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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 133

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 133/ मन्त्र 2
    सूक्त - अगस्त्य देवता - मेखला छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - मेखलाबन्धन सूक्त

    आहु॑तास्य॒भिहु॑त॒ ऋषी॑णाम॒स्यायु॑धम्। पूर्वा॑ व्र॒तस्य॑ प्राश्न॒ती वी॑र॒घ्नी भ॑व मेखले ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आऽहु॑ता । अ॒सि॒ । अ॒भिऽहु॑ता । ऋषी॑णाम् । अ॒सि॒ । आयु॑धम् । पूर्वा॑ । व्र॒तस्य॑ । प्र॒ऽअ॒श्न॒ती । वी॒र॒ऽघ्नी । भ॒व॒ । मे॒ख॒ले॒ ॥१३३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आहुतास्यभिहुत ऋषीणामस्यायुधम्। पूर्वा व्रतस्य प्राश्नती वीरघ्नी भव मेखले ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽहुता । असि । अभिऽहुता । ऋषीणाम् । असि । आयुधम् । पूर्वा । व्रतस्य । प्रऽअश्नती । वीरऽघ्नी । भव । मेखले ॥१३३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 133; मन्त्र » 2

    मन्त्रार्थ -
    (मेखले-आहुता-अभिहुता-असि) हे मेखला, तू मेरे शरीर में आयाम घेराई से गृहीत-कटि में बन्धी है तथा अभिमुख से कौपीन-लंगोटी द्वारा उपस्थ से गुदापर्यन्त बन्धी- है (ऋषीणां आयुधम् असि) ॠषित्व को प्राप्त तथा प्राप्त करने वालो का तू आयुध-शस्त्र कामशत्रु का नाशन साधन (व्रतस्य पूर्वा प्राश्नती वीरघ्नी भव) ब्रह्मचर्य व्रत की प्रमुख प्राप्त कराने वाली और कामवीरों-प्रबल कामवासनाओ को नष्ट करने वाली है "अत्ता हि वीरः" (शत. ४।२।१।६।) ॥२॥

    विशेष - ऋषिः—अगस्त्यः (अगः) = पाप को त्यागे हुये. अगः - त्यज ' डः, अन्येभ्योपि दृश्यते वा, अन्येष्वपि दृश्यते" (अष्टा० ३।२।१०१) देवता - मेखला (संयमनी रज्जु "कौपीन")

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