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यजुर्वेद अध्याय - 40
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  • यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 6
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - आत्मा देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    616

    यस्तु सर्वा॑णि भू॒तान्या॒त्मन्ने॒वानु॒पश्य॑ति।स॒र्व॒भू॒तेषु॑ चा॒त्मानं॒ ततो॒ न वि चि॑कित्सति॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः। तु। सर्वा॑णि। भू॒तानि॑। आ॒त्मन्। ए॒व। अ॒नु॒पश्य॒तीत्य॑नु॒ऽपश्य॑ति ॥ स॒र्व॒भू॒तेष्विति॑ सर्वऽभू॒तेषु॑। च॒। आ॒त्मान॑म्। ततः॑। न। वि। चि॒कि॒त्स॒ति॒ ॥६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्नेवानुपश्यति । सर्वभूतेषु चात्मानन्ततो न वि चिकित्सति ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यः। तु। सर्वाणि। भूतानि। आत्मन्। एव। अनुपश्यतीत्यनुऽपश्यति॥ सर्वभूतेष्विति सर्वऽभूतेषु। च। आत्मानम्। ततः। न। वि। चिकित्सति॥६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 40; मन्त्र » 6
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेश्वरविषयमाह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! य आत्मन्नेव सर्वाणि भूतान्यनुपश्यति, यस्तु सर्वभूतेष्वात्मानं च समीक्षते, स ततो न विचिकित्सतीति यूयं विजानीत॥६॥

    पदार्थः

    (यः) विद्वान् जनः (तु) पुनरर्थे (सर्वाणि) अखिलानि (भूतानि) प्राण्यप्राणिरूपाणि (आत्मन्) परमात्मनि (एव) (अनुपश्यति) विद्याधर्मयोगाभ्यासानन्तरं समीक्षते (सर्वभूतेषु) सर्वेषु प्रकृत्यादिषु (च) (आत्मानम्) अतति सर्वत्र व्याप्नोति तम् (ततः) तदनन्तरम् (न) (वि) (चिकित्सति) संशयं प्राप्नोति॥६॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः! ये सर्वव्यापिनं न्यायकारिणं सर्वज्ञं सनातनं सर्वात्मानं सकलस्य द्रष्टारं परमात्मानं विदित्वा सुखदुःखहानिलाभेषु स्वात्मवत् सर्वाणि भूतानि विज्ञाय धार्मिका जायन्ते, त एव मोक्षमश्नुवते॥६॥

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    हिन्दी (6)

    विषय

    अब ईश्वर विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! (यः) जो विद्वान् जन (आत्मन्) परमात्मा के भीतर (एव) ही (सर्वाणि) सब (भूतानि) प्राणी-अप्राणियों को (अनुपश्यति) विद्या, धर्म और योगाभ्यास करने के पश्चात् ध्यानदृष्टि से देखता है (तु) और जो (सर्वभूतेषु) सब प्रकृत्यादि पदार्थों में (आत्मानम्) आत्मा को (च) भी देखता है, वह विद्वान् (ततः) तिस पीछे (न) नहीं (वि चिकित्सति) संशय को प्राप्त होता, ऐसा तुम जानो॥६॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो! जो लोग सर्वव्यापी, न्यायकारी, सर्वज्ञ, सनातन, सबके आत्मा, अन्तर्यामी, सबके द्रष्टा परमात्मा को जान कर सुख-दुःख हानि-लाभों में अपने आत्मा के तुल्य सब प्राणियों को जानकर धार्मिक होते हैं, वे ही मोक्ष को प्राप्त होते हैं॥६॥

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    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज

