यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 5
ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः
देवता - आत्मा देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
622
तदे॑जति॒ तन्नैज॑ति॒ तद् दू॒रे तद्व॑न्ति॒के।तद॒न्तर॑स्य॒ सर्व॑स्य॒ तदु॒ सर्व॑स्यास्य बाह्य॒तः॥५॥
स्वर सहित पद पाठतत्। ए॒ज॒ति॒। तत्। न। ए॒ज॒ति॒। तत्। दू॒रे। तत्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। अ॒न्ति॒के ॥ तत्। अ॒न्तः। अ॒स्य॒। सर्व॑स्य। तत्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। सर्व॑स्य। अ॒स्य॒। बा॒ह्य॒तः ॥५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके । तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सरवस्यास्य बाह्यतः ॥
स्वर रहित पद पाठ
तत्। एजति। तत्। न। एजति। तत्। दूरे। तत्। ऊँऽइत्यँू। अन्तिके॥ तत्। अन्तः। अस्य। सर्वस्य। तत्। ऊँऽइत्यँू। सर्वस्य। अस्य। बाह्यतः॥५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
विदुषां निकटेऽविदुषां च ब्रह्म दूरेऽस्तीत्याह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! तद् ब्रह्मैजति तन्नैजति तद् दूरे तद्वन्तिके सर्वस्यान्तस्तदु सर्वस्याऽस्य बाह्यतो वर्त्तत इति निश्चिनुत॥५॥
पदार्थः
(तत्) (एजति) कम्पते चलति मूढदृष्ट्या (तत्) (न) (एजति) कम्पते कम्प्यते वा (तत्) (दूरे) अधर्मात्मभ्योऽविद्वद्भ्योऽयोगिभ्यः (तत्) (उ) (अन्तिके) धर्मात्मनां विदुषां योगिनां समीपे (तत्) (अन्तः) आभ्यन्तरे (अस्य) (सर्वस्य) अखिलस्य जगतो जीवसमूहस्य वा (तत्) (उ) (सर्वस्य) समग्रस्य (अस्य) प्रत्यक्षाऽप्रत्यक्षात्मकस्य (बाह्यतः) बहिरपि वर्त्तमानः॥५॥
भावार्थः
हे मनुष्याः! तद्ब्रह्म मूढदृष्टौ कम्पत इव तत्स्वतो व्यापकत्वात् कदाचिन्न चलति, ये तदाज्ञाविरुद्धास्ते इतस्ततो धावन्तोऽपि तन्न विजानन्ति। ये चेश्वराज्ञानुष्ठातारस्ते स्वात्मस्थमतिनिकटं ब्रह्म प्राप्नुवन्ति, यद्ब्रह्म सर्वस्य प्रकृत्यादेर्बाह्याऽभ्यन्तरावयवानभिव्याप्य सर्वेषां जीवानामन्तर्यामिरूपतया सर्वाणि पापपुण्यात्मककर्माणि विजानन् याथातथ्यं फलं प्रयच्छत्येतदेव सर्वैर्ध्येयमस्मादेव सर्वैर्भेतव्यमिति॥५॥
हिन्दी (6)
विषय
विद्वानों के निकट और अविद्वानों के ब्रह्म दूर है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! (तत्) वह ब्रह्म (एजति) मूर्खों की दृष्टि से चलायमान होता (तत्) (न, एजति) अपने स्वरूप से न चलायमान और न चलाया जाता (तत्) वह (दूरे) अधर्मात्मा अविद्वान् अयोगियों से दूर अर्थात् क्रोड़ों वर्ष में भी नहीं प्राप्त होता (तत्) वह (उ) ही (अन्तिके) धर्मात्मा विद्वान् योगियों के समीप (तत्) वह (अस्य) इस (सर्वस्य) सब जगत् वा जीवों के (अन्तः) भीतर (उ) और (तत्) वह (अस्य, सर्वस्य) इस प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्षरूप के (बाह्यतः) बाहर भी वर्त्तमान है॥५॥
भावार्थ
