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  • यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 21
    ऋषिः - देवावात ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - भूरिक ब्राह्मी बृहती, स्वरः - मध्यमः
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    इन्द्र॑स्य॒ वज्रो॑ऽसि मि॒त्रावरु॑णयोस्त्वा प्रशा॒स्त्रोः प्र॒शिषा॑ युनज्मि। अव्य॑थायै त्वा स्व॒धायै॒ त्वाऽरि॑ष्टो॒ अर्जु॑नो म॒रुतां॑ प्रस॒वेन॑ ज॒यापा॑म॒ मन॑सा॒ समि॑न्द्रि॒येण॑॥२१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑स्य। वज्रः॑। अ॒सि॒। मि॒त्रावरु॑णयोः। त्वा॒। प्र॒शा॒स्त्रो॑रिति॑ प्रऽशा॒स्त्रोः। प्र॒शिषेति॑ प्र॒ऽशिषा॑। यु॒न॒ज्मि॒। अव्य॑थाय। त्वा॒। स्व॒धायै॑। त्वा॒। अरि॒ष्टः॑। अर्जु॑नः। म॒रुता॑म्। प्र॒स॒वेनेति॑ प्रऽस॒वेन॑। ज॒य॒। आपा॑म। मन॑सा। सम्। इ॒न्द्रि॒येण॑ ॥२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रस्य वज्रोसि मित्रावरुणयोस्त्वा प्रशास्त्रोः प्रशिषा युनज्मि । अव्यथायै त्वा स्वधायै त्वारिष्टोऽअर्जुनो मरुताम्प्रसवेन जयापाम मनसा समिन्द्रियेण ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रस्य। वज्रः। असि। मित्रावरुणयोः। त्वा। प्रशास्त्रोरिति प्रऽशास्त्रोः। प्रशिषेति प्रऽशिषा। युनज्मि। अव्यथाय। त्वा। स्वधायै। त्वा। अरिष्टः। अर्जुनः। मरुताम्। प्रसवेनेति प्रऽसवेन। जय। आपाम। मनसा। सम्। इन्द्रियेण॥२१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 10; मन्त्र » 21
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    पदार्थ -
    हे राजन्! जो आप (अरिष्टः) किसी के मारने में न आने वाले (अर्जुनः) प्रशंसा के योग्य रूप से युक्त (इन्द्रस्य) परम ऐश्वर्य्य वाले का (वज्रः) शत्रुओं के लिये वज्र के समान (असि) हैं, जिस (त्वा) आपको (अव्यथायै) पीड़ा न होने के लिये (प्रशास्त्रोः) सब को शिक्षा देने वाले (मित्रावरुणयोः) सभा और सेना के स्वामी की (प्रशिषा) शिक्षा से मैं (युनज्मि) समाहित करता हूं (मरुताम्) ऋत्विज लोगों के (प्रसवेन) करने से (स्वधायै) अपनी चीज को धारण करना रूप राजनीति के लिये जिस (त्वा) आपका योगाभ्यास से चिन्तन करता हूं, (मनसा) विचारशील मन (इन्द्रियेण) जीव से सेवन की हुई इन्द्रिय से जिस (त्वा) आपको हम लोग (समापाम) सम्यक् प्राप्त होते हैं, सो आप (जय) दुष्टों को जीत के निश्चिन्त उत्कृष्ट हूजिये॥२१॥

    भावार्थ - विद्वानों को चाहिये कि राजा और प्रजापुरुषों को धर्म और अर्थ की सिद्धि के लिये सदा शिक्षा देवें, जिससे ये किसी को पीड़ा देने रूप राजनीति से विरुद्ध कर्म न करें। सब प्रकार बलवान् होके शत्रुओं को जीतें , जिससे कभी धन-सम्पत्ति की हानि न होवे॥२१॥

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