यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 11
ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः
देवता - आत्मा देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
920
सम्भू॑तिं च विना॒शं च॒ यस्तद्वेदो॒भय॑ꣳ स॒ह।वि॒ना॒शेन॑ मृ॒त्युं ती॒र्त्वा सम्भू॑त्या॒मृत॑मश्नुते॥११॥
स्वर सहित पद पाठसम्भू॑ति॒मिति॒ सम्ऽभू॑तिम्। च॒। वि॒ना॒शमिति॑ विऽना॒शम्। च॒। यः। तत्। वेद॑। उ॒भय॑म्। स॒ह ॥ वि॒ना॒शेनेति॑ विना॒शेन॑। मृ॒त्युम्। ती॒र्त्वा। सम्भू॒त्येति॒ सम्ऽभू॑त्या। अ॒मृत॑म्। अ॒श्नु॒ते॒ ॥११ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सम्भूतिञ्च विनाशञ्च यस्तद्वेदोभयँ सह । विनाशेन मृत्युन्तीर्त्वा सम्भूत्यामृतमश्नुते ॥
स्वर रहित पद पाठ
सम्भूतिमिति सम्ऽभूतिम्। च। विनाशमिति विऽनाशम्। च। यः। तत्। वेद। उभयम्। सह॥ विनाशेनेति विनाशेन। मृत्युम्। तीर्त्वा। सम्भूत्येति सम्ऽभूत्या। अमृतम्। अश्नुते॥११॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः कार्य्यकारणाभ्यां किं किं साधनीयमित्याह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यो विद्वान् सम्भूतिं च विनाशं च सहोभयं तद्वेद, स विनाशेन सह मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्या सहामृतमश्नुते॥११॥
पदार्थः
(सम्भूतिम्) सम्भवन्ति यस्यां ता कार्य्याख्यां सृष्टिम् (च) तस्या गुणकर्मस्वभावान् (विनाशम्) विनश्यन्त्यदृश्याः पदार्था भवन्ति यस्मिन् (च) तद्गुणकर्म्मस्वभावान् (यः) (तत्) (वेद) जानाति (उभयम्) कार्य्यकारणस्वरूपं जगत् (सह) (विनाशेन) नित्यस्वरूपेण विज्ञातेन कारणेन सह (मृत्युम्) शरीरवियोगजन्यं दुःखम् (तीर्त्वा) उल्लङ्घ्य (सम्भूत्या) शरीरेन्द्रियान्तःकरणरूपयोत्पन्नया कार्य्यरूपया धर्म्ये प्रवर्त्तयित्र्या सृष्ट्या (अमृतम्) मोक्षम् (अश्नुते) प्राप्नोति॥११॥
भावार्थः
हे मनुष्याः! कार्य्यकारणाख्ये वस्तुनी निरर्थक न स्तः, किन्तु कार्य्यकारणयोर्गुणकर्मस्वभावान् विदित्वा धर्मादिमोक्षसाधनेषु संप्रयोज्य स्वात्मकार्यकारणयोर्विज्ञातेन नित्यत्वेन मृत्युभयं त्यक्त्वा मोक्षसिद्धिं सम्पादयतेति कार्यकारणाभ्यामन्यदेव फलं निष्पादनीयमिति। अनयोर्निषेधो हि परमेश्वरस्थान उपासनाप्रकरणे वेदितव्यः॥११॥
हिन्दी (5)
विषय
फिर मनुष्यों को कार्य्यकारण से क्या क्या सिद्ध करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! (यः) जो विद्वान् (सम्भूतिम्) जिसमें सब पदार्थ उत्पन्न होते उस कार्य्यरूप सृष्टि (च) और उसके गुण, कर्म, स्वभावों को तथा (विनाशम्) जिसमें पदार्थ नष्ट होते उस कारणरूप जगत् (च) और उसके गुण, कर्म, स्वभावों को (सह) एक साथ (उभयम्) दोनों (तत्) उन कार्य्य और कारण स्वरूपों को (वेद) जानता है, वह विद्वान् (विनाशेन) नित्यस्वरूप जाने हुए कारण के साथ (मृत्युम्) शरीर छूटने के दुःख से (तीर्त्वा) पार होकर (सम्भूत्या) शरीर, इन्द्रियाँ और अन्तःकरणरूप उत्पन्न हुई कार्यरूप धर्म में प्रवृत्त करानेवाली सृष्टि के साथ (अमृतम्) मोक्षसुख को (अश्नुते) प्राप्त होता है॥११॥
