मल्दाल्सा ने यह कहा तो ब्रह्मचारी ने कहा हे माता! यह भी मैंने स्वीकार कर लिया। यह आपने जो मुझे उत्तर दिया, परन्तु ये जानना चाहता हूँ ब्रह्मचारी कौन है? पुनः यह प्रश्न करने लगा ब्रह्मचारी, कि ब्रह्मचारी कौन है? उन्होंने कहा हे बाल्य! जो साधक होता है और साधना में प्रवेश करता है, मानो देखो, जो प्रत्येक श्वांस मानं ब्रहे कृतं लोकाः प्रत्येक श्वांस को मानो देखो, तरंग को ब्रह्मसूत्र में जो पिरोने वाला है, वो ब्रह्मचारी कहलाता है। मेरे प्यारे! देखो, उन्होंने कहा हे माता! यह भी मैंने जान लिया। परन्तु मेरा यह प्रश्न है कि ब्रह्मचारी कौन है? उन्होंने कहा हे बालक! ब्रह्मचारी वो है जो मोक्ष की पगडण्डी को ग्रहण करना चाहता है। जो प्रकाश की पगडण्डी में प्रवेश कर जाता है और अन्धकार की पगडण्डी से दूरी हो जाता है। क्योंकि दो प्रकार के मार्ग हमारे यहाँ माने गएं हैं। एक मानो इस संसार का मार्ग है और एक चेतना का, ब्रह्म का, प्रकाश का मार्ग है। जिसे ज्ञानवान ग्रहण करते हैं। हे ब्रह्मचारी! जो ज्ञानवान बनकर के अन्धकार को दूरी करने वाला है वही ब्रह्मचारी कहलाता है।
मेरे प्यारे! देखो, ब्रह्मचारी ने स्वीकार कर लिया उन्होंने कहा माता! यह भी मैंने स्वीकार कर लिया परन्तु मैं यह जानना चाहता हूँ, ब्रह्मचारी कौन है? उन्होंने कहा हे पुत्र! ब्रह्मचारी वह कहलाता है, जो इस संसार को विजय कर लेता है और संसार को वो विजय करता है, जो मन को अपने में धारण करता हुआ प्राण में प्रवेश कर देता है और प्राण प्रतिष्ठा विचारों में प्रवेश हो जाती हैं देखो, मन, प्राण और विचार जब ये तीनों एक सूत्र के मनके बन जाते हैं, तो वह ब्रह्मचारी मृत्यु को विजय कर लेता है, और वही ब्रह्मचारी कहलाता है। मेरे प्यारे! देखो, माता मल्दाल्सा का बाल्य छह वर्ष का ब्रह्मचारी यह प्रश्न कर रहा है।
पुनः उसने ये प्रश्न किया कि हे माता! ब्रह्मचारी कौन कहलाता है? ब्रह्मचारी तुम किसे उच्चारण करते हो? उन्होंने कहा ब्रह्मचारी वह कहलाता है, जो मानो देखो, ब्रह्मणं ब्रभा कृतं जो वसुन्धरा को जानता है। मानो देखो, वसुन्धरा क्या है? वसुन्धरा कहते हैं पृथ्वी को। वसुन्धरा कहते हैं, जो पालन करने वाली है। मानो देखो, वसुन्धरा मेरे प्यारे! देखो, जो पृथ्वी से लेकर के और मुनिवरों! देखो, माता और वह जो परमपिता परमात्मा जो वसुन्धरा है, इन तीनों को जानने वाले को बेटा! ब्रह्मचारी कहते हैं। मेरे प्यारे! देखो, माता के उपदेशों को, देखो, कृतिका को पान करके वो मौन हो गया। उसने कहा माता! ये मैंने जान लिया परन्तु मेरा एक प्रश्न और रह गया कि ब्रह्म किसे कहते है?
