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यजुर्वेद अध्याय - 40
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  • यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 15
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - आत्मा देवता छन्दः - स्वराडुष्णिक् स्वरः - ऋषभः
    972

    वा॒युरनि॑लम॒मृत॒मथे॒दं भस्मा॑न्त॒ꣳ शरी॑रम्।ओ३म् क्रतो॑ स्मर। क्लि॒बे स्म॑र। कृ॒तꣳ स्म॑र॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वा॒युः। अनि॑लम्। अ॒मृत॑म्। अथ॑। इ॒दम्। भस्मा॑न्त॒मिति॒ भस्म॑ऽअन्तम्। शरी॑रम् ॥ ओ३म्। क्रतो॒ इति॒ क्रतो॑। स्म॒र॒। क्लि॒बे। स्म॒र॒। कृ॒तम्। स्म॒र॒ ॥१५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वायुरनिलममृतमथेदम्भस्मान्तँ शरीरम् । ओ३म् । क्रतो स्मर । क्लिबे स्मर । कृतँ स्मर ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वायुः। अनिलम्। अमृतम्। अथ। इदम्। भस्मान्तमिति भस्मऽअन्तम्। शरीरम्॥ ओ३म्। क्रतो इति क्रतो। स्मर। क्लिबे। स्मर। कृतम्। स्मर॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 40; मन्त्र » 15
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ देहान्तसमये किं कार्य्यमित्याह॥

    अन्वयः

    हे क्रतो! त्वं शरीरत्यागसमये (ओ३म्) स्मर क्लिबे परमात्मानं स्वस्वरूपं च स्मर कृतं स्मर। अत्रस्थो वायुरनिलमनिलोऽमृतं धरति। अथेदं शरीरं भस्मान्तं भवतीति विजानीत॥१५॥

    पदार्थः

    (वायुः) धनञ्जयादिरूपः (अनिलम्) कारणरूपं वायुम् (अमृतम्) नाशरहितं कारणम् (अथ) (इदम्) (भस्मान्तम्) भस्म अन्ते यस्य तत् (शरीरम्) यच्छीर्य्यते हिंस्यते तदाश्रयम् (ओ३म्) एतन्नामवाच्यमीश्वरम् (क्रतो) यः करोति जीवस्तत्सम्बुद्धौ (स्मर) पर्य्यालोचय (क्लिबे) स्वसामर्थ्याय (स्मर) (कृतम्) यदनुष्ठितम् (स्मर) तत्॥१५॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्यथा मृत्युसमये चित्तवृत्तिर्जायते शरीरादात्मनः पृथग्भावश्च भवति, तथैवेदानीमपि विज्ञेयम्। एतच्छरीरस्य भस्मान्ता क्रिया कार्य्या नातो दहनात् परः कश्चित् संस्कारः कर्त्तव्यो वर्त्तमानसमय एकस्य परमेश्वरस्यैवाज्ञापालनमुपासनं स्वसामर्थ्यवर्द्धनञ्चैव कार्य्यम्। कृतं कर्म विफलं न भवतीति मत्वा धर्मे रुचिरधर्मेऽप्रीतिश्च कर्त्तव्या॥१५॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    अब देहान्त के समय क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (क्रतो) कर्म करनेवाले जीव! तू शरीर छूटते समय (ओ३म्) इस नामवाच्य ईश्वर को (स्मर) स्मरण कर (क्लिबे) अपने सामर्थ्य के लिये परमात्मा और अपने स्वरूप का (स्मर) स्मरण कर (कृतम्) अपने किये का (स्मर) स्मरण कर। इस संस्कार का (वायुः) धनञ्जयादिरूप वायु (अनिलम्) कारणरूप वायु को, कारणरूप वायु (अमृतम्) अविनाशी कारण को धारण करता (अथ) इसके अनन्तर (इदम्) यह (शरीरम्) नष्ट होनेवाला सुखादि का आश्रय शरीर (भस्मान्तम्) अन्त में भस्म होनेवाला होता है, ऐसा जानो॥१५॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि जैसी मृत्यु समय में चित्त की वृत्ति होती है और शरीर से आत्मा का पृथक् होना होता है, वैसे ही इस समय भी जानें। इस शरीर की जलाने पर्य्यन्त क्रिया करें। जलाने के पश्चात् शरीर का कोई संस्कार न करें। वर्त्तमान समय में एक परमेश्वर की ही आज्ञा का पालन, उपासना और सामर्थ्य को बढ़ाया करें। किया हुआ कर्म निष्फल नहीं होता, ऐसा मान कर धर्म में रुचि और अधर्म में अप्रीति किया करें॥१५॥