भावार्थ
हे मनुष्यो! कार्य्यकारणरूप वस्तु निरर्थक नहीं हैं, किन्तु कार्यकारण के गुण, कर्म और स्वभावों को जानकर धर्म आदि मोक्ष के साधनों में संयुक्त करके अपने शरीरादि कार्यकारण को नित्यत्व से जान के मरण का भय छोड़ कर मोक्ष की सिद्धि करो। इस प्रकार कार्य्यकारण से अन्य ही बल सिद्ध करना चाहिये। इन कार्य्यकारण का निषेध परमेश्वर के स्थान में जो उपासना उस प्रकरण में जानना चाहिये॥११॥
पदार्थ
पदार्थ = ( यः ) = जो पुरुष ( सम्भूतिम् ) = कार्य जगत् ( च ) = और ( विनाशम् ) = जिसमें पदार्थ नष्ट होकर लीन होते हैं, ऐसे कारण रूप असम्भूति ( च ) = इनके गुण-कर्मस्वभावों को ( सह ) = एक साथ ( उभयम् ) = दोनों ( तत् ) = उन कार्य कारण स्वरूपों को (वेद ) = जानता है ( विनाशेन ) = सबके अदृश्य होने के परम कारण को जान कर ( मृत्युम् ) = देह छोड़ने से होने के परम कारण को जान कर ( मृत्युम् ) = देह छोड़ने से होनेवाले भय को ( तीर्त्वा ) = पार करके उसको सर्वथा त्यागकर ( सम्भूत्या ) = कारण से कार्यों के उत्पन्न होने के तत्त्व को जानकर ( अमृतम् ) = अविनाशी मोक्ष सुख को ( अश्नुते ) = प्राप्त होता है।
भावार्थ
भावार्थ = कार्य कारण रूप वस्तु निरर्थक नहीं है, किन्तु कार्य कारण के गुण-कर्म-स्वभावों को जानकर, धर्म आदि मोक्ष के साधनों में संयुक्त करके, अपने शरीरादि के कार्य कारण को जानकर, मरण का भय छोड़कर, मोक्ष की सिद्धि करनी चाहिये । जिस कारण से यह शरीर उत्पन्न हुआ है, उसमें ही कभी न कभी अवश्य लीन होगा। जिसकी उत्पत्ति हुई है उसका नाश भी अवश्य होगा, ऐसे निश्चय से निर्भय होकर, मुक्ति के साधनों में यत्नशील होना चाहिये ।
विषय
सम्भूति और विनाश दोनों का ज्ञान । उन दोनों की उपासना का फल, मृत्यु, मरण और अमृत भोग ।
भावार्थ
( संभूतिम् ) जिसमें नाना पदार्थ उत्पन्न होते हैं इस कार्य सृष्टि और ( विनाशं च ) जिसमें विनाश अर्थात् कारण में लीन होते हैं (उभयम् ) दोनों को (यः) जो (सह) एक साथ (वेद) जान लेता है । वह (विनाशेन ) सबके अदृश्य होने के परम कारण को जान कर (मृत्युम् ) देह को छोड़ने के धर्म के भय को (तीर्खा) पार करके, उसको सर्वथा त्याग कर (संभूत्या) कारण से कार्यों के उत्पन्न होने के तत्व को जान कर ( अमृतम् ) उस अमर अविनाशी मोक्ष को (अश्नुते ) प्राप्त करता है । संभूतिः = सम्भवैकहेतुः परं ब्रह्म । विनाशः = विनाशधर्मं कं शरीरमिति उवट।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आत्मा । अनुष्टुप् । गांधारः ॥
