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यजुर्वेद अध्याय - 40
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  • यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 12
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - आत्मा देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    502

    अ॒न्धन्तमः॒ प्र वि॑शन्ति॒ येऽवि॑द्यामु॒पास॑ते।ततो॒ भूय॑ऽइव॒ ते तमो॒ यऽउ॑ वि॒द्याया॑ र॒ताः॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न्धम्। तमः॑। प्र। वि॒श॒न्ति॒। ये। अवि॑द्याम्। उ॒पास॑त॒ इत्यु॑प॒ऽआस॑ते ॥ ततः॑। भूय॑ऽइ॒वेति॒ भूयः॑ऽइव। ते। तमः॑। ये। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। वि॒द्याया॑म्। र॒ताः ॥१२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्धन्तमः प्रविशन्ति येविद्यामुपासते । ततो भूयऽइव ते तमो यऽउ विद्यायाँ रताः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अन्धम्। तमः। प्र। विशन्ति। ये। अविद्याम्। उपासत इत्युपऽआसते॥ ततः। भूयऽइवेति भूयःऽइव। ते। तमः। ये। ऊँऽइत्यूँ। विद्यायाम्। रताः॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 40; मन्त्र » 12
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्याऽविद्योपासनाफलमाह॥

    अन्वयः

    ये मनुष्या अविद्यामुपासते तेऽन्धन्तमः प्रविशन्ति, ये विद्यायां रतास्त उ ततो भूय इव तमः प्रविशन्ति॥१२॥

    पदार्थः

    (अन्धम्) दृष्ट्यावरकम् (तमः) गाढमज्ञानम् (प्र) (विशन्ति) (ये) (अविद्याम्) अनित्याशुचि-दुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्येति ज्ञानादिगुणरहितं वस्तु कार्य्यकारणात्मकं जडं परमेश्वराद्भिन्नम् (उपासते) अभ्यस्यन्ति (ततः) (भूय इव) अधिकमिव (ते) (तमः) अज्ञानम् (ये) पण्डितंमन्यमानाः (उ) (विद्यायाम्) शब्दार्थसम्बन्धविज्ञानमात्रेऽवैदिक आचरणे (रताः) रममाणाः॥१२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ज्ञानादिगुणयुक्तं वस्तु तज्ज्ञातृ यदविद्यारूपं तज्ज्ञेयं यच्च चेतनं ब्रह्मविद्वदात्म-स्वरूपं वा तदुपासनीयं सेवनीयं च यदतो भिन्नं तन्नोपासनीयं किन्तूपकर्त्तव्यम्। ये मनुष्या अविद्याऽस्मिताराग-द्वेषाभिनिवेशैः क्लेशैर्युक्तास्ते परमेश्वरं विहायातो भिन्नं जडं वस्तूपास्य महति दुःखसागरे मज्जन्ति, ये च शब्दार्थान्वयमात्रं संस्कृतमधीत्य सत्यभाषणपक्षपातरहितन्यायाचरणाख्यं धर्मं नाचरन्त्यभिमानारूढाः सन्तो विद्यां तिरस्कृत्याविद्यामेव मन्यन्ते, ते चाऽधिकतमसि दुःखार्णवे सततं पीडिता जायन्ते॥१२॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    अब विद्या-अविद्या की उपासना का फल कहते हैं॥