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    पदार्थ


    पदार्थ = हे  ( क्रतो ) = कर्मकर्ता जीव! शरीर छूटते समय तू  ( ओ३म् ) = इस मुख्य नामवाले परमेश्वर का  ( स्मर ) = स्मरण कर।  ( क्लिबे ) = सामर्थ्य के लिए परमात्मा का ( स्मर ) = स्मरण कर ।  ( कृतम् ) = अपने किये का  ( स्मर ) = स्मरण कर ।  ( वायुः ) = यह प्राण अपानादि वायु  ( अनिलम् ) = कारण रूप वायु जो  ( अमृतम् ) = अविनाशी सूत्रात्मारूप है उस को प्राप्त हो जाएगा ।  ( अथ ) = इस के अनन्तर  ( इदम् शरीरम् ) = यह स्थूल शरीर  ( भस्मान्तम् ) = अन्त में भस्मीभूत हो जायगा । 

    भावार्थ


    भावार्थ = शरीर को त्यागते समय पुरुषों को चाहिये कि, परमात्मा के अनेक नामों में सब से श्रेष्ठ जो परमात्मा को प्यारा ओ३म् नाम है, उसका वाणी से जाप और मन से उस के अर्थ सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर का चिन्तन करें। यदि आप,अपने जीवन में उस सबसे श्रेष्ठ परमात्मा के ओ३म् नाम का जाप और मन से उस परम प्यारे प्रभु का ध्यान करते रहोगे तो, आपको मरण समय में भी उसका जाप और ध्यान बन सकेगा। इसलिए हम सब को चाहिये कि ओ३म् का जाप और उसके अर्थ परमात्मा का सदा चिन्तन किया करें, तब ही हमारा कल्याण हो सकता है, अन्यथा नहीं । 

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    विषय

    देह और भौतिक जीवन की वास्तविकता । अन्त समय में 'ओ३म् ' प्रभु का स्मरण ।

    भावार्थ

    ( वायुः ) वायु, प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाग, कूर्म, कृकल, धनंजय आदि ( अनिलम् ) उक्त प्राणों के मूलकारण, वायु तत्व और ( अमृतम् ) अमृत आत्मा यह एक दूसरे के आश्रित हैं। वायु के आश्रय प्राण, प्राणों के आश्रय आत्मा जीवन धारण करता है । (अथ) और पश्चात् (इदम्) यह शरीर ( भस्मान्तम् ) राख हो जाने तक ही है । इसलिये हे (क्रतो) कर्म के कर्त्ता जीव ! और प्रज्ञावान् पुरुष ! अथवा हे संकल्पमय जीव ! तू ( ओ३म् स्मर ) ओं३कार का स्मरण कर | ‘ओ३म्' परमेश्वर का सर्वश्रेष्ठ नाम है और (क्लिवे) अपने भरसक सामर्थ्य और प्रयत्न से साधे हुए लोक की प्राप्ति के लिये (स्मर) अपने अभीष्ट का स्मरण कर । (कृतं स्मर) अपने किये हुए अच्छे बुरे कर्मों का स्मरण कर ।