विषय
व्यक्ति व समाज का समन्वय
पदार्थ
ऊपर दो बातें देखी जा चुकी हैं। १. सम्भूति व असम्भूति के फल चमत्कारिक हैं, और २. अलग-अलग ये दोनों ही मनुष्य को अँधेरे में ले जाते हैं, अतः ऐसी अवस्था में करना क्या चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत मन्त्र में इन शब्दों में देते हैं कि- (सम्भूतिम् च) = सम्भूति वा समाजवाद को (विनाशम् च) = [विनश] भिन्न-भिन्न दिशाओं में जाना, मिलकर न चलना, अर्थात् व्यक्तिवाद को (यः) = जो (तत् उभयम्) = दोनों को सह वेद- साथ-साथ प्राप्त करता है [विद् लाभे], वह व्यक्ति (विनाशेन) = व्यक्तिवाद से (मृत्युम्) = मृत्यु को (तीर्त्वा) = तैरकर (सम्भूत्या) = समाजवाद से (अमृतम्) = अमरता को अश्नुते प्राप्त करता है। 'सह वेद' इन शब्दों में व्यक्ति व समाज को मिला देने का संकेत है। प्रत्येक हितकारी नियमों में व्यक्तिवाद को ही स्थान मिलना चाहिए तो समाज हितकारी बातों में प्रमुखता समाजवाद की रहनी चाहिए। 'शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वरप्राणिधान' इन नियमों के पालन में व्यक्ति स्वतन्त्र है तो 'अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह' इन नियमों के पालन में वह परतन्त्र है। नियमों का पालन नहीं करेगा तो व्यक्ति ही हानि उठाएगा, परन्तु यमों का पालन न करे तो समाज की हानि है, अतः इनके पालन में व्यक्ति स्वतन्त्र नहीं। इनका पालन उसे करना ही होगा। शौच, सन्तोष आदि का पालन करता हुआ वह असमय की मृत्यु से बचेगा तो अहिंसा आदि के अनुष्ठान से वह अपने समाज को अमर बना पाएगा। आजकल की भाषा में व्यक्ति वैध उपायों से धन कमाने के लिए स्वतन्त्र है, परन्तु कर देना या न देना, यह उसकी इच्छा पर नहीं छोड़ा जा सकता। 'गृहस्थ बने या न बने' इतने अंश में व्यक्ति स्वतन्त्र है, परन्तु 'ब्रह्मचर्य' पालन करे या न करे, संयमी जीवनवाला हो या न हो यह उसकी इच्छा का विषय नहीं रक्खा जा सकता। असमय से वह कितने ही घरों को बरबाद करेगा। एवं व्यक्तिवाद व्यक्ति को उन्नत करता है और समाजवाद इस उन्नत व्यक्ति को समाज के लिए उपयोगी बनाता है।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे जीवन में व्यक्तिवाद व समाजवाद का समन्वय हो ।
मन्त्रार्थ
(यः) जो (सम्भूतिं च विनाशं च तत्-उभयं सह ) सम्भूति सृष्टि और विनाश असम्भूति अर्थात् प्रकृति, इन दोनो को साथ साथ (वेद) जानता है । वह (विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा) विनाश अर्थात् सृष्टि के अव्यक्त रूप प्रकृति से मृत्यु को तर कर (सम्भूत्याऽमृतम्-अश्नुते) सृष्टि से अमृत को प्राप्त करता है ॥११॥
टिप्पणी