    पदार्थ

    (ये) जो मनुष्य (अविद्याम्) अनित्य में नित्य, अशुद्ध में शुद्ध, दुःख में सुख और अनात्मा शरीरादि में आत्मबुद्धिरूप अविद्या उसकी अर्थात् ज्ञानादि गुणरहित कारणरूप परमेश्वर से भिन्न जड़ वस्तु की (उपासते) उपासना करते हैं, वे (अन्धम्, तमः) दृष्टि के रोकनेवाले अन्धकार और अत्यन्त अज्ञान को (प्र, विशन्ति) प्राप्त होते हैं और (ये) जो अपने आत्मा को पण्डित माननेवाले (विद्यायाम्) शब्द, अर्थ और इनके सम्बन्ध के जानने मात्र अवैदिक आचरण में (रताः) रमण करते (ते) वे (उ) भी (ततः) उससे (भूय इव) अधिकतर (तमः) अज्ञानरूपी अन्धकार में प्रवेश करते हैं॥१२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो-जो चेतन, ज्ञानादिगुणयुक्त वस्तु है वह जाननेवाला, जो अविद्यारूप है वह जानने योग्य है और जो चेतन ब्रह्म तथा विद्वान् का आत्मा है वह उपासना के योग्य है, जो इससे भिन्न है, वह उपास्य नहीं है, किन्तु उपकार लेने योग्य है। जो मनुष्य अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश नामक क्लेशों से युक्त हैं, परमेश्वर को छोड़ इससे भिन्न जड़वस्तु की उपासना कर महान् दुःखसागर से डूबते हैं और जो शब्द अर्थ का अन्वयमात्र संस्कृत पढ़कर सत्यभाषण पक्षपातरहित न्याय का आचरणरूप धर्म नहीं करते अभिमान में आरूढ़ हुए विद्या का तिरस्कार कर अविद्या को ही मानते हैं, अत्यन्त तमोगुणरूप दुःखसागर में निरन्तर पीडि़त होते हैं॥१२॥

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    पदार्थ


     पदार्थ = ( ये ) = जो लोग  ( अविद्याम् ) = नित्य पवित्र सुख रूप आत्मा से भिन्न अपने और स्त्री आदिकों के शरीर आदिकों को नित्य पवित्र सुख और आत्मा रूप जानते और  ( उपासते ) = इन शरीरादिकों के अंजन-मंजन में सारे समय को लगा देते हैं वे  ( अन्धन्तम: ) = गाढ़ अन्धकार में  ( प्रविशन्ति ) = प्रवेश करते हैं, महाज्ञानी मूर्ख हैं और  ( ये उ ) = जो भी  ( विद्यायाम् रताः ) = विद्या अर्थात् केवल शास्त्रों के अक्षरों के पठन पाठनादि में लगे रहते हैं, वे  ( ततः भूयः इव ) = उससे भी अधिक  ( तम: ) = अज्ञानान्धकार में प्रवेश कर रहे हैं, उनसे भी अधिक अज्ञानी और मूर्ख हैं। 

     

    भावार्थ

    भावार्थ = जो अज्ञानी संसारी लोग, आत्मा और परमात्मा के ज्ञान से हानि, केवल अनित्य अपवित्र दुःख अनात्म रूप, अपने और स्त्री आदि के शरीरों को नित्य पवित्र सुख और आत्मस्वरूप जानकर इनके ही पालन पोषण अंजनमंजन में सदा लगे रहते हैं, न वेदों का स्वाध्याय करते न ही विद्वानों का सत्संग करते हैं, ऐसे विषयों में लम्पट अविद्यारूप अन्धकार में पड़े अपने दुर्लभ मनुष्य जन्म को व्यर्थ खो रहे हैं । जो शास्त्र वा अन्य अनेक प्रकार की विद्या तो पढ़े हैं, परन्तु प्रभु का ज्ञान और उसकी प्रेम भक्ति से शून्य हैं । न वेदों को पढ़ते सुनते अनात्मविद्या के अभ्यासी हैं, वे उन मूर्खों से भी गए गुजरे हैं। मूर्ख तो रस्ते पड़ सकते हैं, परन्तु वे अभिमानी लोग नहीं पड़ सकते । 

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    विषय

    विद्या अविद्या का ज्ञान । उन दोनों की उपासना का फल । मृत्यु और वरण ।

    भावार्थ

    (ये) जो लोग ( अविद्याम् ) अविद्या अर्थात् नित्य, पवित्र, सुख और आत्मा से भिन्न पदार्थों को नित्य, पवित्र, सुख और आत्मा ( उपासते ) करके जानते हैं, उसी प्रकार मिथ्या ज्ञान में मग्न रहते हैं वे ( अन्धं तमः ) गहरे अन्धकार में ( प्रविशन्ति ) प्रवेश करते हैं । वे बड़े अज्ञान में रहते हैं और (ये उ) जो भी (विद्यायाम् रताः) विद्या अर्थात् केवल शास्त्राभ्यास में ही (रताः) लगे रहते हैं वे (तत: भूयः इव) उससे भी अधिक (तमः) अज्ञानान्धकार में कष्ट पाते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आत्मा | निचृद् अनुष्टुप् । गांधारः ॥

