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यजुर्वेद अध्याय - 40
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  • यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 8
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - आत्मा देवता छन्दः - स्वराड्जगती स्वरः - निषादः
    4257

    स पर्य॑गाच्छु॒क्रम॑का॒यम॑व्र॒णम॑स्नावि॒रꣳ शु॒द्धमपा॑पविद्धम्।क॒विर्म॑नी॒षी प॑रि॒भूः स्व॑य॒म्भूर्या॑थातथ्य॒तोऽर्था॒न् व्यदधाच्छाश्व॒तीभ्यः॒ समा॑भ्यः॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः। परि॑। अ॒गा॒त्। शु॒क्रम्। अ॒का॒यम्। अ॒व्र॒णम्। अ॒स्ना॒वि॒रम्। शु॒द्धम्। अपा॑पविद्ध॒मित्यपा॑पऽविद्धम् ॥ क॒विः। म॒नी॒षी। प॒रि॒भूरिति॑ परि॒ऽभूः। स्व॒यम्भूरिति॑ स्वय॒म्ऽभूः। या॒था॒त॒थ्य॒त इति॑ याथाऽत॒थ्य॒तः। अर्था॑न्। वि। अ॒द॒धा॒त्। शा॒श्व॒तीभ्यः॑। समा॑भ्यः ॥८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरँ शुद्धमपापविद्धम् । कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोर्थान्व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सः। परि। अगात्। शुक्रम्। अकायम्। अव्रणम्। अस्नाविरम्। शुद्धम्। अपापविद्धमित्यपापऽविद्धम्॥ कविः। मनीषी। परिभूरिति परिऽभूः। स्वयम्भूरिति स्वयम्ऽभूः। याथातथ्यत इति याथाऽतथ्यतः। अर्थान्। वि। अदधात्। शाश्वतीभ्यः। समाभ्यः॥८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 40; मन्त्र » 8
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनः परमेश्वरः कीदृश इत्याह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यद् ब्रह्म शुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धं पर्यगाद्यः कविर्मनीषीः परिभूः स्वयम्भूः परमात्मा शाश्वतीभ्यः समाभ्यो याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधात् स एव युष्माभिरुपासनीयः॥८॥

    पदार्थः

    (सः) परमात्मा (परि) सर्वतः (अगात्) व्याप्तोऽस्ति (शुक्रम्) आशुकरं सर्वशक्तिमत् (अकायम्) स्थूलसूक्ष्मकारणशरीररहितम् (अव्रणम्) अच्छिद्रमच्छेद्यम् (अस्नाविरम्) नाड्यादिसम्बन्धरहितम् (शुद्धम्) अविद्यादिदोषरहितत्वात् सदा पवित्रम् (अपापविद्धम्) यत् पापयुक्तं पापकारि पापेप्रियं कदाचिन्न भवति तत् (कविः) सर्वज्ञः (मनीषी) सर्वेषां जीवानां मनोवृत्तीनां वेत्ता (परिभूः) यो दुष्टान् पापिनः परिभवति तिरस्करोति सः (स्वयम्भूः) अनादिस्वरूपो यस्य संयोगेनोत्पत्तिर्वियोगेन विनाशो मातापितरौ गर्भवासो जन्मवृद्धिक्षयौ च न विद्यन्ते (याथातथ्यतः) यथार्थतया (अर्थान्) वेदद्वारा सर्वान् पदार्थान् (वि) विशेषेण (अदधात्) विधत्ते (शाश्वतीभ्यः) सनातनीभ्योऽनादिस्वरूपाभ्यः स्वस्वरूपेणोत्पत्तिविनाशरहिताभ्यः (समाभ्यः) प्रजाभ्यः॥८॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः! यद्यनन्तशक्तिमदजं निरन्तरं सदा मुक्तं न्यायकारि निर्मलं सर्वज्ञं साक्षि-नियन्तृ-अनादिस्वरूपं ब्रह्म कल्पादौ जीवेभ्यः स्वोक्तैर्वेदैः शब्दार्थसम्बन्धविज्ञापिकां विद्यां नोपदिशेत् तर्हि कोऽपि विद्वान्न भवेत्, न च धर्मार्थकाममोक्षफलं प्राप्तुं शक्नुयात्, तस्मादिदमेव सदैवोपाध्वम्॥८॥

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    विषयः

    वेदनित्यत्वविषयः

    व्याख्यानम्

    अस्यायमभिप्रायः—यः पूर्वोक्तः सर्वव्यापकत्वादिविशेषणयुक्तं ईश्वरोऽस्ति, ( स पर्यगात् ) परितः सर्वतोऽगात् प्राप्तवानस्ति, नैवैकः परमाणुरपि तद्व्याप्त्या विनास्ति, ( शुक्रम् ) तद् ब्रह्म सर्वजगत्कर्त्तृवीर्यवदनन्तबलवदस्ति, ( अकायम् ) तत्स्थूलसूक्ष्मकारणशरीरत्रयसम्बन्धरहितम्, ( अव्रणम् ) नैवैतस्मिँश्छिद्रं कर्त्तुं परमाणुरपि शक्नोति, अत एव छेदरहितत्वादक्षतम्, ( अस्नाविरम् ) तन्नाडीसम्बन्ध-रहितत्वाद् बन्धनावरणविमुक्तम्, ( शुद्धम् ) तदविद्यादिदोषेभ्यः सर्वदा पृथग्वर्त्तमानम्, ( अपापविद्धम् ) नैव तत्पापयुक्तं पापकारि च कदाचिद्भवति, ( कविः ) सर्वज्ञः, ( मनीषी ) यः सर्वेषां मनसामीषी साक्षी ज्ञातास्ति, ( परिभूः ) सर्वेषामुपरि विराजमानः, ( स्वयंभूः ) यो निमित्तोपादानसाधारणकारणत्रयरहितः, स एव सर्वेषां पिता, नह्यस्य कश्चित् जनकः स्वसामर्थ्येन सहैव सदा वर्तमानोऽस्ति, ( शाश्वतीभ्यः ) य एवंभूतः सच्चिदानन्दस्वरूपः परमात्मा, ( सः ) सर्गादौ स्वकीयाभ्यः शाश्वतीभ्यो निरन्तराभ्यः ( समाभ्यः ) प्रजाभ्यो ( याथातथ्यतः ) यथार्थस्वरूपेण वेदोपदेशेन ( अर्थान् व्यदधात् ) विधत्तवानर्थाद् यदा यदा सृष्टिं करोति तदा तदा प्रजाभ्यो हितायादिसृष्टौ सर्वविद्यासमन्वितं वेदशास्त्रं स एव भगवानुपदिशति। अत एव नैव वेदानामनित्यत्वं केनापि मन्तव्यम्, तस्य विद्यायाः सर्वदैकरसवर्त्तमानत्वात्।

