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  • यजुर्वेद - अध्याय 35/ मन्त्र 16
    ऋषिः - वैखानस ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    अग्न॒ऽआयू॑षि पवस॒ऽ आ सु॒वोर्ज॒मिषं॑ च नः।आ॒रे बा॑धस्व दु॒च्छुना॑म्॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑। आयू॑षि। प॒व॒से॒। आ। सु॒व। ऊर्ज॑म्। इष॑म्। च॒। नः॒ ॥ आ॒रे। बा॒ध॒स्व॒। दु॒च्छुना॑म् ॥१६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नऽआयूँषि पवस्वऽआ सुवोर्जमिषञ्च नः । आरे बाधस्व दुच्छुनाम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। आयूषि। पवसे। आ। सुव। ऊर्जम। इषम्। च। नः॥ आरे। बाधस्व। दुच्छुनाम्॥१६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 35; मन्त्र » 16
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    पदार्थ -
    हे (अग्ने) परमेश्वर वा विद्वन्! आप (आयूंषि) अन्नादि पदार्थों वा अवस्थाओं को (पवसे) पवित्र करते (नः) हमारे लिये (ऊर्जम्) बल (च) और (इषम्) विज्ञान को (आ, सुव) अच्छे प्रकार उत्पन्न कीजिये तथा (दुच्छुनाम्) कुत्तों के तुल्य दुष्ट हिंसक प्राणियों को (आरे) दूर वा समीप में (बाधस्व) ताड़ना विशेष दीजिये॥१६॥

    भावार्थ - जो मनुष्य दुष्टों का आचरण और सङ्ग छोड़ के परमेश्वर और आप्त सत्यवादी विद्वान् की सेवा करते हैं, वे धन-धान्य से युक्त हुए दीर्घ अवस्था वाले होते हैं॥१६॥

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