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  • यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 11
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - आत्मा देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    सम्भू॑तिं च विना॒शं च॒ यस्तद्वेदो॒भय॑ꣳ स॒ह।वि॒ना॒शेन॑ मृ॒त्युं ती॒र्त्वा सम्भू॑त्या॒मृत॑मश्नुते॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्भू॑ति॒मिति॒ सम्ऽभू॑तिम्। च॒। वि॒ना॒शमिति॑ विऽना॒शम्। च॒। यः। तत्। वेद॑। उ॒भय॑म्। स॒ह ॥ वि॒ना॒शेनेति॑ विना॒शेन॑। मृ॒त्युम्। ती॒र्त्वा। सम्भू॒त्येति॒ सम्ऽभू॑त्या। अ॒मृत॑म्। अ॒श्नु॒ते॒ ॥११ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सम्भूतिञ्च विनाशञ्च यस्तद्वेदोभयँ सह । विनाशेन मृत्युन्तीर्त्वा सम्भूत्यामृतमश्नुते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सम्भूतिमिति सम्ऽभूतिम्। च। विनाशमिति विऽनाशम्। च। यः। तत्। वेद। उभयम्। सह॥ विनाशेनेति विनाशेन। मृत्युम्। तीर्त्वा। सम्भूत्येति सम्ऽभूत्या। अमृतम्। अश्नुते॥११॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 40; मन्त्र » 11
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! (यः) जो विद्वान् (सम्भूतिम्) जिसमें सब पदार्थ उत्पन्न होते उस कार्य्यरूप सृष्टि (च) और उसके गुण, कर्म, स्वभावों को तथा (विनाशम्) जिसमें पदार्थ नष्ट होते उस कारणरूप जगत् (च) और उसके गुण, कर्म, स्वभावों को (सह) एक साथ (उभयम्) दोनों (तत्) उन कार्य्य और कारण स्वरूपों को (वेद) जानता है, वह विद्वान् (विनाशेन) नित्यस्वरूप जाने हुए कारण के साथ (मृत्युम्) शरीर छूटने के दुःख से (तीर्त्वा) पार होकर (सम्भूत्या) शरीर, इन्द्रियाँ और अन्तःकरणरूप उत्पन्न हुई कार्यरूप धर्म में प्रवृत्त करानेवाली सृष्टि के साथ (अमृतम्) मोक्षसुख को (अश्नुते) प्राप्त होता है॥११॥

    भावार्थ - हे मनुष्यो! कार्य्यकारणरूप वस्तु निरर्थक नहीं हैं, किन्तु कार्यकारण के गुण, कर्म और स्वभावों को जानकर धर्म आदि मोक्ष के साधनों में संयुक्त करके अपने शरीरादि कार्यकारण को नित्यत्व से जान के मरण का भय छोड़ कर मोक्ष की सिद्धि करो। इस प्रकार कार्य्यकारण से अन्य ही बल सिद्ध करना चाहिये। इन कार्य्यकारण का निषेध परमेश्वर के स्थान में जो उपासना उस प्रकरण में जानना चाहिये॥११॥

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