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    हिन्दी (7)

    विषय

    फिर परमेश्वर कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! जो ब्रह्म (शुक्रम्) शीघ्रकारी सर्वशक्तिमान् (अकायम्) स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीररहित (अव्रणम्) छिद्ररहित और नहीं छेद करने योग्य (अस्नाविरम्) नाड़ी आदि के साथ सम्बन्धरूप बन्धन से रहित (शुद्धम्) अविद्यादि दोषों से रहित होने से सदा पवित्र और (अपापविद्धम्) जो पापयुक्त, पापकारी और पाप में प्रीति करनेवाला कभी नहीं होता (परि, अगात्) सब ओर से व्याप्त जो (कविः) सर्वत्र (मनीषी) सब जीवों के मनों की वृत्तियों को जाननेवाला (परिभूः) दुष्ट पापियों का तिरस्कार करनेवाला और (स्वयम्भूः) अनादि स्वरूप जिसकी संयोग से उत्पत्ति, वियोग से विनाश, माता, पिता, गर्भवास, जन्म, वृद्धि और मरण नहीं होते, वह परमात्मा (शाश्वतीभ्यः) सनातन अनादिस्वरूप अपने-अपने स्वरूप से उत्पत्ति और विनाशरहित (समाभ्यः) प्रजाओं के लिये (याथातथ्यतः) यथार्थ भाव से (अर्थान्) वेद द्वारा सब पदार्थों को (व्यदधात्) विशेष कर बनाता है, (सः) वही परमेश्वर तुम लोगों को उपासना करने के योग्य है॥८॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो! जो अनन्त शक्तियुक्त, अजन्मा, निरन्तर, सदा मुक्त, न्यायकारी, निर्मल, सर्वज्ञ, सबका साक्षी, नियन्ता, अनादिस्वरूप ब्रह्म कल्प के आरम्भ में जीवों को अपने कहे वेदों से शब्द, अर्थ और उनके सम्बन्ध को जनानेवाली विद्या का उपदेश न करे तो कोई विद्वान् न होवे और न धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के फलों के भोगने को समर्थ हो, इसलिये इसी ब्रह्म की सदैव उपासना करो॥८॥

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    पदार्थ

    पदार्थ = ( सः ) = वह परमात्मा  ( परि अगात् ) = सब ओर से व्याप्त है  ( शुक्रम् ) = शीघ्रकारी सर्वशक्तिमान् ( अकायम् ) = शरीररहित ( अव्रणम् ) = फोड़ा फूँसी और घाव  से ( अस्नाविरम् ) = नाड़ी नस के बन्धन से रहित, ( शुद्धम् ) = अविद्यादि दोषों से रहित,सदा पवित्र ( अपापविद्धम् ) = पापों से सदा मुक्त  ( कवि: ) = सर्वज्ञ  ( मनीषी ) = सबके मनों का प्रेरक  ( परिभू: ) = दुष्ट पापियों का तिरस्कार करनेवाला  ( स्वयम्भूः ) = माता पिता से जन्म न लेनेवाला अपनी सत्ता में सदा विद्यमान अनादि स्वरूप है वह  ( याथातथ्यतः ) = यथार्थ रूप से ठीक ठीक  ( शाश्वतीभ्यः ) = सनातन से चली आई  ( समाभ्यः ) = प्रजाओं के लिए  ( अर्थात् ) = समस्त पदार्थों को  ( व्यदधात् ) = विशेष कर रचता और उनका ज्ञान प्रदान करता है । 

    भावार्थ

    भावार्थ = जो परमात्मा, अनन्तशक्ति युक्त अजन्मा, निराकार, सदा मुक्त, न्यायकारी, निर्मल, सर्वज्ञ, सबका साक्षी, नियन्ता, अनादिस्वरूप, सृष्टि के आदि में ब्रह्मर्षियों द्वारा वेद विद्या का उपदेश न करता तो कोई विद्वान् न हो सकता। ऐसे अजन्मा, निराकार जगत्पति का जन्म मानना और उसका आकार बताना घोर मूर्खता और वेदविरुद्ध नास्तिकता नहीं तो और क्या है ? परमात्मा कृपा करके ऐसी नास्तिकता से जगत् को बचावे, ऐसी प्रार्थना है।

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    विषय

    वेदनित्यत्वविषयः

    व्याख्यान

    ऐसे ही परमेश्वर ने अपने और अपने किये वेदों के नित्य और स्वतः प्रमाण होने का उपदेश किया है सो आगे लिखते हैं—( स पर्यगात् ) यह मन्त्र ईश्वर और उसके किये वेदों का प्रकाश करता है, कि जो परमेश्वर सर्वव्यापक आदि विशेषणयुक्त है सो सब जगत् में परिपूर्ण हो रहा है, उसकी व्याप्ति से एक परमाणु भी रहित नहीं है। सो ब्रह्म ( शुक्रम् ) सब जगत् का करने वाला और अनन्तविद्यादि बल से युक्त है, ( अकायम् ) जो स्थूल, सूक्ष्म और कारण इन तीनों के संयोग से रहित है, अर्थात् वह कभी जन्म नहीं लेता, ( अव्रणम् ) जिसमें एक परमाणु भी छिद्र नहीं कर सकता, इसीसे वह सर्वथा छेदरहित है, ( अस्नाविरम् ) वह नाड़ियों के बन्धन से अलग है, जैसा वायु और रुधिर नाड़ियों में बंधा रहता है, ऐसा बन्धन परमेश्वर में नहीं होता, ( शुद्धम् ) जो अविद्या अज्ञानादि क्लेश और सब दोषों से पृथक् है, ( अपापविद्धम् ) सो ईश्वर पापयुक्त वा पाप करने वाला कभी नहीं होता, क्योंकि वह स्वभाव से ही धर्मात्मा है, ( कविः ) जो सब का जानने वाला है, ( मनीषी ) जो सबका अन्तर्यामी है, और भूत, भविष्यत् तथा वर्त्तमान इन तीनों कालों के व्यवहारों को यथावत् जानता है, ( परिभूः ) जो सबके ऊपर विराजमान हो रहा है, ( स्वयंभूः ) जो कभी उत्पन्न नहीं होता और उसका कारण भी कोई नहीं है, किन्तु वही सबका कारण, अनादि और अनन्त है, इससे वही सबका माता-पिता है, और अपने ही सत्य सामर्थ्य से सदा वर्त्तमान है, उसके सब सुखों के लिये, ( अर्थान् व्यदधात् ) सत्य अर्थों का उपदेश किया है। इसी प्रकार जब तक परमेश्वर सृष्टि को रचता है, तब तक प्रजा के हित के लिये सृष्टि के आदि में सब विद्याओं से युक्त वेदों का भी उपदेश करता है, और जब सृष्टि का प्रलय होता है तब तब वेद उसके ज्ञान में सदा बने रहते हैं, इससे उनको सदैव नित्य मानना चाहिये।