यहां ९ वें मन्त्र में जो असम्भूति की उपासना से घने अन्धेरे में प्रवेश होना और सम्भूति की उपासना से उससे भी अधिक घने अन्धेरे में प्रवेश होना कहा गया है वह अकेले सेवन करने का फल कहा गया है क्योंकि ११ वें मन्त्र में दोनों को साथ साथ जानने का फल गिरना नहीं किन्तु मृत्यु को तरना और अमृत को पाना उत्कृष्ट फल बताया है । इनके अलग अलग सेवन से उत्कृष्ट फल नहीं मिलता किन्तु गिरना ही होता है । एक मनुष्य के पास केवल प्रकृति- कारण रूप गेहूँ आदि शुष्क अन्न मात्र है वह नहीं जानता कि इसकी रोटी आदि भोजन कैसे बनता है वह उसे कच्चा ही खाता रहता है तो अनेक रोगों का ग्रास बन जाता है, अतः घने अन्धेरे में प्रवेश करता है अन्य मनुष्य के पास सृष्टि रोटी आदि बना हुआ भोजन है वह नहीं जानता कि यह किससे बना है पर खाता चला जाता है, बना भोजन धीरे धीरे बिगड अखाद्य हो । जाता है या समाप्त हो जाता है अधिक काल तक न ठहरने से तो पुनः यह मृत्यु को प्राप्त हो जाता है इस प्रकार पूर्व की अपेक्षा उससे भी अधिक घने अन्धेरे में प्रवेश होता है । फल दोनों का भिन्न भिन्न है अलग अलग सेवन करने पर भी और मिलाकर सेवन करने पर भी, यह गत १० वें मन्त्र में कहा है। ११ वें मन्त्र में फल दोनों का साथ साथ सेवन करने का उठना दर्शाया कि प्रकृति के सेवन का फल मृत्यु को तरना और सृष्टि के सेवन का फल अमृत का पाना है । यह फल अध्यात्म जीवन के होने से यहां सृष्टि और प्रकृति भी अध्यात्मरूप में हैं। छातः यहां सृष्टि- अध्यात्म सृष्टि है इन्द्रियादि संघातरूप शरीर और प्रकृति है उसका कारणरूप मन कहा भी है "मनोऽधिकृतेनायात्यस्मिन् शरीरे” (प्रश्नो० ३ । ३) मन के कारण जीव शरीर में आता है । जैसा-जैसा होता है मन वैसा-वैसा बनता है। अतः दोनों मन और शरीर को साथ जानने से अध्यात्म प्रकृति अर्थात् मन के निरोध संयम से मृत्यु पुनः पुनः मरण को तर कर अध्यात्म सृष्टि अर्थात् इन्द्रियादि संघातरूप शरीर से परमात्मा की ओर प्रवृत करके उसका श्रवण करने से अमृत को पाना होता है | "श प्रदर्शने" ( दिवादि० ) दृष्ट का ग्रदृष्ट हो जाना विनाश- प्रकृति बन जाना ।
विशेष
"आयुर्वै दीर्घम्” (तां० १३।११।१२) 'तमुग्राकांक्षायाम्,' (दिवादि०) "वस निवासे" (स्वादि०) "वस आच्छादने" (अदादि०) श्लेषालङ्कार से दोनों अभीष्ट हैं। आवश्यके ण्यत् "कृत्याश्च" (अष्टा० ३।३।१७१)
मराठी (2)
भावार्थ
हे माणसांनो ! कार्यकारण्रूपी वस्तू निरर्थक नाहीत. त्यामुळे कार्यकारणाने गुण, कर्म, स्वभाव जाणून धर्म साधनांमध्ये संयुक्त करून आपले शरीर इत्यादी कार्यकारणाला नित्यत्वाने जाणून, मृत्यूचे भय दूर करून मोक्ष प्राप्त करा. या प्रकारे कार्यकारणाने अन्य फळ प्राप्त केले पाहिजे. परमेश्वराऐवजी कार्यकारणाची (जगत हे कार्य व प्रकृती हे कारण) उपासना केली जाते तेथे कार्यकारणाचा निषेध केला पाहिजे.
