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यजुर्वेद अध्याय - 40
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  • यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 13
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - आत्मा देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    315

    अ॒न्यदे॒वाहुर्वि॒द्याया॑ऽअ॒न्यदा॑हु॒रवि॑द्यायाः। इति॑ शुश्रुम॒ धीरा॑णां॒ ये न॒स्तद्वि॑चचक्षि॒रे॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न्यत्। ए॒व। आ॒हुः। वि॒द्यायाः॑। अ॒न्यत्। आ॒हुः॒। अवि॑द्यायाः ॥ इति॑। शु॒श्रु॒म॒। धीरा॑णाम्। ये। नः॒। तत्। वि॒च॒च॒क्षि॒रे इति॑ विऽचचक्षि॒रे ॥१३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्यदेवाहुर्विद्यायाऽअन्यदाहुरविद्यायाः । इति शुश्रुम धीराणाँ ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अन्यत्। एव। आहुः। विद्यायाः। अन्यत्। आहुः। अविद्यायाः॥ इति। शुश्रुम। धीराणाम्। ये। नः। तत्। विचचक्षिरे इति विऽचचक्षिरे॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 40; मन्त्र » 13
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ ज[चेतनयोर्विभागमाह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ये विद्वांसो नो विचचक्षिरे विद्याया अन्यदाहुरविद्याया अन्यदेवाहुरिति तेषां धीराणां तद्वचो वयं विजानीत॥१३॥

    पदार्थः

    (अन्यत्) अन्यदेव कार्यं फलं वा (एव) (आहुः) कथयन्ति (विद्यायाः) पूर्वोक्तायाः (अन्यत्) (आहुः) (अविद्यायाः) पूर्वमन्त्रेण प्रतिपादितायाः (इति) (शुश्रुम) श्रुतवन्तः (धीराणाम्) आत्मज्ञानां विदुषां सकाशात् (ये) (नः) अस्मभ्यम् (तत्) विद्याऽविद्याजं फलं द्वयोः स्वरूपं (विचचक्षिरे) व्याख्यातवन्तः॥१३॥

    भावार्थः

    ज्ञानादिगुणयुक्तस्य चेतनस्य सकाशाद्य उपयोगो भवितुं योग्यो न स अज्ञानयुक्तस्य ज[स्य सकाशात् यच्च जडात् प्रयोजनं सिध्यति न तच्चेतनादिति सर्वैर्मनुष्यैर्विद्वत्सङ्गेन विज्ञानेन योगेन धर्माचरणेन चानयोर्विवेकं कृत्वोभयोरुपयोगः कर्त्तव्यः॥१३॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    अब जड़-चेतन का भेद कहते हैं॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! (ये) जो विद्वान् लोग (नः) हमारे लिये (विचचक्षिरे) व्याख्यापूर्वक कहते थे (विद्यायाः) पूर्वोक्त विद्या का (अन्यत्) अन्य ही कार्य वा फल (आहुः) कहते थे (अविद्यायाः) पूर्व मन्त्र से प्रतिपादन की अविद्या का (अन्यत्, एव) अन्य फल (आहुः) कहते हैं (इति) इस प्रकार उन (धीराणाम्) आत्मज्ञानी विद्वानों से (तत्) उस वचन को हम लोग (शुश्रुम) सुनते थे, ऐसा जानो॥१३॥

    भावार्थ

    ज्ञानादि गुणयुक्त चेतन से जो उपयोग होने योग्य है, वह अज्ञानयुक्त जड़ से कदापि नहीं और जो जड़ से प्रयोजन सिद्ध होता है, वह चेतन से नहीं। सब मनुष्यों को विद्वानों के संग, योग, विज्ञान और धर्माचरण से इन दोनों का विवेक करके दोनों से उपयोग लेना चाहिये॥१३॥