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    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    (सः, पर्यगात्) वह परमात्मा आकाश के समान सब जगह में परिपूर्ण [व्यापक] है। (शुक्रम्) सब जगत् का करनेवाला वही है। (अकायम्) और वह कभी शरीर [अवतार] नहीं धारण करता । वह अखण्ड, अनन्त और निर्विकार होने से देहधारण कभी नहीं करता। उससे अधिक कोई पदार्थ नहीं है, इससे ईश्वर का शरीर धारण करना कभी नहीं बन सकता । (अव्रणम्) वह अखण्डैकरस, अच्छेद्य, अभेद्य, निष्कम्प और अचल है, इससे अंशांशिभाव भी उसमें नहीं है, क्योंकि उसमें छिद्र किसी प्रकार से नहीं हो सकता। (अस्त्राविरम्) नाड़ी आदि का प्रतिबन्ध [निरोध] भी उसका नहीं हो सकता। अतिसूक्ष्म होने से ईश्वर का कोई आवरण नहीं हो सकता । (शुद्धम्) वह परमात्मा सदैव निर्मल, अविद्यादि क्लेश, जन्म, मरण, हर्ष, शोक, क्षुधा, तृषादि दोषोपाधियों से रहित है। शुद्ध की उपासना करनेवाला शुद्ध ही होता है और मलिन का उपासक मलिन ही होता है (अपापविद्धम्) परमात्मा कभी अन्याय नहीं करता, क्योंकि वह सदैव न्यायकारी ही है । (कविः) त्रैकालज्ञ [सर्ववित्], महाविद्वान्, जिसकी विद्या का अन्त कोई कभी नहीं ले सकता । (मनीषी) सब जीवों के मन [विज्ञान] का साक्षी – सबके मन का दमन करनेवाला है । (परिभू:) सब दिशाओं और सब जगह में परिपूर्ण हो रहा है, सबके ऊपर विराजमान है। (स्वयम्भूः) जिसका आदिकरण–माता-पिता, उत्पादक कोई नहीं, किन्तु वही सबका आदिकारण है। (याथातथ्यतो र्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः) उस ईश्वर ने अपनी प्रजा को यथावत् सत्य, सत्यविद्या जो चार वेद उनका सब मनुष्यों के परमहितार्थ उपदेश किया है। उस हमारे दयामय पिता परमेश्वर ने बड़ी कृपा से अविद्यान्धकार का नाशक, वेदविद्यारूप सूर्य प्रकशित किया है और सबका आदिकारण परमात्मा है, ऐसा अवश्य मानना चाहिए । एवं विद्यापुस्तक का भी आदिकारण ईश्वर को ही निश्चित मानना चाहिए । विद्या का उपदेश ईश्वर ने अपनी कृपा से किया है, क्योंकि हम लोगों के लिए उसने सब पदार्थों का दान किया है तो विद्यादान क्यों न करेगा? सर्वोत्कृष्टविद्या पदार्थ का दान परमात्मा ने अवश्य किया है और वेद के विना अन्य कोई पुस्तक संसार में ईश्वरोक्त नहीं है। जैसा पूर्ण विद्यावान् और न्यायकारी ईश्वर है वैसे ही वेदपुस्तक भी हैं, अन्य कोई पुस्तक ईश्वरकृत, वेदतुल्य वा अधिक नहीं है। 

    इस विषय का अधिक विचार मेरे किये ग्रन्थ “सत्यार्थ - प्रकाश" में देख लेना ॥ २ ॥

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    विषय

    आत्मा का स्वरूप ।

    भावार्थ

    (सः) वह परमेश्वर ( परि अगात् ) सर्वत्र व्यापक है । वह ( शुक्रम् ) शुद्ध, कान्तिमय अथवा तीव्र शक्तिमय, शीघ्र गति देने वाला, ( अकायम् ) स्थूल सूक्ष्म और कारण नामक तीनों शरीरों से रहित, ( अव्रणम् ) व्रण, घात्र आदि से रहित, ( अस्नाविरम् ) स्नायु आदि बन्धनों से रहित, शुद्ध, अविद्यादि दोषों से रहित, सदा पवित्र, (अपापविद्धम् ) पापों से सदा (कविः) मुक्त, क्रान्तदर्शी, मेधावी, (मनीषी) सबके मनों को प्रेरणा करने वाला, (परिभूः) सर्वत्र व्यापक, सबका वशयिता, ( स्वयम्भूः ) स्वयं अपनी सत्ता से सदा विद्यमान, माता पिता द्वारा जन्म न लेने हारा है वह (यथातथ्यतः) यथार्थरूप से, ठीक-ठीक (शाश्वतीभ्यः) सनातन से चली आयीं (समाभ्यः) प्रजाओं के लिये अर्थात् समस्त पदार्थों को (वि अदधात् ) रचता है और उनका ज्ञान प्रदान करता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आत्मा । स्वराड् जगती । निषादः ॥