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    विषय

    शरीर व आत्मा का स्वरूप

    पदार्थ

    १ 'आत्मा' शब्द ' अत्- गतौ' धातु से बना है, इसका ठीक पर्यायवाची शब्द 'वा- गतौ' से बना हुआ 'वायु' है। ये दोनों ही शब्द जीव को उसके स्वभाव की सूचना दे रहे हैं, जैसे अग्नि का स्वभाव उष्णता है, उष्णता के बिना अग्नि कुछ नहीं, इसी प्रकार 'जीव हो और गतिशील न हो' यह नहीं हो सकता। वह तो 'आत्मा' है, वह 'वायु' है। यह आत्मा ('अनिलम्') = [न+इला] पार्थिव नहीं, भौतिक नहीं। पार्थिव न होने से ही तो यह (अमृतम्) = अविनश्वर है। भौतिक वस्तु नश्वर है, अभौतिक अनश्वर । इस प्रकार संकेत इस बात का भी हो गया है कि यदि हम भौतिकता से ऊपर उठेंगे तो मृत्यु से भी बच पाएँगे। साथ ही यह अनुभव सिद्ध बात है कि अति भोजन हमें लेटने के लिए बाधित करता है, मित भोजन हमारे जीवन में स्फूर्ति का कारण बनता है, एवं 'वायु' और 'अमृतम्' के बीच में पड़ा हुआ ' अनिलम्' शब्द दोनों बातों का संकेत कर रहा है कि [क] अपार्थिवता, अभौतिकता हमें अधिक क्रियाशील बनाती है, और [ख] यही अभौतिकता हमें मृत्यु से भी बचाती है। २. 'हमारी प्रवृत्ति भौतिक न हो' इसके लिए शरीर के स्वरूप का चिन्तन कितना सहायक हो जाता है ? अतः मन्त्र में कहते है (अथ) = आत्मा अमर है तो, अब (इदम् शरीरम्) = यह शरीर (भस्मान्तम्) = भस्मरूप परिणामवाला है। इस मिट्टी में मिल जानेवाले शरीर के भोगों के लिए ऐसा लालायित क्यों होना? जिसने साथ नहीं देना उसके लिए इतना भी क्या हाथ-पैर मारना ? ३. हे (क्रतो) = [क्रतु यज्ञ, क्रतु = Power] = यज्ञादि कर्मों के द्वारा शक्ति का सञ्चय करनेवाले जीव (ओ३म् स्मर) = तू उस रक्षक प्रभु का स्मरण कर इसका स्मरण ही तुझे भोगों में फँसने से बचने की शक्ति देगा । (क्लिबे स्मर) = तू इसलिए स्मरण कर क्योंकि तुझे शक्ति प्राप्त हो। 'क्लृपू सामर्थ्ये' से बना 'क्लिब्' शब्द सामर्थ्य का वाचक है। प्रभु स्मरण से शक्ति प्राप्त होती है। आचार्य दयानन्द प्रातः सायं दोनों समय प्रभु से अपना सम्पर्क स्थापित करके अपने जीवन की बैटरी को फिर से भर लेते थे। इस शक्ति को प्राप्त करके तू अपने (कृतम्) = [नपुंसके भावे क्तः] = कर्त्तव्य-कर्म का (स्मर) = स्मरण कर । 'प्रभु स्मरण से शक्ति, शक्ति से कर्म' यह है क्रम जो इस कार्यकारणभाव को स्पष्ट कर रहा है। हमने अधिकार चर्चाएँ नहीं करनी, कर्त्तव्य का ही स्मरण करना है। हमारा तो वस्तुतः अधिकार भी कर्त्तव्य- स्मरणमात्र है।

    भावार्थ

    भावार्थ- आत्मा की अपार्थिवता को और शरीर की भस्मान्तता को स्मरण करें, जिससे हमारा जीवन भोगप्रधान न हो। प्रभु का स्मरण करें, जिससे शक्ति प्राप्त करके अपने कर्त्तव्य को सुचारुरूपेण निभा सकें।

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    मन्त्रार्थ

    (वायुः) बाह्य वायु (अनिलम्) आन्तरिक वायु अर्थात् प्राणशक्ति को धारण करता है । और वह (अमृतम्) मरण धर्म रहित अमर जीवात्मा को धारण करता है (अथ) अनन्तर ऐसा संगठन न रहने पर किसी एक का भी अभाव हो जाने पर (शरीरं भस्मान्तम्) शरीर भस्मान्त है-भस्म अर्थात् नाश हो जाना है अन्त में जिसका ऐसा नश्वर है । अतः (क्रतो) हे क्रियाशील एवं प्रज्ञावान् जीव ! तू (ओ३म् स्मर) ओ३म् का स्मरण कर (क्लिवे स्मर) अपने सामर्थ्य के निमित स्मरण कर अपने को समझ ( कृतं स्मर ) किए हुए और कर्त्तव्य का भी स्मरण कर ॥१५॥

    विशेष

    "आयुर्वै दीर्घम्” (तां० १३।११।१२) 'तमुग्राकांक्षायाम्,' (दिवादि०) "वस निवासे" (स्वादि०) "वस आच्छादने" (अदादि०) श्लेषालङ्कार से दोनों अभीष्ट हैं। आवश्यके ण्यत् "कृत्याश्च" (अष्टा० ३।३।१७१)