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    विषय

    विद्या और अविद्या

    पदार्थ

    प्रस्तुत मन्त्र में अविद्या और विद्या के अर्थ को समझने के लिए उपनिषद् का यह वाक्य स्मरणीय है कि ('द्वे विद्ये वेदितव्ये, परा चैवापरा च') परा और अपरा दोनों ही विद्याएँ जाननी चाहिएँ । परा वह है जिससे अक्षरब्रह्म का ज्ञान होता है, अर्थात् ब्रह्मविद्या व आत्मविद्या ही 'पराविद्या' है। आत्मतत्त्व से प्रकृतितत्त्व अपर है, अतः उसका ज्ञान ही 'अपराविद्या' नाम से कहा गया। दोनों का ही ज्ञान आवश्यक है। शरीर के हित के लिए 'प्रकृति का ज्ञान' आवश्यक है, तो अपने स्वरूप को जानने के लिए आत्म-ज्ञान आवश्यक है। 'अपरा विद्या' और 'परा विद्या' इन दोनों शब्दों में से 'परा' इस सामान्य शब्द को हटा देने पर ये शब्द 'अविद्या' और 'विद्या' हो गये हैं। यहाँ मन्त्र में इन्हीं का प्रयोग है। (ये) = जो (अविद्याम्) = प्रकृतिविद्या की (उपासते) = उपासना करते हैं वे (अन्धन्तमः) = घने अँधेरे में (प्रविशन्ति) = प्रवेश करते हैं। [क] वर्त्तमान संसार में वैज्ञानिक 'आणविक अस्त्रों' से व्याकुल हो उठे हैं। उनको सूझता नहीं कि इनका क्या करें और क्या न करें? [ख] बड़े-बड़े दैत्याकार यन्त्र बनाकर इतनी तीव्रता से वस्तुओं का निर्माण कर रहे हैं कि उनकी बिक्री के लिए मण्डी का मिलना दुष्कर हो रहा है। [ग] पैन्सिलीन आदि आविष्कार से निर्भीक होकर ये युवक अनाचार से घबरा नहीं रहे। [घ] मनुष्यों का स्थान यन्त्रों ने ले लिया है और इस प्रकार मनुष्य को उसने बेकार [ unemployed] कर दिया है। इस प्रकार इस प्रकृतिविद्या ने कितनी ही जटिलताएँ उपस्थित कर दी हैं, परन्तु क्या ब्रह्मविद्या का कोई कृष्णपार्श्व नहीं है? नहीं, इसका कृष्णपार्श्व तो और भी अधिक कृष्ण है। भारतीयों का झुकाव आत्मा की ओर अधिक हो गया। ये प्रतिक्षण आत्मा की उपासना में ही बिताने लगे और जब ये परमात्मा की ही रट लगाने में तन्मय थे, इनका ध्यान प्रभु की ओर था तो विदेशियों ने अवसर पाकर चुपके से इनके पाँव तले से भूमि को खिसका लिया। भारतीयों का ध्यान गया तो इन्हें परतन्त्रतापाश में जकड़नेवालों ने कहा 'आत्मा ही तो सत्य है' उसे तुम रक्खो, इस मिथ्या संसार को हमें दे डालो, हमने तो तुम्हारी जूठन ही ली है, हम तुम्हारे सत्य में हस्तक्षेप नहीं कर रहे है। बस, इस आत्मरति ने भारतीयों को हज़ार वर्ष तक गुलाम रक्खा और भूखों मारा एवं मन्त्र के शब्दों के अनुसार (ततः) = उस प्रकृतिविद्या के उपासकों से भी (भूय इव) = अधिक ही (तमः) = अन्धकार को वे प्राप्त करते हैं (ये) = जो निश्चय से (विद्यायाम् रता:) = ब्रह्मविद्या में फँसे हुए हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- केवल प्रकृतिविद्या के उपासक अँधेरे में प्रवेश करते हैं तो केवल ब्रह्मविद्या के उपासक उससे भी घने अँधेरे में पहुँचते हैं।