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    विषय

    व्यापक व शुद्ध

    पदार्थ

    १. (सः) = वे प्रभु (परि अगात्) = चारों ओर [पहले से ही] गये हुए हैं। वह कौन-सा स्थान है जहाँ प्रभु नहीं हैं? सर्वव्यापक होने के कारण ही वे प्रभु (शुक्रम्) [शुच् दीप्तौ] = अत्यन्त दीप्त व उज्ज्वल हैं। २. वे प्रभु सर्वव्यापक हैं, अतः (अकायम्) = शरीररहित हैं । शरीररहित होने से ही (अव्रणम्) = व्रणादिरहित हैं, (अस्नाविरम्) = नस-नाड़ियों से शून्य हैं। व्रण व नस-नाड़ियों का सम्बन्ध शरीर से ही है। शरीर नहीं, तो ये कहाँ से? ३. (शुद्धम्) = वे प्रभु पूर्ण शुद्ध हैं और (अपापविद्धम्) = पाप से विद्ध नहीं । ४. (कविः) = वे प्रभु क्रान्तदर्शी हैं, प्रत्येक वस्तु के तत्त्व को जानते हैं। लोक में जो-जो व्यक्ति जितना - जितना बहुदृष्ट व बहुश्रुत बनता चलता है उतना उतना ही उसका दृष्टिकोण व्यापक व सत्य होता जाता है। प्रभु पूर्ण व्यापक हैं, उनका दृष्टिकोण पूर्ण सत्य है। वे प्रभु (मनीषी) = विद्वान् पूर्ण ज्ञानी हैं, क्योंकि (परिभूः) = चारों ओर सर्वत्र होनेवाले हैं। उनके कवित्व व मनीषित्व का रहस्य इस परिभूपन में ही है । ५. ' इस प्रभु को किसने जन्म दिया?' इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि वे (स्वयम्भूः) = स्वयं होनेवाले हैं। उनको जन्म देनेवाला कोई नहीं। वे 'खुद् आ' हैं और वास्तविकता यह कि वे शरीर बन्धन में आते-जाते ही नहीं। यह आना-जाना जीव के लिए ही सम्भव है, जोकि व्यापक सत्तावाला नहीं । ६. ये 'स्वयम्भू' प्रभु (शाश्वतीभ्यः) = सनातन (समाभ्यः) = प्रजाओं के लिए (याथातथ्यतः) = ठीक-ठीक सब बातों व वस्तुओं का (व्यदधात्) = प्रतिपादन व सम्पादन करते हैं। यह तो जीव ही की कमी है कि उन पदार्थों का वह ठीक प्रयोग नहीं करता व प्रभु की प्रेरणा को नहीं सुनता परिणामतः कष्ट का भागी होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम इस तत्त्व को समझें कि जो जितना व्यापक है, वह उतना ही शुद्ध है। यह समझकर हमारा ध्येय 'व्यापक दृष्टिकोणवाला बनना' ही हो जाए।

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    मन्त्रार्थ

    (सः-पर्यगात्) वह परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण है- अनन्त है (शुक्रम्) वह ब्रह्म शुभ्र अतुल भासमान है (कायम्) कायरहित नेत्रादि इन्द्रियों के निकायरहित-जीवशरीररहित (अव्रणम्) वणरहित अवकाशरहित अवकाश वाले काष्ठ पाषाण स्वर्ण आदि ठोस धातु एवं पृथिवी चन्द्र सूर्य आदि पिण्ड जैसे व्यक्तिरूप से रहित (अस्नाविरम्) धारारहितधारामय विद्युत् किरण और वायु जैसी जडसत्ता से रहित (शुद्धम्) निर्मल-अनावरण निःसङ्ग (पापविद्धम्) पापसम्पर्क से अलग (कवि:) क्रान्तदर्शी सर्वज्ञ (मनीषी) मनोवृत्तियों का ज्ञाता (परिभूः) सब पर स्वामित्व रखनेवाला (स्वयम्भूः) स्वयं सत्ता से विराजमान (शाश्वतीभ्यः समाभ्यः) सदा से साथ रहनेवाली जीवरूप प्रजाओं के लिये (अर्थान्) विद्याविषयों तथा जगत्पदार्थों को (याथातथ्यतः) यथावत्ठीक-ठीक (व्यदधात्) प्रकाश करता तथा रचता है ॥८॥

    विशेष

    "आयुर्वै दीर्घम्” (तां० १३।११।१२) 'तमुग्राकांक्षायाम्,' (दिवादि०) "वस निवासे" (स्वादि०) "वस आच्छादने" (अदादि०) श्लेषालङ्कार से दोनों अभीष्ट हैं। आवश्यके ण्यत् "कृत्याश्च" (अष्टा० ३।३।१७१)

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    मराठी (4)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! ब्रह्म अनंत शक्तीनेयुक्त, जन्मरहित, सदैव मुक्त, न्यायी, निर्मळ, सर्वज्ञ, सर्वसाक्षी, नियंत्रक, अनादी स्वरूप असून, त्याने सृष्टीच्या आरंभी जीवांना वेदांचे शब्द, अर्थ व त्यांचा संबंध दर्शविणाऱ्या विद्येचा उपदेश न केल्यास कोणीही विद्वान होणार नाही व धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष यांचे फळ भोगण्यास समर्थ होणार नाही. त्यासाठी त्या ब्रह्माची सदैव उपासना करा.

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    विषय

    परमेश्‍वर कसा आहे, यावषियी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यानो, तो परब्रह्म (शुक्रम्) शीघ्रकारी सर्वशक्तिमान असून (अकायम्) स्थूल, सूक्ष्म वा कारण शरीर नसलेला आहे. तो (अव्रणम्) त्यात छिद्र नसून त्यास छेदता भेदता वा खंडित करता येत नाही. (अथवा त्याचा शरीर नसल्यामुळे त्याला व्रण, प्रहार आदी होणे शक्य नाही.) तो (अस्नाविरम्) शिरा, नाडी आदी नसलेला म्हणजे अशरीरी कोणत्याही बंधनात बद्ध होणारा नाही. तो (शुद्धम्) अविद्या आदी दोषापासून मुक्त असल्यामुळे सदा पवित्र असून (अपापविद्धम्) तो पापयुक्त, पापी व पाप करण्याविषयी सर्वत्र आहे आणि (मनीषी) जीवांच्या मनोवृत्ती जाणणारा आहे. तो (परिभूः) आहे म्हणजे (जीवाप्रमाणे) त्याची संयोगाने उत्पत्ती आणि वियोग-विच्छेदाने नाश होत नसून त्याला माता-पिता नाहीत, त्यास गर्भवास, जन्म, वृद्धी, आणि मरण नाही. तो परमात्मा (शाश्‍वतीभ्यः) सनातन, अनादिस्वरूप स्वरूपाने उत्पति-विनाश रहित (जो जीवात्मा) त्या (प्रजाभ्यः) जीवात्म्यासाठी (यथातथ्यतः) यथार्थ प्रकारे (अर्थात्) वेदात वर्णन केलेल्या पदार्थांची (व्यदधात्) विशेषत्वाने निर्मिती करतो. हे मनुष्यानो, तोच परमेश्‍वर तुमच्यासाठी उपासनीय आहे. (तुम्ही त्याचीच उपासना करा) ॥8॥