पदार्थ
शब्दार्थ = ( ब्रह्मचर्येण ) = वेदाध्ययन और इन्द्रिय दमन रूपी ( तपसा ) = तप से ( देवा: ) = विद्वान् पुरुष ( मृत्युम् ) = मृत्यु को अर्थात् मृत्यु के कारण निरुत्साह दरिद्रता, आदि मृत्यु को ( अप ) = हटाकर, दूर कर ( अघ्नत ) = नष्ट करते हैं । ( इन्द्रः ) = मनुष्य जो इन्द्रियों को वश में करता है ( ब्रह्मचर्येण ) = ब्रह्मचर्य के नियम पालन से ( ह ) = ही ( देवेभ्यः ) = दिव्य शक्तिवाली इन्द्रियों के लिए ( स्वः आभरत् ) = तेज व सुख धारण करता है ।
भावार्थ
भावार्थ = ब्रह्मचर्यरूपी तप से विद्वान् पुरुष मृत्यु को दूर भगा देते हैं और इस ब्रह्मचर्यरूपी तप से ही अपने नेत्र श्रोत्रादि इन्द्रियों में तेज और बल भर देते हैं।
विषय
अमृतता व दीप्तियाँ
पदार्थ
१. (ब्रह्मचर्येण तपसा) = ब्रह्मचर्यरूप तप के द्वारा (देवा:) = सब देव (मृत्युम् अप अघ्नत) = मृत्यु को अपने से दूर भगाते हैं [हन् गती]-अमृतत्व व नीरोगता को प्रास करते हैं। २. (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (ह) = निश्चय से (देवेभ्यः) = इन्द्रियों के लिए (ब्रह्मचर्येण) = ब्रह्मचर्य से ही (स्वः आभरत्) = दीप्ति व प्रकाश [सुख] को पास कराता है। ब्रह्मचर्य से ही इन्द्रियों की शक्ति ठीक बनी रहती है।
भावार्थ
ब्रह्मचर्य से नौरोगता व इन्द्रियों की शक्ति की दीति' प्राप्त होती है।
भाषार्थ
(ब्रह्मचर्येण तपसा) ब्रह्मचर्य और तपश्चर्या के द्वारा (देवः) दिव्यकोटि के विद्वान् (मृत्युम्) मृत्यु को (अपाध्नत) समाप्त करते हैं, उस पर विजय पाते हैं, जन्ममरण से चिरकाल तक मुक्ति पाते हैं। (इन्द्रः) इन्द्र पदवी वाला व्यक्ति भी (ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य के कारण (देवेभ्यः) इन कथित देवों के लिये (स्वः आभरत्) मुक्ति के सुख का मार्ग दर्शाता है।
टिप्पणी
[इन्द्रः = देखो मन्त्र १६ में कथित इन्द्र।]
विषय
ब्रह्मचर्य द्वारा मृत्यु पर विजय
शब्दार्थ
(ब्रह्मचर्येण तपसा) ब्रह्मचर्य के तप से अथवा ब्रह्मचर्य और तप के द्वारा (देवा:) विद्वान् लोग (मृत्युम्) मौत को (अप, अघ्नत) मार भगाते हैं (इन्द्र:) जीवात्मा (ह) भी (ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य के द्वारा (देवेभ्य:) इन्द्रियों से (स्व:) सुख (आ भरत्) प्राप्त करता है ।
भावार्थ
संसार में मृत्यु बहुत भयंकर है । मृत्यु का नाम सुनकर बड़े-बड़े विद्वान्, सुधारक और ज्ञानी भी कॉप जाते हैं परन्तु ब्रह्मचारी मृत्यु को भी दो ठोकर लगाता है । वह मृत्यु को मारकर मृत्युञ्जय बन जाता है । भीष्म पितामह और आदित्य ब्रह्मचारी महर्षि दयानन्द मृत्यु को ठोकर लगानेवाले नर-केसरियों में हैं । जिनकी इन्द्रियाँ विषयों की ओर दौड़ती हैं, जिनकी आँख रूप की ओर, कान शब्द की ओर भागते हैं ऐसे भाग्यहीन मनुष्य को सुख कहाँ ? इन्द्रियाँ आत्मा को भोग के साधन उपलब्ध करती हैं परन्तु भोग तो रोग का कारण है । भोगों में सुख कहाँ ? वहाँ तो सुखाभास । सच्चा सुख, आनन्द और शान्ति संयम में है । ब्रह्मचारी अपनी इन्द्रियों को संयम में रखता है, उन्हें विषयों में भटकने नहीं देता । इन्द्रियों के संयम से उसे सुख की प्राप्ति होती है । सभी इन्द्रियों को अपने वश में रखने का ही दूसरा नाम ब्रह्मचर्य है । जो व्यक्ति सुख और शान्ति चाहते हैं, जो व्यक्ति मृत्यु को परे भगाकर मृत्युञ्जय बनना चाहते हैं उन्हें ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करना चाहिए ।
विषय
ब्रह्मचारी के कर्तव्य।
भावार्थ