    बेटा! यह प्रकृति ब्रह्म में ठहरी हुई दृष्टिपात आती है। वह जो परब्रह्म परमात्मा है वह आत्मा में ठहरा हुआ दृष्टिपात आता है। यह आत्मा और प्रकृति दोनों ब्रह्म में ठहरी हुई दृष्टिपात आती है। एक दूसरे की सहकारिता से ही बेटा! यह जगत् अपने  अपने आँगन में अपने अपने आसन पर ही नृत्य कर रहा है। जिस प्रकार बेटा! अन्तरिक्ष में लोक लोकान्तर मानो अपने अपने आँगन में नृत्य कर रहे हैं। ध्रुव मण्डल अपने आँगन में नृत्य कर रहा है। पृथ्वी अपने आँगन में नृत्य कर रही है। अपने अपने आसन पर नृत्य करने मात्र से यह जगत मुनिवरों! देखो, अपने ही आँगन में ठहरा हुआ है। एक चेतना में ठहरा हुआ यह संसार में दृष्टिपात आता रहता है।
    तो इसीलिए बेटा! आज मैं अधिक चर्चा प्रकट नहीं करूंगा। क्योंकि विचार क्या कि आज हम परमात्मा के क्षेत्र में जाने का प्रयत्न करें। क्योंकि महान परमात्मा में यह जगत ठहरा हुआ है और आत्मा मुनिवरों! देखो, एक दूसरे जो त्रैतवाद है। अपने अपने आँगन में एक दूसरे की सहकारिता से ही यह संसार दृष्टिपात आ रहा है। बेटा! जब मैं यह विचारता रहता हूँ, संसार की उस महान ऊँची से ऊँची उड़ान उड़ने लगते हैं। क्या हमें इस उड़ान में उड़ना है। आत्मा की जो उड़ान है, विज्ञान की जो उड़ान है, इसमें प्रत्येक मानव को उड़ना है। मानव के मस्तिष्क में यह कल्पना आ जाती है। इसी कल्पना के साथ बेटा! अपनी मानवीयता को ऊर्ध्व बनाना, यौगिकता क्षेत्र में ले जाना है। मुनिवरों! देखो, जो आत्मवेत्ता पुरुष होते हैं, जो आत्मा को जान लेते हैं, मुनिवरों! देखो, उनके सम्पर्क में जाने से मानव का हृदय परिपक्व होता है। वे भी उस सिद्धान्त को तोड़ने लगते हैं।
    जो मुनिवरों! देखो, योग सिद्ध आत्माएं होती हैं, योग सिद्ध आत्माओं की यह जानकारी है। जब उनकी पृथ्वी से ले करके और भी मुनिवरों! देखो, ध्रुव मण्डल क्या उनके लिए नाना प्रकार के लोक लोकान्तरों तक उनकी उड़ान होती है। मुनिवरों! देखो, जो योग सिद्ध आत्माएं होती हैं उनकी बहुत ऊँची उड़ान होती है। जिस प्रकार बेटा! भौतिक विज्ञानवेत्ता केवल श्वास के द्वारा ही उसका चित्रण कर लेता है। उसको यन्त्रों में भरण कर देता है। इसी प्रकार बेटा! जो योग सिद्ध आत्माएं होती हैं वे त्रैतवाद को ले करके और मुनिवरों! देखो, प्रकृति से ब्रह्म तक उनकी उड़ान इतनी विशाल होती है कि वह उस महान आँगन में चले जाते हैं। चले जाने के पश्चात् मानवीय क्षेत्र में एक मानवता का दिग्दर्शन होता रहता है। और बेटा! देखो, वह इस प्रकृति के उस महान आँगन को नहीं छूना चाहते। जिसमें विडम्बना (छलना) हो जिसमें दाह हो, वे उस ब्रह्म की दाह को अपने में ग्रहण कर लेते हैं जिससे मुनिवरों! देखो, पिपासा शान्त हो जाती है।
    तो मेरे प्यारे ऋषिवर! आज मैं अधिक चर्चा प्रकट करने नहीं आया हूँ। विचार यह देने आया हूँ। बेटा! शेष विचार तो मैं कल ही दे सकूंगा। आज का विचार तो संक्षिप्त परिचय देना हमारा कर्त्तव्य है। क्योंकि जैसा मुझे आज के वेद मन्त्रों से कुछ आभास हुआ, वायु मण्डल में से कुछ ऐसे परमाणुओं का आभास हुआ, उसके आभास पर मुनिवरों! मैंने अपना कुछ सक्षिप्त परिचय देना प्रारम्भ किया। और वह परिचय क्या? हम त्रैतवाद को ले करके चलें। और त्रैतवाद का जो योग है, बेटा! वह सिद्ध होता है। वह महत्ता में ले जाता है। मुनिवरों! जो एकेश्वरवाद या अद्वैतवाद को जो ब्रह्म को ले करके चलता है, एक ही ब्रह्म है, मुनिवरों! देखो, जब तक एक ही ब्रह्म को ले करके चलते हैं तो उसमें मुनिवरों! देखो, सृष्टि का जो क्रम है मानो मानवीय जो कर्म है उसमें भिन्नता आ जाती है। उसमें एक अकृतता आ जाती है। सृष्टि का क्रम है मानो मानवीय जो कर्म है उसमें भिन्नता आ जाती है। उसमें अकृतता आ जाती है। सृष्टि का क्रम अच्छी प्रकार हम वर्णन नहीं कर सकते। उसमें नाना प्रकार के दोषारोपण ही दृष्टिपात आने लगते हैं।
    तो बेटा! में आज अधिक चर्चा प्रकट नहीं करूंगा। क्योंकि इस विषय में मैं कल अपना विचार प्रकट करूंगा। क्योंकि आज का विषय तो केवल इतना ही परिचय दिलाना चाहता हूँ। संसार में त्रैतवाद को ले करके चलाना चाहिए। कल मैं यह चर्चाएं करूंगा कि योग सिद्ध आत्माएं किस प्रकार अपनी विवेचना में परिणत होती रहती हैं। और किस प्रकार वह वायु मण्डल में अपने शरीरों को धारण करती हैं। कल बेटा! मैं इस विषय के ऊपर अपना प्रकाश दे सकूंगा। जितना मुनिवरों! देखो, मैंने जाना है उसके आधार पर अपनी विवेचना प्रकट करूंगा।