    भावार्थ

    भावार्थ - हे मनुष्यानो, तो अनंत शक्तिमान, अजन्मा, नित्य, सदामुक्त, न्यायकारी, निर्मल, सर्वज्ञ, सर्वसाक्षी, नियन्ता, अनादिस्वरूप, परमेश्‍वर जर ब्रह्मकल्पाच्या प्रारंभी जीवांसाठी आपल्या वेदज्ञानाद्वारे शब्द, अर्थ आणि शब्दार्थसम्बन्ध या विषयाचे ज्ञान देणार नाही, (भाषा आणि वेदज्ञानाचा प्रकाश करणार नाही, तर कोणीतरी मनुष्य विद्वान होऊ शकेल काय? (वा होऊ शकला असता काय? तसेच ईश्‍वराने ते वेदज्ञान मानवास दिले नसते, तर, धर्म, अर्थ, काम आणि मोक्ष यांची फळें उपभोगण्यासाठी कोणी समर्थ झाला असता काय? यामुळे हे मनुष्यानो, तुम्ही त्या परमेश्‍वराची. सदैव उपासना करा. ॥8॥

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    विषय

    स्तुती

    व्याखान

    (सः, पर्यगात्) ईश्वर हा आकाशाप्रमाणे सर्वत्र व्यापक आहे. (शुक्रम्) तो सर्व जगाचा कर्ता आहे. (अकायम्) तो कधीही शरीर धारण करीत नाही कारण तो अखंड व निर्विकार आहे त्याच्यापेक्षा कोणताही पदार्थ मोठा नाही. त्यामुळे देह धारण करण्याची त्याला आवश्यकता नाही. (अव्रणम्) तो अखंड व एकरस आहे. ज्याचा भेद करता येत नाही व छेद करता येत नाही. असा तो निष्कंप व अचल आहे. त्याच्यामध्ये अंशाभिभावही नाही. कारण त्याच्यामध्ये कधीही छिद्र पडू शकत नाही. (अस्नाविरम्) तो नाडीच्या बंधनात अडकत नाही. सुक्ष्म असल्यामुळे त्याला कोणत्याही प्रकारचे आवरण नाही. (शुद्धम्) तो सदैव निर्मळ असून अविद्या इत्यादी दोष व जन्म मरण, हर्षशोक, क्षुधा, तृष्णा इत्यादी उपाधींनी रहित आहे. शुद्धाची उपासना करणारा शुद्ध व मलीनाचा उपासक कमलीनच होतो. (अपापविद्धम्) परमेश्वर कधीही अन्याय करीत नाही तो सदैव न्यायीच आहे. (कविः) तो त्रिकाला आहे [सर्ववित्] महाविद्वान आहे. त्याच्या विद्येचा अंत कोणालाही कधीही लागू शकत नाही. (मनीषी) ता सर्व जीवांचे मनोविज्ञान जाणणारा आहे. व सर्वांच्या मनाचे दमन करणारा आहे. (परिभूः) तो सर्व दिशांमध्ये व सर्व स्थानी ओतप्रोत भरलेला आहे व सर्वत्र विद्यमान आहे. (स्वयंभूः) माता, पिता, इत्यादी ज्याचे आदिकारण नाही परंत तो मात्र सर्वांचे आदिकारण आहे. (याथातथ्यतोऽर्थान्व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः) सर्व माणसांच्या कल्याणासाठी ईश्वराने सत्य व सत्यविद्या असलेल्या चार वेदांचा उपदेश केलेला आहे. त्या दयाळू पित्याने आपल्या कृपेने अविद्येचा अंधःकार नष्ट करण्यासाठी वेदविद्यारूपी सूर्य प्रकाशित केलेला आहे. परमेश्वर सर्वांचे आदिकारण आहे हे निश्चित मानले पाहिजे. तसेच विद्येचेही आदिकारण परमेश्वरच आहे हे निश्चितच. ईश्वराने त्याच्या कृपेनेच विधेचा उपदेश कलेला आहे. कारण सर्व माणसांसाठी त्याने सर्व पदावांचे दान केलेले आहे. तेव्हा विवेचे दान कसे करणार नाही? त्याने सर्वोत्कृष्ट विद्येचे दान केलेले आहे. वेदाशिवाय कोणतेहि पुस्तक या जगात ईश्वरोक्त नाही. ईश्वर जसा पूर्ण विद्यायुक्त आहे आणि न्यायी आहे तसेच वेद हे पुस्तक आहे. दुसरे कोणतेही पुस्तक ईश्वरकृत किंवा वेदाप्रमाणे नाही. एवढेच नव्हे तर वेदाहून चांगले पुस्तकहीं कोणतेच नाही. या विषयाचा अधिक विचार “सत्यार्थप्रकाश” या माझ्या ग्रंथात पहावा.॥२॥