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    मन्त्रार्थ

    (ये-अविद्याम्-उपासते) जो जन अविद्या अर्थात् कर्म केवल कर्म ज्ञानशून्य कर्म की उपासना करते हैं। वे (अन्धन्तमः प्रविशन्ति) घने अन्धेरे में प्रवेश करते हैं (ये-उ विद्यायां रता:) जो ही विद्या-ज्ञान केवल ज्ञान कर्म शून्य ज्ञान में ही रत हैं-लगे रहते हैं (ते) वे (ततः-भूयः-इव तमः) उससे भी अधिक घने अन्धेरे में प्रवेश करते हैं ॥१२॥

    विशेष

    "आयुर्वै दीर्घम्” (तां० १३।११।१२) 'तमुग्राकांक्षायाम्,' (दिवादि०) "वस निवासे" (स्वादि०) "वस आच्छादने" (अदादि०) श्लेषालङ्कार से दोनों अभीष्ट हैं। आवश्यके ण्यत् "कृत्याश्च" (अष्टा० ३।३।१७१)

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी जी चेतन ज्ञान व गुणयुक्त वस्तू आहे ती ज्ञाता व जी अविद्यारूपी वस्तू असते ती जाणण्यायोग्य असते व जे चेतन ब्रह्म आहे ते उपासना करण्यायोग्य आहे. यापेक्षा जे भिन्न असते ते उपास्य नसून त्याचा उपयोग करून घेतला पाहिजे. जी माणसे अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेश व अभिनिवेश नामक क्लेशांनी युक्त आहेत ती परमेश्वराला सोडून त्यापेक्षा भिन्न जड वस्तूची उपासना करून महान दुःख सागरात बुडतात व जे संस्कृत शब्द अर्थ अन्वय जाणून स्वतःला पंडित मानणारे असून, सत्य भाषण, पक्षापातरहित न्यायाचा आचरणरूपी धर्म स्वीकारीत नाहीत आणि अभिमानी बनून विद्येचा तिरस्कार करून अविद्येलाच मानतात ते अत्यंत तमोगुणरूपी दुःखसागराने निरंतर पीडित होतात.

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    विषय

    विद्या आणि अविद्या यांपासून क्रमशः लाभ व हानी ते या मंत्रात सांगत आहेत-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (ये) जे मनुष्य (अविद्याम्) अविद्येची (उपासते) उपासना करतात म्हणजे अनित्य शरीरादीना नित्य मानतात, अशुद्धात शुद्ध भावना करतात दुःखात सुख मानतात आणि अवात्म्म्यात म्हणजे शरीरादीमधे आत्मतु ही ठेवतात, ते अविद्यावान आहेत. अर्थात् परमेश्‍वराची उपासना सोडून ज्यात ज्ञान आदीगुण नाहीत, अशा जड पदार्थांची उपासना करतात, ते अविद्यावान वा अज्ञानी आहेत. ते लोक (अन्धम्, तमः) दृष्टिरोधक अंधकारात म्हणजे अत्यधिक अज्ञानात (प्र, विशन्ति) सापडतात, तसेच (ये) जे मयुष्य (विद्यायाम्) शब्द, अर्थ आणि या दोन्हीचा सम्बंध यांचे अर्थात साहित्य वा ज्ञानाचे विशेष अध्ययन करतात, पण अवैदिक आचरणा (रतः) रमतात (आचरणभ्रष्ट असतात) (ते) ते लोक (उ) देखील (ततः) त्यांच्यापेक्षा म्हणजे अविद्यावान लोकांपेक्षा (भूय, इव) अधिक गाढ (तमः) अज्ञानरूप अंधकारात प्रविष्ट होतात. ॥12॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. जगात जे जे चेतन व ज्ञान युक्त पदार्थ आहेत, ते ज्ञाता म्हणजे जाणणारे आहेत आणि जे अविद्यारूप आहे, ते ज्ञातव्य आहे. जो चेतन ब्रह्म आणि जो विद्वानांचा आत्मा आहे, हे दोन उपासनीय वा सेवनीय आहे (ब्रह्माची उपासना व विद्वानांची सेवा केली पाहिजे) याहून जे जे भिन्न आहे, त्याची उपासना करू नये, पण त्या पदार्थांपासून उपयोग वा लाभ अवश्य घेतला पाहिजे. जे मनुष्य अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष आणि ??? नाम क्लेशात गुरफटलेले असतात, हे परमेश्‍वराची उपासना न करता जड पदार्थांची (मूर्ती आदीची) पूजा, उपासना करतात. परिणामी महान दुःख सागरात बुडतात. तसेच जे शब्द, अर्थ, अन्वय अथवा संस्कृत भाषा शिकून घेतात, पण सत्यभाषण, पक्षपातरहित न्यायाचरण, आदी धर्माचे आचरण करीत नाहीत, उलट विद्येच्या गर्वात मदमन्त होऊन सत्य विदयेचा तिरस्कार करतात आणि अविद्येवर विश्‍वास ठेवतात, ते अत्यन्त तमोगुणरूप दुःखसागरात सांपडून सदा त्रस्त वा पिडित होतात. ॥12॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    To blinding darkness go the men who worship Nescience. Those proud of little knowledge enter darkness that is darker still.