हे मनुष्यो! वह ब्रह्म मूढ़ की दृष्टि में कम्पता जैसा है, वह आप व्यापक होने से कभी नहीं चलायमान होता, जो जन उसकी आज्ञा से विरुद्ध हैं, वे इधर-उधर भागते हुए भी उसको नहीं जानते और जो ईश्वर की आज्ञा का अनुष्ठानवाले वे अपने आत्मा में स्थित अति निकट ब्रह्म को प्राप्त होते हैं, जो ब्रह्म सब प्रकृति आदि के बाहर-भीतर अवयवों में अभिव्याप्त हो के अन्तर्यामिरूप से सब जीवों के सब पाप पुण्यरूप कर्मों को जानता हुआ यथार्थ फल देता है, वही सबको ध्यान में रखना चाहिये और इसी से सबको डरना चाहिये॥५॥
पदार्थ
पदार्थ = ( तद् एजति ) = वह ब्रह्म मूर्खों की दृष्टि से चलायमान होता है। ( तत् ) = वह ब्रह्म ( न एजति ) = अपने स्वरूप से कभी चलायमान नहीं होता अथवा ( तत् एजति ) = वह ब्रह्म 'एजयति' समग्र ब्रह्माण्ड को चला रहा है, आप चलायमान नहीं होता । ( तत् दूरे ) = वह अज्ञानी मूर्ख दुराचारी पुरुषों से दूर है, ( तत् उ अन्तिके ) = वह ही ब्रह्म विद्वान् सदाचारी महापुरुषों के समीप है, ( तत् ) = वह ( अस्य सर्वस्य ) = इस समस्त ब्रह्माण्ड और सब जीवों के ( अन्तः ) = भीतर ( तत् उ ) = वह ही ब्रह्म ( अस्य सर्वस्य ) = इस जगत् के और सब जीवों के ( बाह्यत: ) = बाहिर भी वर्त्तमान है, क्योंकि वह सर्वत्र व्यापक है ।
भावार्थ
भावार्थ = वह परमात्मा अज्ञानी मूर्खों की दृष्टि से चलता है,वास्तव में वह सब जगत् को चला रहा है, आप कूटस्थ निर्विकार अटल होने से कभी स्व स्वरूप से चलायमान नहीं होता । जो अज्ञानी पुरुष, परमेश्वर की आज्ञा के विरुद्ध हैं, वे इधर-उधर भटकते हुए भी उसको नहीं जानते । जो विवेकी पुरुष ईश्वर की वैदिक आज्ञा के अनुसार अपने जीवन को बनाते, सदा वेदों का और वेदानुकूल उपनिषदादिकों का विचार करते, उत्तम महात्माओं का सत्संग और उनकी प्रेमपूर्वक सेवा करते हैं, वे अपने आत्मा में अति समीप ब्रह्म को प्राप्त होकर, सदा आनन्द में रहते हैं। परमात्मदेव को सब जगत् के अन्दर बाहिर व्यापक सर्वज्ञ सर्वान्तर्यामी जानकर कभी कोई पाप न करते हुए, उस प्रभु के ध्यान से अपने जन्म को सफल करना चाहिए ।
विषय
स्तुतिविषयः
व्याखान
(तद् [ब्रह्म] एजति) वह परमात्मा सब जगत् को यथायोग्य अपनी-अपनी चाल पर चला रहा है सो अविद्वान् लोग ईश्वर में भी आरोप करते हैं कि वह भी चलता होगा, परन्तु वह सबमें पूर्ण है, कभी चलायमान नहीं होता, अतएव (तन्नैजति) [यह प्रमाण है], स्वतः वह परमात्मा कभी नहीं चलता, एकरस निश्चल होके भरा है, विद्वान् लोग इसी रीति से ब्रह्म को जानते हैं (तद् दूरे) अधर्मात्मा, अविद्वान्, विचारशून्य, अजितेन्द्रिय, ईश्वरभक्तिरहित इत्यादि दोषयुक्त मनुष्यों से वह ईश्वर बहुत दूर है, अर्थात् वे कोटिकोटि वर्ष तक उसको प्राप्त नहीं होते, वे तब तक जन्ममरणादि दुःखसागर में इधर-उधर घूमते-फिरते हैं कि जब तक उसको नहीं जानते (तद्वन्तिके) सत्यवादी, सत्यकारी, सत्यमानी, जितेन्द्रिय, सर्वजनोपकारक, विद्वान्, विचारशील पुरुषों के वह (अन्तिके) अत्यन्त निकट है, (तद् अन्तरस्य सर्वस्य) किंच वह सबके आत्माओं के बीच में व्यापक अन्तर्यामी होके सर्वत्र पूर्ण भर रहा है, वह आत्मा का भी आत्मा है, क्योंकि (तदु सर्वास्यास्य बाह्यतः) परमेश्वर सब जगत् के भीतर और बाहर तथा मध्य, अर्थात् एक तिलमात्र भी उसके बिना खाली नहीं है। वह अखण्डैकरस सबमें व्यापक हो रहा है, उसी को जानने से ही सुख और मुक्ति होती है, अन्यथा नहीं ॥ १२ ॥