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    व्याख्यान

    भाषार्थ : असाच परमेश्वराने आपल्या व आपण बनविलेल्या वेदाचा नित्य व प्रमाण असण्याचा उपदेश केलेला आहे. (स पर्यगात) हा मंत्र ईश्वर व वेदावर प्रकाश टाकतो. जो परमेश्वर सर्वव्यापक इत्यादी विशेषणांनी युक्त आहे, तो जगात परिपूर्ण होत असून, त्याची व्याप्ती प्रत्येक परमाणूमध्ये आहे. तो ब्रह्म (शुक्रं) सर्व जग निर्माण करणारा व अनंत विद्या इत्यादी बलाने युक्त आहे, (अकाय) जो स्थूल, सूक्ष्मा व कारण या तीन शरीरांच्या संयोगाविरहित आहे. अर्थात, तो कधी जन्म घेत नाही. (अव्रणं) ज्याच्यामध्ये एक परमाणूही छिद्र करू शकत नाही. त्यामुळेच तो संपूर्णपणे छेदरहित आहे, (अस्नाविरं) तो नाडीबंधनापासून वेगळा आहे. जसे वायू व रुधिर नाड्यांमध्ये बंधित असतात तसा परमेश्वर कोणत्याही बंधनात नसतो. (शुद्धं) जो अविद्या, अज्ञान इत्यादी क्लेशांपासून दूर आहे. (अपापविद्धम्) त्यामुळे ईश्वर पापयुक्त किंवा पाप करणारा नसतो. कारण तो स्वभावानेच धर्मात्मा आहे, (कवि:) जो सर्वांना जाणणारा आहे (मनीषी) जो सर्वांचा अंतर्यामी आहे. भूत, भविष्य, वर्तमान या तीन काळांना यथावत जाणणारा आहे. (परिभू:) जो सर्वांवर विराजमान होत आहे. (स्वयंभू:) तोच सर्वांचे कारण आहे, स्वत: कधीच उत्पन्न होत नाही त्याचे कारणही कोणी नाही. अनादि व अनंत आहे. त्यामुळे तो सर्वांचा माता-पिता आहे. आपल्या सामर्थ्याने सदैव वर्तमान असतो. या अनेक लक्षणांनी युक्त सच्चिदानंदस्वरूप परमेश्वर आहे. (शाश्वतीभ्य:) त्याने सृष्टीच्या आरंभी आपल्या प्रजेला, जी त्याच्या सामर्थ्यामध्ये सदैव वर्तमान असते. त्यांच्या सुखासाठी (अर्थान् व्यदधात्) सत्य अर्थांचा उपदेश केलेला आहे. त्याच प्रकारे परमेश्वर जेव्हा जेव्हा सृष्टीची रचना करतो, तेव्हा तेव्हा प्रजेच्या हितासाठी सृष्टीच्या आरंभी सर्व विद्यांनी युक्त वेदांचा उपदेश करतो व जेव्हा जेव्हा सृष्टीचा प्रलय होतो तेव्हा तेव्हा वेद सदैव त्याच्या ज्ञानात असतात. त्यामुळे त्यांना सदैव नित्य मानले पाहिजे.

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    God is All pervading, Lustrous, Bodiless, Flawless, Sinewless, Pure, Unpierced by evil. He is Omniscient, Knower of the hearts of all, Censurer of the sinful and Self-existent. He truly reveals through the Vedas all things for His subjects from His immemorial attributes, free from birth and death.

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    Meaning

    The Supreme Soul is omnipresent, omnipotent, without body, without any flaw, without sinews, pure, sinless, visionary poetic creator and omniscient, existent in the heart and mind of all, transcendent, self-existent, who for the infinite ages of eternity creates, organises, reveals and sustains all the forms of existence as they are and ought to be.

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    Purport

    That Almighty Lord pervades the whole universe, just like space i.e. He os Ommnipresent. He is the Creator of the whole world. He never assumes a body-He never omcarnates Himself. Being indivisible, infinite, unchangeable, He never assumesa body [form]. No entity is greater than Him, hence His assuming a form is impossible. Heis entire and uniform or He is imperforable, unpierceable, indivisible, unshakable and immovable. As the relation of a part to the whole is not possible in Him, there can be no piercing or cutting of Him. He is devoid of nerves, arteries and veins, because He is bodiless.Gpd being most subtle, there cannot be any veil which can cover Him. That God is always pure, sinless, devoid of ignorance, birth and death,happiness and sorrow, hunger and thirst and all other such blemishes. The worshipper of Pure Being is pure himself and the meditater upon impure Bieng is surely impure himself.God never commits injustice, because he is always ordainer of justice . God is the knower of three fractions of time-past, present and future . He knows each and everything [He is Omniscient], Most learned [wise]. None can find the fathom of his knowledge . He is the witness of the minds of all the beings and is the controller of the minds of all. He pervades and fills all the space in all directions.He is the bestower of knowledge and ruler of all and shines above all in glory. God is Self-ecistent.He has no primitive cause such as mother,father producer. On the other hand,He Himself is the first cause of all. God has revealed for his subjects, for the welfare of all human beings,the true knowledge in the pine form of the four Vedas. God-our merciful father has graciously illuminated the sun of the Vedic knowledge in order to destroy the darkness of ignorance. God is the primitive cause of the whole universe, everyone should acknowledge this fact. He is the first cause of book of knowledge i.e. Vedäs, This should also be, surely accepted. God by his kindness has revealed-preached knowledge the Vedas. When He has donated us [given in charity] all the things in this world, then why He would not confer upon us the gift of true knowledge. God has surely donated the gift of excellent knowledge and there is no other book except the Vedas in the world, which is revealed by God. Just as God is the most learned [wisest] and Just [Judicious], so are the Vedas. No other book is revealed by God, or is equal to or superior to the Vedās. Further details on this topic can be seen in 'Satyarthprakāśaḥ' written by me.

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    Translation

    He attains the bodiless, uninjurable, sinewless, pure and sinless bright one. He the Supreme Self farsighted, wise, surpassing all, and self-existent, creates the objects in all propriety for all times to come. (1)

    Notes

    Sa paryagāt, he comprehends; attains. The idea of Supreme God has been developed clearly and unmistakably in this mantra, and perhaps it has been borrowed from here by other thinkers (prophets) of the world. Sukram, शुद्धं, bright. Akayam, bodiless. Avranam, uninjured; uninjurable. Asnäviram,स्नायुरहितं sinewless. Apāpaviddham sinless; whom sin does not touch. Kaviḥ,क्रांतदर्शी, one who can see past, present and future at a time. Manişi, मेधावी , wise. Svayambhuḥ, self-existent. Paribhih, पराभवति अन्यान्, one who subdues all. Also, ज्ञानबलात् सर्वरूप:, existing in all the forms.