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    Meaning

    Down into the darkest dark do they fall who worship Avidya, i. e. , illusion, or mere karma (action). Still deeper, and darker do they fall who are lost in Vidya, i. e. , knowledge without reference to karma or the reality content of it.

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    Translation

    Those who pursue worldly knowledge alone fall in the blinding gloom. Those, who pursue spiritual knowledge only, sink into gloom darker still. (1)

    Notes

    Avidyā, worldly knowledge; learning of arts and sci ences. Knowledge of worldly things and affairs. Vidyā, spiritual knowledge. Knowledge of the Self, Brahma etc. non-worldly things.

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    बंगाली (2)

    विषय

    অথ বিদ্যাऽবিদ্যোপাসনাফলমাহ ॥
    এখন বিদ্যা-অবিদ্যার উপাসনা ফল বলা হইতেছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- (য়ে) যে সব মনুষ্য (অবিদ্যাম্) অনিত্যে নিত্য, অশুদ্ধে শুদ্ধ, দুঃখে সুখ এবং অনাত্মা শরীরাদিতে আত্মবুদ্ধিরূপ অবিদ্যা অর্থাৎ জ্ঞানাদি গুণরহিত কারণরূপ পরমেশ্বর হইতে ভিন্ন জড় বস্তুর (উপাসতে) উপাসনা করে তাহারা (অন্ধম্, তমঃ) দৃষ্টি প্রতিহিতকারী অন্ধকার এবং অত্যন্ত অজ্ঞানকে (প্র, বিশন্তি) প্রাপ্ত হয় এবং (য়ে) যাহারা স্বীয় আত্মাকে পন্ডিত স্বীকারকারী (বিদ্যায়াম্) শব্দ, অর্থ ও ইহার সম্পর্ক জানিবা মাত্র অবৈদিক আচরণে (রতাঃ) রমণ করে (তে) তাহারা (উ)(ততঃ) তাহা হইতে (ভূয়, ইব) অধিকতর (তমঃ) অজ্ঞানরূপী অন্ধকারে প্রবেশ করে ॥ ১২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । যাহা যাহা চেতন জ্ঞানাদি গুণযুক্ত বস্তু, উহা জ্ঞাতা, যাহা অবিদ্যারূপ উহা জানিবার যোগ্য এবং যাহা চেতন ব্রহ্ম তথা বিদ্বানের আত্মা উহা উপাসনার যোগ্য যাহা ইহা হইতে ভিন্ন, উহা উপাস্য নহে কিন্তু উপকার লইবার যোগ্য । যে সব মনুষ্য অবিদ্যা, অস্মিতা, রাগ, দ্বেষ ও অভিনিবেশ নামক ক্লেশের সহিত যুক্ত তাহারা পরমেশ্বরকে ত্যাগ করিয়া ইহা ভিন্ন জড় বস্তুর উপাসনা করিয়া মহান্ দুঃখসাগরে মগ্ন হয় এবং যাহারা শব্দ অর্থের অন্বয়মাত্র সংস্কৃত পড়িয়া সত্যভাষণ পক্ষপাতরহিত ন্যায়ের আচরণরূপ ধর্ম করে না, অভিমানে আরূঢ় হইয়া বিদ্যার তিরস্কার করিয়া অবিদ্যাকেই মানে তাহারা অত্যন্ত তমোগুণরূপ দুঃখসাগরে নিরন্তর পীড়িত হইতে থাকে ॥ ১২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒ন্ধন্তমঃ॒ প্র বি॑শন্তি॒ য়েऽবি॑দ্যামু॒পাস॑তে ।
    ততো॒ ভূয়॑ऽইব॒ তে তমো॒ য়ऽউ॑ বি॒দ্যায়া॑ᳬं র॒তাঃ ॥ ১২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অন্ধন্তম ইত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । আত্মা দেবতা । নিচৃদনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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    পদার্থ