विषय
आत्मा का स्वरूप ।
भावार्थ
(तत् एजति) वह क्रिया करता है (तत् न एजति) वह क्रिया नहीं करता । वह स्वयं कूटस्थ, निष्क्रिय होकर समस्त ब्रह्माण्ड को गति दे रहा है । (तत् दूरे) वह अधर्मात्मा, अविद्वान् पुरुषों से दूर है । (तत् उ अन्तिके ) वह ही धर्मात्मा और विद्वानों के समीप है । (तत्) बह (अस्य सर्वस्य) इस समस्त जगत् और जीवों के (अन्तः) भीतर, (तत्) वह ही और (अस्य सर्वस्य ) इस समस्त जगत् के (बाह्यतः) बाहर भी वर्तमान है। वह सर्वव्यापक है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आत्मा । अनुष्टुप् । गांधरः ॥
विषय
वह परावर प्रभु [ अन्दर भी, बाहर भी], दूर भी, समीप भी
पदार्थ
१. प्रस्तुत मन्त्र प्रभु की सर्वव्यापकता का प्रतिपादन करता हुआ काव्य की दृष्टि से विरोधाभास अलंकार का बड़ा सुन्दर उदाहरण है। (तत्) = वह प्रभु (एजति) = गति करता है और (तत् न एजति) = वे प्रभु गति नहीं कर रहे हैं। ये दोनों वाक्य परस्पर विरोधी अर्थवाले प्रतीत होते हैं, परन्तु यह विरोध का आभास नष्ट हो जाता है जब प्रथम वाक्य को प्रेरणार्थक धातु मानकर अर्थ यह कर देते हैं कि प्रभु सारे ब्रह्माण्ड को गति दे रहे हैं [एजति = एजयति ] । शरीर चलता प्रतीत होता है, परन्तु यह सब गति अन्तःस्थित आत्मतत्व के ही कारण है, अतः आत्मा ही तो गति दे रहा है। इसी प्रकार सारे ब्रह्माण्ड की आत्मा वे प्रभु हैं, उन्हीं से यह सारी गति दी जा रही है, परन्तु सर्वव्यापक होने के नाते वे स्वयं गतिशून्य हैं। वे कहाँ जाएँ और कहाँ आएँ, वे तो पहले से ही सब स्थानों में विद्यमान हैं । २. (तद् दूरे) = वे प्रभु दूर से दूर हैं (तत् अन्तिके) = और वे समीप से समीप हैं। दूर भी है, समीप भी। इस प्रकार विरोध का आभास होता है, परन्तु अभिप्राय इतना ही है कि सर्वव्यापक होने के कारण हम कल्पना से जितनी भी दूर पहुँच सकते हैं, प्रभु वहाँ हैं ही और हमारे अन्दर भी होने से समीप से समीप भी हैं। पर से पर तथा अवर-से-अवर होने से ही प्रभु का नाम 'परावर' है । ३. (तत्) = वे प्रभु अस्य (सर्वस्य) = इस सारे ब्रह्माण्ड के (अन्त:) = अन्दर हैं और (तत् उ) = वे प्रभु (अस्य सर्वस्य) = इस सारे जगत् के (बाह्यतः) = बाहर भी हैं। अन्दर होते हुए वे प्रभु अन्तर्यामी हैं तथा बाहर होने से सबको आच्छादित करके सुरक्षित कर रहे हैं। अन्दर -व्याप्ति की भावना 'वस निवासे' धातु द्वारा 'ईशावास्यम्' शब्दों में व्यक्त हुई है तथा 'वस् आच्छादने' धातु से गर्भ में सुरक्षित रखने की भावना व्यक्त हो रही है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु दूर से दूर व समीप से समीप हैं, अन्दर व बाहर सर्वत्र व्याप्त हैं।
मन्त्रार्थ
(तत्-एजति) वह ब्रह्म गति करता है- विभु गति करता है (तत्-न-एजति) वह गति नहीं करता है- एकदेशी गति नहीं करता है (तत्-दूरे) वह दूर है विभु होने से (तत्-उ-अन्तिके) वह ही समीप है (तत्-अस्य सर्वस्य-अन्तः) वह इस सब प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष जगत् के अन्दर है (तत्-उ-अस्य सर्वस्य बाह्यतः) वह ही इस सब प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष जगत् के बाहिर भी है ॥५॥