(ब्रह्मचर्येण तपसा) ब्रह्मचर्य के तपोबल से (देवाः मृत्युम् अप अघ्नत) देव, विद्वान् पुरुष मृत्यु को भी विनाश कर देते हैं, मृत्युंजय हो जाते हैं। (इन्द्रः ह) निश्चय से इन्द्र, ऐश्वर्यवान् राजा (ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य के बल पर (देवेभ्यः) विद्वान् प्रजा-वासियों को अपने राष्ट्र में (स्वः आभरत्) स्वर्ग के समान सुख प्राप्त कराता है। अथवा—(इन्द्रो ह देवेभ्यः स्वः आभरत्) इन्द्र आत्मा अपने इन्द्रिय गण प्राणों को भी मोक्षमय सुख प्राप्त कराता है। अथवा—इन्द्र, परमेश्वर देव, विद्वानों के अपने ब्रह्मचर्य के बल से (स्वः आभरत्) मोक्ष प्राप्त कराता है। अथवा—इन्दः सूर्य ब्रह्मचर्य के बल से दिव्य पदार्थों को प्रकाश देता है।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘मृत्युमाजयन्’ (च०) ‘अमृतं स्वराभरन्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मचारी देवता। १ पुरोतिजागतविराड् गर्भा, २ पञ्चपदा बृहतीगर्भा विराट् शक्वरी, ६ शाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती, ७ विराड्गर्भा, ८ पुरोतिजागताविराड् जगती, ९ बार्हतगर्भा, १० भुरिक्, ११ जगती, १२ शाकरगर्भा चतुष्पदा विराड् अतिजगती, १३ जगती, १५ पुरस्ताज्ज्योतिः, १४, १६-२२ अनुष्टुप्, २३ पुरो बार्हतातिजागतगर्भा, २५ आर्ची उष्गिग्, २६ मध्ये ज्योतिरुष्णग्गर्भा। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(ब्रह्मचर्येण तपसा) ब्रह्मचर्यरूप तप से तैजस बल से (देवा:) मुमुक्षु विद्वान् (मृत्युम्-पाघ्नत) मृत्यु को पत करते हैं-दूर भगाते हैं और (ब्रह्मचर्येण देवेभ्यः) ब्रह्मचर्य पालन से अर्थात् ब्रह्मचर्य धारण को निमित्त बनाकर - देवों ने ब्रह्मचर्य को धारण किया है, अतः उनके लिए (इन्द्रः स्व:-आभरत्) ऐश्वर्यवान् परमात्मा परमसुख को मोक्ष को धारण करता है तथा प्रदान करता है ॥१६॥
विशेष
ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-
इंग्लिश (4)
Subject
Brahmacharya
Meaning
Only by Brahmacharya and austere self discipline do the Devas, noble people, overcome untimely death. Indra, mighty ruler and refulgent teacher, brings joy and enlightenment for noble seekers only by the austere discipline of Brahmacharya.
Translation
By Vedic-studentship, by fervor, the gods smote away death;. Indra by Vedic-studentship brought heaven (svar) for the gods.
Translation
Through the practice and discipline continence the wise men overcome the causes of early death, the soul, who is the master of limbs and organs, through restraints on hunting after senses brings light and happiness for the limbs of the body.
Translation
By self-restraint and fervor, the learned have conquered the fear of death. Through self-restraint the king bestows felicity on his subjects.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१९−(ब्रह्मचर्येण) म० १७ (तपसा) तपश्चरणेन (देवाः) विद्वांसः (मृत्युम्) मरणकारणं निरुत्साहनिर्धनत्वादिकम् (अप) निवार्य (अघ्नत) नाशितवन्तः (इन्द्रः) सूर्यः (ह) एव (ब्रह्मचर्येण) ईश्वरनियमपालनेन (देवेभ्यः) उत्तमपदार्थानां प्राप्तये (स्वः) सुखं प्रकाशम् (आ) समन्तात् (अभरत्) धारितवान् ॥
बंगाली (1)
পদার্থ
ব্রহ্মচর্য়েণ তপসা দেবা মৃত্যুমপাঘ্নত।
ইন্দ্রো হ ব্রহ্মচর্য়েণ দেবেভ্যঃ স্বরাভরৎ ।।৮৮।।
(অথর্ব ১১।৫।১৯)
পদার্থঃ (ব্রহ্মচর্য়েণ) বেদ অধ্যয়ন ও ইন্দ্রিয় দমন রূপী (তপসা) তপস্যা দ্বারা (দেবাঃ) বিদ্বান ব্যক্তি (মৃত্যুম্) মৃত্যুকে অর্থাৎ মৃত্যুর কারণ নিরুৎসাহ, দরিদ্রতা আদিকে (অপ) দূর করে (অঘ্নত) তথা নষ্ট করেন। (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্রিয়াধীন মানুষ (ব্রহ্মচর্য়েণ) ব্রহ্মচর্যের নিয়ম পালন করে (হ) ই (দেবেভ্যঃ) দিব্য শক্তিধারী ইন্দ্রিয়সমূহের জন্য (স্বঃ আভরৎ) তেজ ও সুখ ধারণ করে।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ ব্রহ্মচর্যরূপী তপ অবলম্বন করে বিদ্বান ব্যক্তি মৃত্যুকে দূর করে দেন এবং এই ব্রহ্মচর্যরূপী তপ দ্বারাই নিজের নেত্র শ্রোত্রাদি (চোখ ও কান) প্রভৃতি ইন্দ্রিয় তেজ ও বলে পূর্ণ করেন ।।৮৮।।
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