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  • यजुर्वेद - अध्याय 35/ मन्त्र 22
    ऋषिः - आदित्या देवा वा ऋषयः देवता - सविता देवता छन्दः - स्वराड् गायत्री स्वरः - षड्जः
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    अ॒स्मात्त्वमधि॑ जा॒तोऽसि॒ त्वद॒यं जा॑यतां॒ पुनः॑।अ॒सौ स्व॒र्गाय॑ लो॒काय॒ स्वाहा॑॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मात्। त्वम्। अधि॑। जा॒तः। अ॒सि॒। त्वत्। अ॒यम्। जा॒य॒ता॒म्। पुन॒रिति॒ पुनः॑ ॥ अ॒सौ। स्वर्गायेति॑ स्वः॒ऽगाय॑। लो॒काय॑। स्वाहा॑ ॥२२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मात्त्वमधिजातोसि त्वदयञ्जायताम्पुनः । असौ स्वर्गाय लोकाय स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मात्। त्वम्। अधि। जातः। असि। त्वत्। अयम्। जायताम्। पुनरिति पुनः॥ असौ। स्वर्गायेति स्वःऽगाय। लोकाय। स्वाहा॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 35; मन्त्र » 22
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    पदार्थ -
    हे विद्वान् पुरुष (त्वम्) आप (अस्मात्) इस लोक से अर्थात् वर्त्तमान मनुष्यों से (अधि) सर्वोपरि (जातः) प्रसिद्ध विराजमान (असि) हैं, इससे (अयम्) यह पुत्र (त्वत्) आपसे (पुनः) पीछे (असौ) विशेष नामवाला (स्वाहा) सत्य क्रिया से (लोकाय) देखने योग्य (स्वर्गाय) विशेष सुख भोगने के लिये (जायताम्) प्रकट समर्थ होवे॥२२॥

    भावार्थ - हे मनुष्यो! तुम लोगों को चाहिये कि इस जगत् में मनुष्यों का शरीर धारण कर विद्या, उत्तम शिक्षा, अच्छा स्वभाव, धर्म, योगाभ्यास और विज्ञान का सम्यक् ग्रहण करके मुक्ति सुख के लिये प्रयत्न करो और यही मनुष्यजन्म की सफलता है, ऐसा जानो॥२२॥

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