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    मृत्यूच्या वेळी माणसाची जशी चित्तवृत्ती असेल व शरीरापासून आत्मा वेगळा व्हावयाचा असतो. त्यावेळची स्थिती माणसांनी जाणावी मृत्यूनंतर शरीराची दहनक्रिया करावी. दहन केल्यानंतर शरीराचा कोणताही संस्कार करू नये. या जन्मात एका परमेश्वराची आज्ञा पालन करून व उपासना करून आपले सामर्थ्य वाढवावे. केलेले कर्म कधीच निष्फळ होत नाही. असे जाणून धर्मामध्ये रूची व अधर्मामध्ये अरूची असावी.

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    विषय

    देहांत होतेवेळी प्राण शरीर सोडून जाताना काय करावे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (क्रतो) कर्म करणार्‍या जीवात्मा, तू शरीरत्याग करतेवेळी (ॐ) या ईश्‍वरनामाचे (स्मर) स्मरण कर. (विलबे) (या कठिण प्रसंगी धैर्य व शांतीसाठी) आपल्या नित्य आत्मस्वरूपाचे आणि परमेश्‍वराचे (स्मर) स्मरण कर (कृतम्) केलेल्या कर्मांचे (स्मर) स्मरण कर. या अंत्येष्टि संस्काराच्या वेळी (वायुः) धनंजय आदीरूप वायू (अनिलम्) कारणरूप वायूला आणि तो कारणरूप वायू (अमृतम्) अविनाशी कारण (म्हणजे प्रकृती) याला जाऊन मिळतो (अथ) यानंतर (इदम्) हे (शरीरम्) सुख भोगण्याचे साधन हे नाशवान शरीर (भस्मान्तम्) अन्ततः भस्म हाणार आहे, हे तू ध्यानात असू दे. ॥15॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मृत्युसमयी जशी चित्तवृत्ती असते आणि शरीराहून वेगळे होते वेळी आत्म्याची जी पृथक्वृत्ती असते, तशी वृत्ती (स्मशानात उपस्थित जनांची) असावी (म्हणजे शांती, वैराग्य, ईशस्मरण आदी सर्वांनी करीत असावे.) मृतदेहाचा दहन विधी भस्म होईपर्यंत करावा. यानंतर शरीरावर करण्याचा कोणताही संस्कार शेष नाही (अंत्येष्टि-संस्कार हा मानवदेहाचा अंतिम संस्कार आहे.) अशाने की (अंत्येष्टि-संस्कारप्रसंगी केवळ ईश्‍वराज्ञेचे पालन करावे, त्याची उपासना करावी, शोक सहन करण्यासाठी आपले सामर्थ्य (मनोबल) वाढवावे. केलेले सत्कर्म निष्फळ होत नाहीत, हे लक्षात ठेऊन धर्माविषयी प्रीती आणि अधर्माविषयी अप्रीती भाव ठेवावा ॥15॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O active soul, at the time of death, remember Om, remember God for thy vitality and thy eternity, remember thy deeds. Know that soul is immaterial and immortal but the body is finally reduced to ashes.

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    Meaning

    The end of the body is ash. The prana-vayu merges with the cosmic energy. And this soul is immortal. O soul, remember Om, Supreme Soul of Existence. Agent of Karma, remember your karma. Remember both these to realise your real form and potential.

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    Translation

    Breaths go out to mix with the elemental air; the soul is immortal and the body is to end in ashes. Om. Now O sacrificer, think; think of the world full of enjoyments and think of the deeds you have done. (1)

    Notes

    Idam amṛtam, this (the soul) is immortal. Śarīram bhasmāntam, the body is reduced to ashes in the end. Krato smara, कर्त: स्मर, Oman, who has acted throughout his life, think or remember. Also, O sacrificer. Klibe, कल्प्यते भोगाय इति क्लृप् लोकः, the worid full of enjoyments. Krtain, whatever good or bad you have done; your virtues and vices.