    অন্ধং তমঃ প্রবিশন্তি য়েঽবিদ্যামুপাসতে ।
    ততো ভূয়ঽইব তে তমো য়ঽউ বিদ্যায়াং রতাঃ ।।৯৫।।
    (যজু, ৪০।১২)
    পদার্থঃ (য়ে) যে সকল মানুষ, (অবিদ্যাম্) অনিত্যকে নিত্য, অপবিত্রকে পবিত্র, দুঃখকে সুখ, অনাত্মাকে আত্মা হিসেবে জানারূপ অবিদ্যা, অতএব জ্ঞানাদি গুণ রহিত, পরমেশ্বর ভিন্ন কার্যকারণরূপ জড় বস্তুর (উপাসতে) উপাসনা করে (তে) তারা (অন্ধম্) জ্ঞানদৃষ্টি আচ্ছাদনকারী (তমঃ) গাঢ় অন্ধকারে (প্রবিশন্তি) প্রবেশ করেন। এবং (য়ে) যারা নিজেই নিজেকে পণ্ডিত মনে করেন (বিদ্যায়াম্) শব্দ, অর্থ এবং সম্বন্ধ বিষয়ক জ্ঞান লাভ করেও অবৈদিক আচরণে (রতাঃ) রমণ করে (তে) তারা (উ) নিশ্চয়ই (ততঃ) তা থেকেও (ভূয়ঃ ইব) অধিকতর (তমঃ) অজ্ঞানরূপ অন্ধকারে প্রবেশ করেন ।

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ যারা অবিদ্যা তথা কেবল জাগতিক ভোগব্যাসনে মত্ত, কেবল ইন্দ্রিয়সুখের পেছনে ছোটে, তারা অজ্ঞানের ঘোর অন্ধকারে প্রবেশ করে । আর যারা তথাকথিত বিদ্যা অনুশীলনে রত, কেবল শাস্ত্রবাক্য পড়ে কিন্তু বেদের প্রকৃত স্বাধ্যায় করে না; সৎব্যক্তির সংসর্গ করে না, তারা আরও ঘোরতর অন্ধকারময় গতি লাভ করে। যে মনুষ্যগণ অবিদ্যা, অস্মিতা, রাগ-দ্বেষ এবং অভিনিবেশ এই পঞ্চ ক্লেশ যুক্ত; তারা পরমেশ্বরকে ছেড়ে জড় বস্তুর উপাসনা করে মহান দুঃখসাগরে নিমজ্জিত হয়। আর যারা শব্দ, অর্থ, সম্বন্ধ মাত্র সংস্কৃত ভাষা পাঠ করে সত্যভাষণ, পক্ষপাতরহিত ন্যায়াচরণরূপ  ধর্মের আচরণ না করে অভিমানী হয়ে বিদ্যার অপমান করে অবিদ্যাকেই মান্য করেন; তারা অধিকতর অজ্ঞানরূপ দুঃখসাগরে পতিত হয়ে সদা দুঃখী থাকেন।।৯৫।।

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