टिप्पणी
ये के च = ये केश्चन = ये केचित् । यहां 'च' 'चन' के अर्थ में है । इस मन्त्र का देवता ब्रह्म होने से मन्त्र में अभीष्ट ब्रह्म है । “अपः कर्मनाम” (निघं० २।१)
विशेष
"आयुर्वै दीर्घम्” (तां० १३।११।१२) 'तमुग्राकांक्षायाम्,' (दिवादि०) "वस निवासे" (स्वादि०) "वस आच्छादने" (अदादि०) श्लेषालङ्कार से दोनों अभीष्ट हैं। आवश्यके ण्यत् "कृत्याश्च" (अष्टा० ३।३।१७१)
मराठी (3)
भावार्थ
हे माणसांनो ! ब्रह्म हे मूर्खाच्या दृष्टीने चलायमान असते. वास्तविक सर्वव्यापक असल्यामुळे ते कधीही चलायमान होत नाही. जे लोक त्याच्या आज्ञेविरुद्ध इकडे-तिकडे भटकतात ते त्याला जाणू शकत नाहीत व जे ईश्वराच्या आज्ञेचे पालन करतात ते आपल्या आत्म्यात अतिनिकट स्थित असलेल्या ब्रह्माला प्राप्त करतात. ब्रह्म प्रकृतीच्या आत व बाहेर व्याप्त असून अंतर्यामी रूपाने सगळ्या जीवांचे सर्व पाप पुण्यरूपी कर्म जाणून यथार्थ फळ देते हे सर्वांनी लक्षात ठेवले पाहिजे व सर्वांना त्याचेच भय वाटले पाहिजे.
विषय
ब्रह्म विद्वांनाच्याजवळ असून अविद्वानांपासून दूर आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यानो, (जाणून घ्या की) (तत्) तो ब्रह्म (एजति) अज्ञानी लोकांच्या दृष्टीने (चल वा इकडे-तिकडे चालणारा) असेल, पण वस्तुतः (तत्) तो (न, एजति) स्वस्वरुपाने चलायमान नाही आणि कोणी त्याला चालवू शकत नाही. (तत्) तो परब्रह्म अधर्मात्मा अविद्वान अयोगी लोकांपासून अति अति दूर म्हणजे कोटी कोटी वर्षात देखील ते त्याला प्राप्त करू शकत नाहीत (कारण तो ज्ञानगम्य आहे आणि मूर्खांजवळ ज्ञानाचा अभाव असतो.) (तत्) (उ) पण तोच परब्रह्म (अन्तिके) विद्वानांच्या अतिसमीप असतो (ते ज्ञानाद्वारे हृद्यस्थ ईश्वराला साक्षात करतात) (वत्) तो (अस्य) याच्या (या मनुष्याच्या म्हणणे) (सर्वस्य) सर्व प्राण्यांच्या व सर्व सृष्टीच्या (अन्तः) मध्ये (उ) आणि (तत्) तो (अस्य, सर्वस्य) या प्रत्यक्ष वा परोक्ष जगाच्या (बाह्यतः) बाहेरदेखील विद्यमान आहे ॥5॥
भावार्थ
भावार्थ - हे मनुष्यानो, तो परब्रह्म मूर्खाच्या विचारात ??दित वा चलायमान आहे (म्हणजे मूर्खजन त्याला तसा मानतात) पण वस्तुला तो सर्वव्यापक असल्यामुळे चलायमान नाही. जे लोक त्याच्या आज्ञेविरुद्ध वागतात, ते इकडे-तिकडे व्यर्थ भटकतात आणि त्या परब्रह्माला जाणु शकत नाहीत. याउलट जे ईश्वराच्या आज्ञेप्रमाणे वागणारे आहेत, ते आपल्या आत्म्यात विद्यमान अतिनिकटस्थित ईश्वराला प्राप्त करतात. जो ब्रह्म प्रकृती आदीच्या आत-बाहेर सर्व अवयवांत व्याप्त असून, अंतर्यामी असल्यामुळे सर्व जीवांची पाप-पुण्यकर्में जाणतो व त्यांचे यथोचित फळ देतो, त्याचेच सर्वांनी ध्यान केले पाहिजे आणि वाईट कर्म करताना त्यापासून भीती बाळगली पाहिजे. ॥5॥
विषय
प्रार्थना
व्याखान