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    बंगाली (2)

    विषय

    অথ দেহান্তসময়ে কিং কার্য়্যমিত্যাহ ॥
    এখন দেহান্তের সময় কী করা উচিত, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (ক্রতো) কর্মশীল জীব । তুমি শরীর ত্যাগ করার সময় (ও৩ম্) এই নামবাচ্য ঈশ্বরকে (স্মর) স্মরণ কর, (ক্লিবে) নিজের সামর্থ্য হেতু পরমাত্মা এবং নিজের স্বরূপের (স্মর) স্মরণ কর (কৃতম্) নিজের কৃত কর্ম্মের (স্মর) স্মরণ কর । এই সংস্কারের (বায়ুঃ) ধনঞ্জয়াদিরূপ বায়ু (অনিল) কারণরূপ বায়ুকে, কারণরূপ বায়ু (অমৃতম্) অবিনাশী কারণকে ধারণ করে (অথ) (ইদম্) এই (শরীরম্) নষ্ট হইবার সুখাদির আশ্রয় শরীর (ভস্মান্তম্) অন্তে ভস্ম হইয়া যায়, এইরকম জানিবে ॥ ১৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, যেমন মৃত্যু সময়ে চিত্তের বৃত্তি হইয়া থাকে এবং শরীর হইতে আত্মার পৃথক হইয়া থাকে সেইরূপ এই সময়কেও জানিবে । এই শরীর দাহ পর্য্যন্ত ক্রিয়া করিবে । দাহ করিবার পশ্চাৎ কোন সংস্কার করিবে না । বর্ত্তমান সময়ে এক পরমেশ্বরেরই আজ্ঞা পালন, উপাসনা এবং স্বীয় সামর্থ্যের বৃদ্ধি করিবে । কৃত কর্ম্ম নিষ্ফল হয় না এমন মানিয়া ধর্মে রুচি এবং অধর্মে অপ্রীতি করিতে থাকিবে ॥ ১৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    বা॒য়ুরনি॑লম॒মৃত॒মথে॒দং ভস্মা॑ন্ত॒ꣳ শরী॑রম্ ।
    ও৩ম্ ক্রতো॑ স্মর । ক্লি॒বে স্ম॑র । কৃ॒তꣳ স্ম॑র ॥ ১৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    বায়ুরিত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । আত্মা দেবতা । স্বরাডুষ্ণিক্ ছন্দঃ ।
    ঋষভঃ স্বরঃ ॥

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    পদার্থ

    বায়ুরনিলমমৃতমথেদং ভস্মান্তং শরীরম্।

    ও৩ম্ ক্রতো স্মর ক্লিবে স্মর কৃতং স্মরো।।৯৮।।

    (যজুর্বেদ ৪০।১৫)

    পদার্থঃ হে (ক্রতো) কর্মশীল জীব! দেহান্তের সময় (ও৩ম্) ও৩ম্ এই নামবাচ্য ঈশ্বরকে (স্মর) স্মরণ করো। (ক্লিবে) আপন সামর্থ্যকে প্রাপ্তির জন্য পরমাত্মা এবং আপন স্বরূপকে (স্মর) স্মরণ করো, (কৃতম্) আপন কৃত কর্মকে (স্মর) স্মরণ করো। এখানে বিদ্যমান (বায়ুঃ) ধনঞ্জয়াদিরূপ বায়ু (অনিলম্) কারণরূপ বায়ুকে এবং কারণরূপ বায়ু (অমৃতম্) নাশরহিত কারণকে ধারণ করেন। (অথঃ) অতঃপর (ইদম্) এই (শরীরম্) চেষ্টাদির আশ্রয় নশ্বর শরীর  (ভস্মান্তম্) অন্তে ভস্ম হয়, এইরূপ জান।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে মনুষ্য! মৃত্যুকালে ও৩ম্ কে স্মরণ করো, আপন কৃতকর্ম স্মরণ করো। সকলের অন্তে এই অনিত্য শরীর ভস্মীভূত হয়ে যাবে, সমগ্র বায়ুর সাথে মিলিয়ে যাবে নাশরহিত প্রাণবায়ু। ভস্মসাৎ ক্রিয়ার পর এই শরীরের কোন সংস্কার-কর্তব্য আর বাকি থাকে না। জীবনভর সেই এক পরমেশ্বরের আজ্ঞা পালন করবে, তাঁর উপাসনা এবং নিজ সামর্থ্যকে বৃদ্ধি করবে। কৃত কর্ম কখনো বিফল হবে না এরূপ বুঝে ধর্মের পথে রুচি এবং অধর্মে অপ্রীতি রাখবে।।৯৮।।

     

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