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    बंगाली (2)

    विषय

    পুনঃ পরমেশ্বরঃ কীদৃশ ইত্যাহ ॥
    পুনঃ পরমেশ্বর কেমন, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যে ব্রহ্ম (শুক্রম্) শীঘ্রকারী সর্বশক্তিমান্ (অকায়ম্) স্থূল সূক্ষ্ম ও কারণশরীর রহিত (অব্রণম্) ছিদ্ররহিত এবং ছিদ্র করিবার যোগ্য নহে (অস্নাবিরম্) নাড়ি আদি সহ সম্বন্ধরূপ বন্ধন হইতে রহিত (শুদ্ধম্) অবিদ্যাদি দোষ হইতে রহিত হওয়ায় সর্বদা পবিত্র এবং (অপাপবিদ্ধম্) যিনি পাপযুক্ত, পাপকারী এবং পাপে প্রীতিকারী কখনও হয়না (পরি, অগাৎ) সব দিক দিয়া ব্যাপ্ত, যিনি (কবিঃ) সর্বজ্ঞ (মনীষী) সকল জীবদের মনোবৃত্তিকে জানেন (পরিভূঃ) দুষ্ট পাপীদেরকে তিরস্কারকারী এবং (স্বয়ম্ভুঃ) অনাদি স্বরূপ যাহার সংযোগ হইতে উৎপত্তি, বিয়োগ হইতে বিনাশ, মাতা, পিতা, গর্ভবাস, জন্ম, বৃদ্ধি ও মরণ হয় না সেই পরমাত্মা (শাশ্বতীভ্যঃ) সনাতন অনাদি স্বরূপ নিজ নিজ স্বরূপে উৎপত্তি ও বিনাশরহিত (সমাভ্যঃ) প্রজাদিগের জন্য (য়াথাতথ্যতঃ) যথার্থ ভাবপূর্বক (অর্থাৎ) বেদ দ্বারা সকল পদার্থকে (ব্যদধাৎ) বিশেষ করিয়া নির্মাণ করে । (সঃ) সেই পরমেশ্বর তোমাদের উপাসনা করিবার যোগ্য ॥ ৮ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যিনি অনন্ত শক্তিযুক্ত অজন্মা, নিরন্তর, সদা যুক্ত, ন্যায়কারী, নির্মল, সর্বজ্ঞ, সকলের সাক্ষী, নিয়ন্তা, অনাদিস্বরূপ ব্রহ্ম কল্পের আরম্ভে জীবদেরকে স্বকথিত বেদ হইতে শব্দ, অর্থ এবং তাহার সম্বন্ধকে জানাইবার বিদ্যার উপদেশ না করেন তাহা হইলে কেহই বিদ্বান্ হইবে না এবং না ধর্ম, অর্থ, কাম ও মোক্ষের ফল ভোগ করিতে সক্ষম হয়, এইজন্য এই ব্রহ্মের সর্বদা উপাসনা কর ॥ ৮ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    স পর্য়॑গাচ্ছু॒ক্রম॑কা॒য়ম॑ব্র॒ণম॑স্নাবি॒রꣳ শু॒দ্ধমপা॑পবিদ্ধম্ । ক॒বির্ম॑নী॒ষী প॑রি॒ভূঃ স্ব॑য়॒ম্ভূর্য়া॑থাতথ্য॒তোऽর্থা॒ন্ ব্য᳖দধাচ্ছাশ্ব॒তীভ্যঃ॒ সমা॑ভ্যঃ ॥ ৮ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    স পর্য়্যগাদিত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । আত্মা দেবতা । স্বরাড্জগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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    পদার্থ

    স পর্য়গাচ্ছুক্রমকায়মব্রণমস্নাবিরং শুদ্ধমপাপবিদ্ধম্ ।
    কবির্মনীষী পরিভূঃ স্বয়ম্ভূর্য়াথাতথ্যতোঽর্থান্ ব্যদধাচ্ছাশ্বতীভ্যঃ সমাভ্যঃ ।।৯১।।
    (যজু, ৪০।০৮)
    পদার্থঃ হে মানব ! যে ব্রহ্ম (শুক্রম্) শীঘ্রকারী, সর্বশক্তিমান, (অকায়ম্) স্থূল, সূক্ষ্ম এবং কারণ শরীর রহিত, (অব্রণম্) ছিদ্ররহিত এবং যাকে খণ্ডিত করা যায় না, (অস্নাবিরম্) নাড়ি আদির বন্ধন রহিত, (শুদ্ধম্) অবিদ্যাদি দোষ রহিত হওয়ার কারণে সদা পবিত্র, (অপাপবিদ্ধম্) যিনি কখনো পাপযুক্ত, পাপাচারী এবং পাপপ্রেমী নন, তিনি (পরি অগাৎ) সর্বত্র ব্যাপক, (কবিঃ) সর্বজ্ঞ, (মনীষী) সকল জীবের মনোবৃত্তির জ্ঞাতা, (পরিভূঃ) দুষ্ট পাপীদের তিরস্কারকারী, (স্বয়ম্ভূঃ) অনাদিস্বরূপ, যার সংযোগ দ্বারা উৎপত্তি এবং বিয়োগ দ্বারা বিনাশ হয় না, যার মাতা পিতা কেউ নেই এবং যার গর্ভবাস, জন্ম, বৃদ্ধি এবং ক্ষয় হয় না, সেই পরমাত্মা (শাশ্বতীভ্যঃ) সনাতন, অনাদিস্বরূপ, নিজ স্বরূপের দৃষ্টিতে উৎপত্তি এবং বিনাশ রহিত (সমাভ্যঃ) প্রজাদের জন্য (য়াথাতথ্যতঃ) যথাযথভাবে (অর্থান্) বেদের দ্বারা সমস্ত পদার্থের (ব্যদধাৎ) বিশেষ উপদেশ প্রদান করেছেন, (সঃ) সেই পরমাত্মাই তোমাদের উপাস্য ।