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    पदार्थ

     पदार्थ = ( यस्तु ) = जो भी विद्वान्  ( सर्वाणि भूतानि ) = सब चर अचर पदार्थों को  ( आत्मन् एव ) = परमात्मा के ही आश्रित  ( अनु पश्यति ) = वेदों के स्वाध्याय, महात्माओं के सत्संग धर्माचरण और योगाभ्यास आदि साधनों से साक्षात् कर लेता है और  ( सर्वभूतेषु च ) = सब प्रकृति आदि पदार्थों में  ( आत्मानम् ) = परमात्मा को व्यापक जानता है  ( ततः ) = तब वह  ( न विचिकित्सति ) = संशय को नहीं प्राप्त होता । 

    भावार्थ

    भावार्थ = जो विद्वान् पुरुष, सब प्राणी अप्राणी जगत् को परमात्मा के आश्रित देखता है और सब प्रकृति आदि पदार्थों में परमात्मा को जानता है। ऐसे विद्वान् महापुरुषों के हृदय में कोई संशय नहीं रहता।

    इस मन्त्र का दूसरा अर्थ ऐसा होता है कि जो, विद्वान् पुरुष सब प्राणियों को अपने आत्मा में और अपने आत्मा को सब प्राणियों में देखता है वह किसी से घृणा वा किसी की निन्दा नहीं करता, अर्थात् वह सबका हितेच्छु शुभचिन्तक बन जाता है ।

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    विषय

    सर्वत्र आत्मदर्शन ।

    भावार्थ

    (यः तु) जो पुरुष (सर्वाणि भूतानि) सब प्राणियों और प्राणरहित पदार्थों को भी (आत्मन् एव ) परमात्मा पर ही आश्रित (अनु पश्यति) विद्याभ्यास, धर्माचरण और योगाभ्यास कर साक्षात् कर लेता है और (सर्वभूतेषु च ) समस्त प्रकृति आदि पदार्थों में ( आत्मानम् ) परमेश्वर को व्यापक जानता है । (ततः) तब वह (न विचिकित्सति) संदेह में नहीं पड़ता |

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आत्मा | निचृद् अनुष्टुप् । गांधारः ॥

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    विषय

    सन्देह व घृणा से दूर

    पदार्थ

    १. 'प्रभु की सर्वव्यापकता, अन्दर व बाहर सर्वत्र उसकी सत्ता का अनुभव करनेवाला व्यक्ति सब प्रकार के सन्देह व घृणा से ऊपर उठ जाता है, इस बात को प्रस्तुत मन्त्र इन शब्दों में कहता है- (यः तु) = जो तो (सर्वाणि भूतानि) = सब प्राणियों को (आत्मन्) = सर्वव्यापक आत्मतत्त्व में (एव) = ही (अनुपश्यति) = अपने स्वरूप को देखने के साथ देखता है, (च) = और (सर्वभूतेषु) = सब प्राणियों में (आत्मानम्) = परमात्मा को देखता है (ततः) = फिर (न वचिकित्सति) = किसी प्रकार का सन्देह नहीं करता है। २. प्रभु का दर्शन हमें सन्देह व घृणा से ऊपर उठा देता है। घृणा तो मनुष्यमात्र में प्रभु को देखने से ही नहीं रहती। सब भूतों में प्रभु को देखनेवाला सब भूतों से प्रेम करता है व उन्हें आदर से देखता है। पण्डित सबमें समरूप से अवस्थित प्रभु को ही देखते हैं। सर्वत्र प्रभुदर्शन ही सच्चा वेदान्त है। यह व्यक्ति निर्भीक व निर्घृण होता है। घृणा से ऊपर उठा हुआ यह प्रेम का पुञ्ज बन जाता है। इसका ज्ञान सब उपाधियों से ऊपर उठा हुआ है, अतः यह सचमुच 'दीर्घतमा' = दूर हो गये अन्धकारवाला है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु को सबमें और सबमें प्रभु को देखें, यही 'तत्त्वज्ञान' है। यही सन्देह व घृणा से ऊपर उठने का साधन है।