(तद् एजति) परमेश्वर सर्व जगाला आपल्या गतीने यथायोग्य रीतीने चालवित आहे. म्हणून अविद्वान लोक ईश्वरावर आरोप करतात की तो चलायमान आहे परंतु तो सर्वांमध्ये परिपूर्ण भरलेला आहे व कधीही चलायमान होत नाही. म्हणून (तन्नैजति) परमेश्वर स्वतः कधीही चलायमान होत नाही. तो पारस व निश्चल असतो. विद्वान लोक ब्रह्माला याप्रकारेच मानतात व जाणतात. (तद् दूरे) धर्महीन, विद्वत्ताशून्य, विचारशून्य, अजितेन्द्रिय ईश्वरभक्ति रहीत इत्यादी दोषांनी युक्त असलेल्या मनुष्यांपासून ईश्वर फार दूर असतो. करोडो वर्ष लोटली तरी तो त्याला जाणत नाहीत व तोपर्यंत ती माणसे दुःखसागरात जन्म मरणाच्या चक्रात फिरत असतात. (तद्वन्तिके) परमात्मा सत्यवादी, सत्यकारी, सत्यजानी, जितेन्द्रीये सर्व लोकांचा उपकारकर्ता असून विद्वान विचारशील पुरुषांच्या (अन्तिके) अत्यंत निकट असतो. तो सर्व आत्म्यांमध्ये असतो. अन्तर्यामी व्यापक असून सर्वत्र भरलेला आहे. तो आत्म्यांचाही आत्मा आहे. कारण तो सर्व जगाच्या आत बाहेर व मध्ये सगळीकडे आह त्याच्या विना तिळमात्र स्थान रिक्त नसते. तो अखंड एकरस सर्वामध्ये व्यापक आहे. त्याला जाणणाऱ्यालाच सुख व मुक्ती मिळू शकते अन्यथा नाही. ॥१२॥
इंग्लिश (4)
Meaning
God moves in the eyes of fools. He is motionless. He is far distant from the irreligious and ignorant, and near the yogis. He is within this entire universe, and surrounds it externally.
Meaning
It moves, yet It does not move, (being omnipresent). It is at the farthest of space, even farther, and It is at the nearest. It is within this all, and surely It is outside of all this.
Purport
God motivates the whole world, i.e. the earth and all the planets in a befitting manner on their own courses. But the ignorant wrongly attributes motion in Him also [Think that God also moves], though He pervades the whole world. He is Omnipresent, therefore, He Himself never moves. 'He Himself is unmoved, unchangeable, firm and prevalent everywhere', the wise learned. men think in this way about the Supreme Lord. That God is far away from those people whose life is full with blemishes, who are unrighteous, ignorant, thoughtless, devoid of selfrestraint and devotion to Him. They cannot realise Him even after millions and millions of years. Unless they realise Him, they are born and die and wander in vain hither and thither in the ocean of miseries. He is extremly e who are truthful, truth-loving, selfclose [near] to those who are restrained, beneficial for all, learned and thoughtful persons. Moreover, being immanent he pervades in the souls of all and is existent everywhere, because that Almighty God is inside, outside and in the middle of the whole world, so much so that the space like a sesame grain is not free from Him-His presence. He is the Soul of souls. Even without the slightest change in total uniformity, He is pervading all. By knowing [realising] Him alone, man can attain worldy happiness and salvation, there is no other way.