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    पदार्थ


    पदार्थ = ( विद्यायाः ) = विद्या के फल और कार्य ( अन्यत् एव आहुः ) = भिन्न ही कहते हैं और  ( अविद्यायाः अन्यत् आहुः ) = अविद्या का फल अन्य कहते हैं ( ये न: तद् विचचक्षिरे ) = जो हमको विद्या और अविद्या के स्वरूप का व्याख्यान करके कहते हैं । इस प्रकार उन  ( धीराणाम् ) = आत्मज्ञानी विद्वानों से  ( तत् ) = उस वचन को, हम लोग इति  ( शुश्रुम ) = इस तत्त्व का श्रवण करते हैं ।

     

    भावार्थ

    भावार्थ = अनादि गुणयुक्त चेतन से जो उपयोग होने योग्य है, वह अज्ञान युक्त जड़ से कदापि नहीं और जो जड़ से प्रयोजन सिद्ध होता है, वह चेतन से नहीं। सब मनुष्यों को विद्वानों के संग योग, विज्ञान और धर्माचरण से इन दोनों का विवेक करके दोनों से उपयोग लेना चाहिये ।

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    विषय

    विद्या अविद्या का ज्ञान । उन दोनों की उपासना का फल । मृत्यु और वरण ।

    भावार्थ

    (विद्यायाः) विद्या का फल और कार्य (अन्यत् एव आहुः ), दूसरा ही बतलाते हैं और (अविद्यायाः अन्यत् आहुः) अविद्या का फल और ही बतलाते हैं । (ये नः तद् विचचक्षिरे ) जो हमें विद्या और अविद्या के स्वरूप का उपदेश करते हैं हम उन ( धीराणाम् ) बुद्धिमान् पुरुषों के मुखों से (इति शुश्रुम) इस तत्व का श्रवण किया करें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आत्मा । अनुष्टुप् । गांधारः ॥

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    विषय

    विलक्षण फल

    पदार्थ

    (विद्याया:) = आत्मविद्या का (अन्यत् एव) = विलक्षण ही फल (आहुः) = कहते हैं। योगदर्शन का विभूतिपाद आत्मविद्या के फलों का विशद वर्णन करता है। आत्मविद्या के चमत्कार निश्चित रूप से विलक्षण हैं, परन्तु (अविद्यायाः) = प्रकृतिविद्या के भी तो (अन्यत्) = विलक्षण फल को (आहुः) = कहते हैं। पानी और अग्नि को वशीभूत करके किस प्रकार यन्त्र चलने लगे, विद्युत् के वशीकरण ने हद ही कर दी। हज़ारों मील दूर बैठे पुरुष से बात भी हो सकती है। आकृति भी देखी जा सकती है। भाषण इस तरह सुने जाते हैं जैसे, दस फीट पर ही कोई व्यक्ति बोल रहा हो। बेतार की तार चमत्कार ही है। सब काम स्वयं करती हुई मशीन मनुष्य को चकित कर देती है। मनुष्य की बनाई गई मशीन मनुष्य की अपेक्षा गुणा-भाग आदि के प्रश्नों को शीघ्रता से हल कर देती है। युद्ध के यन्त्र भयंकर अवश्य हैं, परन्तु विस्मयकारक तो हैं ही। (इति) = इस प्रकार विद्या और अविद्या दोनों के ही फल विलक्षण हैं। यह हमने उन (धीराणाम्) = ज्ञानियों से (शुश्रुम) = सुना है ये जिन्होंने (नः) = हमारे लिए (तत्) = इस बात का (विचचक्षिरे) प्रतिपादन किया है।

    भावार्थ

    भावार्थ - भौतिक व आत्मिक दोनों ही ज्ञानों के विलक्षण फल हैं। भौतिक ज्ञान क्लोरोफार्म आदि के द्वारा हमें अचेतन करके पीड़ा का अनुभव नहीं होने देता, तो आत्मज्ञान हमें सदेह होते हुए भी विदेह बनाकर पीड़ा से ऊपर उठा देता है।