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে মনুষ্য! যদি অনন্ত শক্তিশালী, জন্মরহিত, অখণ্ড, সদা মুক্ত, ন্যায়কারী, পাপরহিত, সর্বজ্ঞ, সবার দ্রষ্টা, নিয়ন্তা এবং অনাদিস্বরূপ ব্রহ্ম সৃষ্টির আদিতে স্বয়ং প্রোক্ত বেদের দ্বারা শব্দ, অর্থ এবং সম্বন্ধকে বর্ণনাকারী বিদ্যার উপদেশ না করতেন; তো কেউ বিদ্বান হতে পারতো না। আর না ধর্ম-অর্থ-কাম-মোক্ষরূপ ফলকে প্রাপ্ত করতে পারত। এইজন্য সদা এই ব্রহ্মের উপাসনা কর।
    পরমেশ্বর কেমন - যে ব্রহ্ম শীঘ্রকারী, সর্বশক্তিমান, স্থূল, সূক্ষ্ম ও কারণ শরীররহিত, ছিদ্ররহিত এবং অখণ্ড নাড়ি আদির বন্ধনরহিত, অবিদ্যাদি দোষরহিত হওয়ার কারণে সদা পবিত্র; যিনি কখনো পাপযুক্ত, পাপাচারী এবং পাপপ্রিয় হন না; তিনি সর্বজ্ঞ, সকল জীবের মনেবৃত্তির জ্ঞাতা, দুষ্ট পাপীদের তিরস্কারকারী, স্বয়ম্ভূ অর্থাৎ অনাদি, তিনি সংযোগ দ্বারা উৎপত্তি এবং বিয়োগ দ্বারা বিনাশ হন না। তাঁর মাতা পিতা কেউ নেই, তিনি কখনো গর্ভবাস করেন না। তিনি জন্ম, বৃদ্ধি এবং ক্ষয়রহিত। অনন্ত শক্তিবান, অজ, নিরন্তর সদা মুক্ত, ন্যায়কারী, নির্মল, সর্বজ্ঞ, সবার সাক্ষী, নিয়ন্তা, অনাদিস্বরূপ ব্রহ্ম, সৃষ্টির আদিতে সনাতন অনাদি স্বরূপ দ্বারা উৎপত্তি এবং বিনাশ দ্বারা রহিত জীবের জন্য যথার্থরূপে বেদের দ্বারা সমস্ত পদার্থের উপদেশ করেছেন। যদি ব্রহ্ম স্বয়ং প্রোক্ত বেদের দ্বারা শব্দ অর্থ সম্পদকে বিজ্ঞাপক বিদ্যার উপদেশ না করতেন, তবে কোন মনুষ্য বিদ্বান হতে পারত না এবং না কেউ ধর্ম, অর্থ, কাম, মোক্ষের ফলকে প্রাপ্ত করতে পারত। অতঃ সকল মনুষ্য! তোমরা মন্ত্রোক্ত ব্রহ্মেরই উপাসনা করো।। ৯১।।
     

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    नेपाली (1)

    विषय

    स्तुतीविषय :

    व्याखान

    सः पर्यगात् = त्यो परमात्मा आकाश जस्तै सबै ठाऊँ मा परिपूर्ण[व्यापक]छशुक्रम्=सम्पूर्ण जगत् को कर्ता उही हो।अकायम्= र त्यो कहिल्यै शरीर धारण [अवतार] गर्दैन, त्यो अखण्ड, अनन्त र निर्विकार हुना ले कहिल्यै पनि देह धारण गर्दैन । ऊ भन्दा पहिले को कुनै पदार्थ छैन, एस कारण ईश्वर को शरीर धारण कहिल्यै सिद्ध हुनसक्तैन । अव्रणम् = ऊ अखण्ड, एकरस, अच्छेद्य, अभेद्य, निष्कम्प र अचल छ, एसकारण उसमा अंशांसि भाव पनि छैन । किनकि उसमा कुनै प्रकार को पनि छिद्र हुन सक्तैन अस्नाविरम् = नाडी आदि को प्रतिबन्ध [निरोध] पनि उसको हुन सक्तैन । अतिनै सूक्ष्म हुनाले ईश्वर को कुनै अवतरण हुन सक्तैन । शुद्धम् = त्यो परमात्मा सदैव निर्मल, अविद्यादि क्लेश, जन्म, मरण, हर्ष, शोक, क्षुधा, तृषादि दोषोपाधि हरु देखि रहित छ । शुद्ध को उपासना गर्ने शुद्ध नै हुन्छ । र मलिन को उपासना गर्ने मलिन नै हुन्छ । अपापविद्धम् = परमात्मा कहिल्यै अन्याय गर्दैन किन भने ऊ सदैव न्यायकारी नै हो । कविः=त्रैकालज्ञ [ सर्ववित्] महाविद्वान्, जसका विद्या को अन्त कसैले कहिल्यै लिन सक्तैन । मनीषी= समस्त जीव हरु को मन [विज्ञान] को साक्षी सबैको मन लाई दमन गर्ने । परिभू: = -सबै दिशा हरु मा र सबै ठाँउ मा परिपूर्ण भई रहेछ, सबैमाथि विराजमान छ। स्वयंभूः-जसको आदिकारण- माता-पिता, उत्पादक कोहि छैन, किन्तु ऊ नै सबैको आदिकारण हो । याथातथ्यतोर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः= तेस ईश्वर ले आफ्ना प्रजा लाई यथावत् सत्य, सत्यविद्या जुन चार वेद हुन् तिनको सबै मानिस हरु लाई परम हितार्थ उपदेश गरेको छ, त्यो हाम्रो दयामय पिता परमेश्वरले बडो कृपा गरी अविद्यान्धकार को नाशक वेदविद्यारूप सूर्य प्रकाशित गरेको छ अरू सबैको आदिकारण परमात्मा हो, यस्तो अवश्य मान्नु पर्दछ, एवं विद्यापुस्तक को पनि आदिकारण ईश्वर लाई नै निश्चित मान्नु पर्दछ, विद्या को उपदेश ईश्वर ले आफ्नो निज कृपा ले गरेको छ । किनकि हामी हरु का लागी उसले सबै पदार्थ हरु दान गरेको हो भने विद्या को दान किन गर्दैन थ्यो? सर्वोत्कृष्ट विद्या-पदार्थ को दान परमात्मा ले अवश्य गरेको हो अरू वेद बाहेक अर्को कुनै पुस्तक संसार मा ईश्वरोक्त छैन । जसरी पूर्ण विद्यावान् र न्यायकारी ईश्वर छ । तेसरी नै वेदपुस्तक पनि हुन् । अन्य कुनै पुस्तक ईश्वरकृत, वेदतुल्य वा अधिक छैनन् । यस विषय मा विस्तृत विचार मँद्वारा लिखित ग्रन्थ “सत्यार्थप्रकाश” मा हेर्नु होला ॥ २ ॥

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