Translation
It moves, but still it moves not. It is far away, even then it is very close. It is within all; it encompasses all this universe on the outer side as well. (1)
Notes
Again the contradictions to emphasize His unique na ture. To the ignorant He seems moving; wise one knows that He is unmoving; etc.
बंगाली (2)
विषय
বিদুষাং নিকটেऽবিদুষাং চ ব্রহ্ম দূরেऽস্তীত্যাহ ॥
বিদ্বান্দিগের নিকটে এবং অবিদ্বান্দিগের ব্রহ্ম দূরে অবস্থান করে এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! (তৎ) সেই ব্রহ্ম (এজতি) মুর্খদের দৃষ্টিতে চলায়মান হয় (তৎ) (ন, এজতি) নিজ স্বরূপে না চলায়মান এবং না চালিত হয়, (তৎ) সে (দূরে) অধর্মাত্মা অবিদ্বান্ অযোগীদের হইতে দূরে অর্থাৎ কোটি বৎসরেও প্রাপ্ত হয় না । (তৎ) সে (উ) ই (অন্তিকে) ধর্মাত্মা বিদ্বান্ যোগিদের সমীপ (তৎ) সে (অস্য) এই (সর্বস্য) সব জগৎ বা জীবদেরকে (অন্তঃ) ভিতরে (উ) এবং (তৎ) সে (অস্য, সর্বস্য) এই প্রত্যক্ষ এবং অপ্রত্যক্ষ জগতের (বাহাতঃ) বাহিরেও বর্ত্তমান ॥ ৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! সেই ব্রহ্ম মূঢের দৃষ্টিতে কম্পমান । তিনি স্বয়ং ব্যাপক হওয়ায় কখনও চলায়মান হয় না, যাহারা তাহার আজ্ঞার বিরুদ্ধ তাহারা ইতস্ততঃ ধাবমান হইয়াও তাঁহাকে জানিতে পারে না এবং যাহারা ঈশ্বরের আজ্ঞার অনুষ্ঠান করে, তাহারা স্বীয় আত্মায় স্থিত অতি নিকট ব্রহ্মকে প্রাপ্ত করে, যে ব্রহ্ম সব প্রকৃতি আদির বাহির-ভিতর অবয়বসকলে অভিব্যাপ্ত হইয়া অন্তর্য্যামীরূপে সব জীবদের সকল পাপপুণ্যরূপ কর্ম্মকে জানিয়া যথার্থ ফল দান করে তাহাই সকলকে লক্ষ্য রাখা উচিত এবং ইহাকে সকলের ভয় করা উচিত ॥ ৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
তদে॑জতি॒ তন্নৈজ॑তি॒ তদ্ দূ॒রে তদ্ব॑ন্তি॒কে ।
তদ॒ন্তর॑স্য॒ সর্ব॑স্য॒ তদু॒ সর্ব॑স্যাস্য বাহ্য॒তঃ ॥ ৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
তদেজতীত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । আত্মা দেবতা । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
পদার্থ
তদেজতি তন্নৈজতি তদ্দূরে তদ্বন্তিকে ।
তদন্তরস্য সর্বস্য তদু সর্বস্যাস্য বাহ্যতঃ ।। ৮৮।।
(যজু, ৪০।০৫)