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    मन्त्रार्थ

    (विद्यायाः) ज्ञान से (अन्यत्-एव) अन्य ही फल (आहु:) कहते है (अविद्यायाः) कर्म से (अन्यत्-एव) अन्य ही फल (आहुः) कहते हैं (इति) ऐसा कथन (धीराणां शुश्रुम) धीरध्यानी विद्वानों का सुनते हैं (ये) जो (नः) हमें (तत्) उस कथन का (विचचक्षिरे) व्याख्यान करते थे ॥१३॥

    विशेष

    "आयुर्वै दीर्घम्” (तां० १३।११।१२) 'तमुग्राकांक्षायाम्,' (दिवादि०) "वस निवासे" (स्वादि०) "वस आच्छादने" (अदादि०) श्लेषालङ्कार से दोनों अभीष्ट हैं। आवश्यके ण्यत् "कृत्याश्च" (अष्टा० ३।३।१७१)

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    अनादी गुणयुक्त चेतनाकडून जो व्यवहार होतो तो अज्ञानयुक्त जडाकडून कधीही होत नाही व जडाने जे प्रयोजन सिद्ध होते ते चेतनाने होत नाही. म्हणून सर्व माणसांनी विद्वानांची संगती, योगविज्ञान व धर्माचरणाने या दोन्हींचा (विद्या व अविद्या) विवेक करून दोन्ही गोष्टींचा उपयोग करून घ्यावा.

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    विषय

    पुढील मंत्रात जड-चेतन यांच्यातील अंतर, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यानो, जे विद्वज्जन मागे होते, त्यानी (नः) आम्हाला (आम्हा दुसर्‍या कक्षेतल्या विद्वानांना) (विचचक्षिरे) विस्ताराने सांगत होते की (विद्यायाः) पूर्वीच्या मंत्रात सांगितलेल्या विद्येचे (अन्यत्) दुसरे वा वेगळेच कार्य वा फळ आहे (आहुः) (असे त्यांनी आम्हांस सांगितले) (तसेच ते हे देखील सांगत होते की) (अविद्याया) मागील मंत्रात अविद्येचे जे स्वरूप सांगितले आहे त्या अविद्येचे फळ देखील (अन्यत्) वेगळेच आहे (विद्या आणि अविद्या दोन्हीचे फळ वा परिणाम वेगवेगळा आहे) त्या (धीराणाम्) आत्मज्ञानी विद्वानांकडून (तत्) त्या पूर्ववर्णित ज्ञान वा उपदेशाचे आम्ही (शुश्रुम) श्रवण करीत होतो. हे मनुष्यानो (सामान्यजनहो) ते ज्ञान तुम्हीही आमच्याकडून ऐका. ॥13॥

    भावार्थ

    भावार्थ - अनादि चेतन सत्ता (ईश्‍वर) पासून जे ग्रहणीय आहे, जे लाभ प्राप्त होतात, ते अज्ञानयुक्त जड पदार्थापासून कदापि प्राप्त होणार नाहीत. तसेच जे प्रयोजन वा कार्य जड, अचेतन पदार्थापासून (जल, अग्नी, आदीपासून पूर्ण होतात, ते प्रयोजन चेतनाने सिद्ध होणार नाहीत, सर्व लोकांसाठी हेच हितकर आहे की त्यानी विद्वत्संग, योगाभ्यास, विज्ञान आणि धर्माचरण या सर्वांच्या साह्याने, या दोन्हीचा (जड व चेतन यांचा) नीट विवेक-विचार करून त्यापासून योग्य ते लाभ घ्यावेत. ॥13॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Different is the fruit, they say, of knowledge and Nescience. Thus from the sages have we heard who have declared this lore to us.

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    Meaning

    Different is the result of Vidya, they say, and different is the result of Avidya, they say. This we have heard from the wise who revealed the difference of both to us.

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    Translation

    Different is the fruit of worldly knowledge, and the fruit of spiritual knowledge is different. Thus we have been hearing from the sages, who instruct us in these matters. (1)

    Notes

    Vayuranilam, वायु:, vital breaths; अनिलं, elemental air. A better reading will be वायुरनलं, the wind and the fire. It appears to be a writing mistake.