विषय
मनुष्यांनी कार्यकारणापासून काय काय प्राप्त करावे, याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यानो, (यः) जो विद्वान (सम्भूतिम्) ज्यात सर्व पदार्थ उत्पन्न होतात, त्या कार्यरूप सृष्टीच्या (च) गुण, कर्म आणि स्वभावाला तसेच (विनाशम्) ज्यात सर्व पदार्थ नष्ट होतात, त्या कारणरूप जगाला (च) आणि त्याच्या गुण, कर्म, स्वभावा (सह) सह जगाला (वेद) जाणतो म्हणजे कारण प्रकृती व कार्य जगत या (उभयम्) दोन्हाला जाणतो. (दोन्हीचे गुण, कर्म, स्वभाव ओळखतो) तो विद्वान (विनाशेन) हे नित्य आहे’ असे जाणलेल्या कारणाने (प्रकृती व आत्मा नित्य व अविनाशी आहेत, हे जाणून) (मृत्युम्) शरीर त्यागाच्या वेळी होणार्या दुःखाला (तीर्त्वा) पार करून जातो (मृत्युसमयी त्याला दुःख होत नाही) आणि तो विद्वान (सम्भूत्या) शरीर, इंद्रियें आणि अंतःकरणरूप कार्य धर्मात करणार्या सृष्टीसह (अमृतम्) मोक्षसुख (अश्नुते) प्राप्त करतो. ॥11॥
भावार्थ
भावार्थ - हे मनुष्यानो, कार्यकारणरूप पदार्थ निरर्थक वा व्यर्थ नाहीत. कार्याचे व कारणाचे (उत्पन्न पदार्थ व प्रकृतीचे) गुण, कर्म, स्वभाव जाणून, धर्म आदी मोक्षाच्या साधनांशी त्या कार्यकारणाचा संयोग करता येतो. अशाप्रकारे आपल्या शरीरादीचे कार्य आणि कारण प्रकृतीचे नित्यत्व ओळखल्यास मृत्यूचे भय राहत नाही आणि माणूस मोक्षसिद्धीसाठी यत्न करतो. अशाप्रकारे कार्यकारण सत्वरूप ओळखून महत्त्वाचे अन्य लाभ प्राप्त केले पाहिजे. मात्र कार्यकारणाचा निषेध तिथे करावा, जिथे परमेश्वराची उपासना सोडून माणूस अन्य विषयी रममाण असेल. ॥11॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The man who knows simultaneously the effect and the cause, overcoming death through the knowledge of the cause, attains to salvation through the knowledge of the effect, the created world.
Meaning
One who knows the immortal/constant primordial and the mortal/mutable existential and knows that Supreme Spirit along with both, masters the facts of death by the mortal and realizes the immortal by the primordial.
Translation
He, who pursues the creative impulse as well as the destructive one side by side, overcomes death by the destructive impulse and gains immortality through the creative one. (1)
Notes
Sambhūtim ca vināśam ca, sambhūti is an antonym of vinasa; creation and destruction.
बंगाली (2)
विषय
পুনর্মনুষ্যৈঃ কার্য়্যকারণাভ্যাং কিং কিং সাধনীয়মিত্যাহ ॥