পদার্থঃ হে মানুষ ! (তৎ) সেই ব্রহ্ম (এজতি) মূর্খের দৃষ্টিতে চলমান হন, (তৎ) তিনি (ন) না (এজতি) চলেন এবং না কেউ তাকে চালনা করতে পারে । (তৎ) তিনি (দূরে) অধার্মিক-অবিদ্বান-অযোগীদের থেকে দূরে, (তৎ) তিনি (উ) নিশ্চয়ই (অন্তিকে) ধার্মিক-বিদ্বান-যোগীদের নিকটে । (তৎ) ব্রহ্ম (অস্য) এই (সর্বস্য) সমস্ত জগত এবং জীবের (অন্তঃ) মধ্যে বিরাজমান (তৎ) তিনি (উ) নিশ্চয়ই (অস্য) এই প্রত্যক্ষ-অপ্রত্যক্ষ জগতের (বাহ্যতঃ) বাইরেও বিরাজমান, এটা নিশ্চিৎ জানো ।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ হে মনুষ্য! এই ব্রহ্ম চলে, এরূপ মূঢ়েরা মনে করে। তিনি সর্বব্যাপক হওয়ায় আপন স্বরূপ থেকে না তিনি চলায়মান হন, না কেউ তাঁকে চালনা করতে পারে। তিনি সর্বদা ধ্রুব। যেসব ব্যক্তি তাঁর আজ্ঞার বিরুদ্ধ আচরণ করে, তাঁরা তাকে প্রাপ্তির জন্য এখানে সেখানে গমন করেও তাঁকে জানতে পারে না। আর যে ব্যক্তিরা ঈশ্বরের আজ্ঞার অনুসারে আচরণ করেন, তাঁরা অতি নিকট আপন আত্মাতে স্থিত ব্রহ্মকে প্রাপ্ত হন। অজ্ঞানী মূর্খের কাছে তিনি বহু দূরে আর জ্ঞানী ব্যক্তির তিনি অতি নিকটে। পরমব্রহ্ম সমস্ত প্রকৃতি আদির বাইরে এবং ভেতরের অবয়বে ব্যাপক হয়ে সকল জীবের অন্তর্যামী রূপে সকলের মধ্যেই বিচরণ করেন।।৮৮।।
नेपाली (1)
विषय
स्तुतिविषयः
व्याखान
तद् ब्रह्म एजति = तद् त्यो ब्रह्म परमात्मा ले सबै जगत् लाई आफ्नो-आफ्नो यथायोग्य चाल मा चलाई रहेछ, एसमा अविद्वान् हरु ईश्वर माथि पनि आरोप लाउँछन् कि ऊ पनि चलायमान होला, परन्तु ऊ सबैमा पूर्ण छ । कहिले पनि चलायमान हुँदैन । अत एव तन्नैजति= [यो प्रमाण छ] स्वतः त्यो परमात्मा कहिल्यै पनि गति गर्दैन, एकरस निश्चल भएर भरिएको छ, विद्वान् हरु एसै गरी ब्रह्म लाई जान्द छन् । तद् दूरे= अधर्मात्मा, अविद्वान्, विचार शून्य, अजितेन्द्रिय, ईश्वर भक्ति रहित इत्यादि दोषयुक्त मानिस हरु भन्दा त्यो ईश्वर धेरै टाढा छ अर्थात् तिनि हरु कोटि-कोटि वर्षसम्म पनि उसलाई प्राप्त हुँदैनन् । तिनिहरु तब सम्म जन्म मरणादि दुःख सागर मा भट्कि रहन्छन् जब सम्म उसलाई जान्दैनन् । तद्वन्तिके= सत्यवादी, सत्यकारी, सत्यमानी, जितेन्द्रय, सर्वजन उपकारक, विद्वान् र विचारशील मानिस हरु को ऊ अन्तिके= अत्यन्त निकट छ, तद् अन्तरस्य सर्वस्य- किन कि ऊ सबैका आत्मा भित्र व्यापक अन्तर्यामी भएर सर्वत्र पूर्ण भरि भईरहेको छ। ऊ आत्मा को पनि आत्मा हो किनकि तदु सर्व स्यास्य बाह्यतः= परमेश्वर समस्त जगत् भित्र र बाहिर तथा मध्य अर्थात् एक तिलमात्र पनि ऊ बिना खालि छैन । ऊ अखण्ड एकरस सबैमा व्यापक भई रहे छ, उसैलाई जान्नाले नै सुख तथा मुक्ति हुन्छ, अन्यथा हुँदैन ॥१२॥
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