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    बंगाली (2)

    विषय

    অথ জড়চেতনয়োর্বিভাগমাহ ॥
    এখন জড় চেতনের প্রভেদ বলা হইতেছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! (য়ে) যে সব বিদ্বান্গণ (নঃ) আমাদের জন্য (বিচচক্ষিরে) ব্যাখ্যাপূর্বক বলিতেন (বিদ্যায়াঃ) পূর্বোক্ত বিদ্যার (অন্যৎ) অন্যই কার্য্য বা ফল (আহুঃ) বলিতেন, (অবিদ্যায়াঃ) পূর্ব মন্ত্র দ্বারা প্রতিপাদিত অবিদ্যার (অন্যৎ, এব) অন্য ফল (আহুঃ) বলেন (ইতি) এই প্রকারের সেইসব (ধীরাণাম্) আত্মজ্ঞানী বিদ্বান্দিগের হইতে (তৎ) সেই বচনকে আমরা (শুশ্রুম) শুনিতাম, এইরকম জানিবে ॥ ১৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- জ্ঞানাদি গুণযুক্ত চেতন দ্বারা যাহা উপযোগ হওয়ার যোগ্য উহা অজ্ঞানযুক্ত জড় দ্বারা কদাপি নহে এবং যাহা জড় দ্বারা প্রয়োজন সিদ্ধ হয় উহা চেতন দ্বারা নহে । সকল মনুষ্যদিগকে বিদ্বান্দিগের সঙ্গ, যোগ, বিজ্ঞান ও ধর্মাচরণ দ্বারা এই উভয়ের বিবেক করিয়া উভয় দ্বারা উপযোগ গ্রহণ করা উচিত ॥ ১৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒ন্যদে॒বাহুর্বি॒দ্যায়া॑ऽঅ॒ন্যদা॑হু॒রবি॑দ্যায়াঃ ।
    ইতি॑ শুশ্রুম॒ ধীরা॑ণাং॒ য়ে ন॒স্তদ্বি॑চচক্ষি॒রে ॥ ১৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অন্যদিত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । আত্মা দেবতা । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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    পদার্থ

    অন্যদেবাহুর্বিদ্যায়াঽঅন্যদাহুরবিদ্যায়া ।
    ইতি শুশ্রুম ধীরাণাং য়ে নস্তদ্বিচচক্ষিরে ।।৯৬।।
    (যজু, ৪০।১৩)
    পদার্থঃ হে মানব ! (য়ে) যে বিদ্বানেরা (নঃ) আমাদের জন্য (বিচচক্ষিরে) ব্যাখ্যাপূর্বক বলেছেন যে, [পণ্ডিতগণ] (বিদ্যায়াঃ) পূর্বমন্ত্রে বর্ণিত বিদ্যার (অন্যৎ) অন্য ফল হয়, এরূপ (আহুঃ)  বলে থাকেন এবং (অবিদ্যায়াঃ) পূর্বমন্ত্রে প্রতিপাদিত অবিদ্যার (অন্যৎ এব) অন্য ফল হয় (আহু) এরূপও বলেন, (ইতি) এই প্রকার সেই (ধীরাণাম্) আত্মজ্ঞানী বিদ্বানের নিকট (তৎ) উপদেশ আমরা (শুশ্রুম) শুনেছি,  এরূপ তোমরা জানো ।

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ ঐশ্বরিক জ্ঞানযোগে ঋষিগণ বলেছেন যে, বিদ্যা অনুশীলন থেকে এক ফল লাভ হয় এবং অবিদ্যা অনুশীলন থেকে ভিন্ন ফল লাভ হয়। আমাদের উভয়ের ই উপযোগ নেয়া উচিৎ। অর্থাৎ আমাদের শাস্ত্রপাঠ, স্বাধ্যায়, উপাসনা, সাধুসঙ্গ ইত্যাদি করা উচিৎ সাথে জাগতিক কল্যাণেও দৃষ্টি রাখা উচিৎ।। ৯৬।।

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