পুনঃ মনুষ্যদিগকে কার্য্যকারণ দ্বারা কী কী সিদ্ধ করা উচিত, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! (য়ঃ) যে বিদ্বান্ (সম্ভূতিম্) যাহাতে সকল পদার্থ উৎপন্ন হয় সেই কার্য্যরূপ সৃষ্টি (চ) এবং তাহার গুণ, কর্ম, স্বভাবকে তথা (বিনাশম্) যাহাতে পদার্থ নষ্ট হয় সেই কারণরূপ জগৎ (চ) এবং তাহার গুণ, কর্ম, স্বভাবকে (সহ) এক সঙ্গে (উভয়ম্) উভয় (তৎ) সেই সব কার্য্য ও কারণ স্বরূপকে (বেদ) জানে সেই বিদ্বান্ (বিনাশেন) নিত্যস্বরূপ জানা কারণসহ (মৃত্যুম্) শরীর ত্যাগ হওয়ার দুঃখ হইতে (তীর্ত্বা) উত্তীর্ণ হইয়া (সম্ভূত্যা) শরীর, ইন্দ্রিয় এবং অন্তঃকরণরূপ উৎপন্ন কার্য্যরূপ ধর্ম্মে প্রবৃত্তকারিণী সৃষ্টি সহ (অমৃতম্) মোক্ষসুখকে (অশ্নুতে) প্রাপ্ত হয় ॥ ১১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! কার্য্যকারণরূপ বস্তু নিরর্থক নয় কিন্তু কার্য্যকারণের গুণ, কর্ম ও স্বভাব জানিয়া ধর্মাদি মোক্ষের সাধনে সংযুক্ত করিয়া নিজের শরীরাদি কার্য্যকারণকে নিত্যত্বপূর্বক জানিয়া মরণের ভয় ত্যাগ করিয়া মোক্ষের সিদ্ধি কর । এই প্রকার কার্য্যকারণ হইতে অন্যই বল সিদ্ধ করা উচিত । এই কার্য্যকারণের নিষেধ পরমেশ্বরের স্থান উপাসনা প্রকরণে জানা উচিত ॥ ১১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
সম্ভূ॑তিং চ বিনা॒শং চ॒ য়স্তদ্বেদো॒ভয়॑ꣳ স॒হ ।
বি॒না॒শেন॑ মৃ॒ত্যুং তী॒র্ত্বা সম্ভূ॑ত্যা॒মৃত॑মশ্নুতে ॥ ১১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সম্ভূতিমিত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । আত্মা দেবতা । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
পদার্থ
সম্ভূতিং চ বিনাশং চ য়স্তদ্বেদোভয়ং সহ ।
বিনাশেন মৃত্যুং তীর্ত্বা সম্ভূত্যাঽমৃতমশ্নুতে ।।৯৪।।
(যজু, ৪০।১১)
পদার্থঃ হে মানব ! (য়ঃ) যে বিদ্বান (সম্ভূতিম্) যাতে পদার্থ উৎপন্ন হয় সেই কার্যরূপ সৃষ্টিকে (চ) এবং সৃষ্টির গুণ, কর্ম, স্বভাবকে এবং (বিনাশম্) যাতে পদার্থ বিনষ্ট অর্থাৎ অদৃশ্য হয়ে যায় সেই কারণরূপ প্রকৃতিকে তথা (চ) তার গুণ, কর্ম, স্বভাবকে (সহ) একসাথে (উভয়ম্ তৎ) সেই কার্য এবং কারণরূপ জগতকে (বেদ) জানেন, তিনি (বিনাশেন) নিত্যস্বরূপ বিজ্ঞাত কারণের সাথে (মৃত্যুম্) শরীর বিয়োগের কারণে উৎপন্ন দুঃখকে (তীর্ত্বা) উত্তীর্ণ করে (সম্ভূত্যা) শরীর, ইন্দ্রিয় এবং অন্তঃকরণরূপ উৎপন্ন হওয়া কার্যরূপ সৃষ্টি, ধর্ম কার্যে প্রবৃত্ত করানো সৃষ্টির সহযোগ দ্বারা (অমৃতম্) মোক্ষ সুখ (অশ্নুতে) প্রাপ্ত হন।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ কার্য (সৃষ্টি), কারণ (প্রকৃতি) কেউই নিরর্থক নয়। বরং কার্য, কারণ এই উভয়ের গুণ, কর্ম, স্বভাবকে জেনে এদের ধর্মাদি, মোক্ষের সাধনে উপযোগ করে আপন আপন স্বরূপ দ্বারা কার্য এবং কারণের নিত্যতার বিজ্ঞান দ্বারা মৃত্যুর ভয়কে দূর করে মোক্ষের সিদ্ধি করা উচিত।
অর্থাৎ কার্য ও কারণ এই উভয়কেই জানতে হবে। কার্য জগৎ এবং তা বিনাশপ্রাপ্ত হয়ে যে কারণ জগতে লীন হয়ে যায়; সেই উভয় তত্ত্বকে জেনে, কারণ থেকে কার্যের উৎপত্তির রহস্যকে অবগত হয়েই বিদ্বান ব্যক্তি মৃত্যুকে অতিক্রম করে অমৃতত্ত্ব লাভ করেন।।৯৪।।
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