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    मन्त्रार्थ

    (यः-तु) जो तो (सर्वाणि भूतानि) समस्त वस्तुओं को (आत्मन् एव) विश्व के आत्मा-परमात्मा में 'स्थित' ही (अनुपश्यति) देखता है- अनुभव करता है (च) और (सर्वभूतेषु) समस्त वस्तुओं में 'व्याप्त' (आत्मानम्) परमात्मा को देखता है अनुभव करता है (तत्) फिर, वह (न विचिकित्सति) संशय को प्राप्त नहीं होता वह सूर्य आदि को देख उसे ईश्वर नहीं समझता है- चलित नहीं होता है ॥६॥

    विशेष

    "आयुर्वै दीर्घम्” (तां० १३।११।१२) 'तमुग्राकांक्षायाम्,' (दिवादि०) "वस निवासे" (स्वादि०) "वस आच्छादने" (अदादि०) श्लेषालङ्कार से दोनों अभीष्ट हैं। आवश्यके ण्यत् "कृत्याश्च" (अष्टा० ३।३।१७१)

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जे लोक सर्वव्यापी, न्यायकारी, सर्वज्ञ, सनातन, सर्वांचा आत्मा, अंतर्यामी, सर्वदृष्टा अशा परमेश्वराला जणून सुख-दुःख हानी लाभ यामध्ये आपल्या आत्म्याप्रमाणे सर्व प्राण्यांना समजून धार्मिक बनतात तेच मोक्ष प्राप्त करतात.

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    विषय

    पुढील मंत्रात ईश्‍वराविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यहो, (यः) जो विद्वान मनुष्य, (सर्वाणि) (भूतानि) सर्व प्राणी (आत्मन्) परमात्म्यामधे (एव) अंतर्गत आहेत, असे (अनु, पश्मति) पाहतो म्हणजे, धर्म आणि योगाभ्यास केल्यानंतर ध्यानदृष्ट्या त्यास जाणतो (तु) आणि जो विद्वान (सर्वभूतेषु) सर्व प्रकृती आदी पदार्थांमधे (आत्मनम्) त्या आत्म्यास (परमेश्‍वरास) पाहतो, तो विद्वान (ततः) त्या ईश्‍वराविषयी कोणत्याही प्रकारे (न) (विचिकित्सति) संशय करीत नाही. (तो ईश्‍वराचे सत्यस्वरूप ओळखतो) ॥6॥

    भावार्थ

    भावार्थ - हे मनुष्यानो, जे लोक परमेश्‍वराला सर्वव्यापी, न्यायकारी, सर्वज्ञ, सनातन, सर्वात्मा, अंतर्यामी, सर्वद्रष्टा या रूपात जाणतात आणि सुख-दुःख, हानी-लाभ आदी प्रसंगी सर्वांचा आपल्याप्रमाणे विचार करतात, ते मार्मिक असून मोक्ष प्राप्त करतात, असे जाणावे. ॥6॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The man, who sees all animate and inanimate creation in God, and God pervading all material objects, falls not a prey to doubt.

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    Meaning

    One who sees all the forms of existence existing within the Supreme Soul, and the Supreme Soul immanent in all the forms of being, suffers from no doubt or illusion (and holds on to faith).

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    Translation

    He, who realizes all the beings in the Supreme Self itself, and the Supreme Self in all the beings, suffers not from doubts whatsoever, thereafter. (1)

    Notes

    Na vi cikitsati, has no doubts; is not confused. In Kāņva Samhita, the reading is 'na vi jugupsate', which will mean, 'does not shrink away from them' as an alien and inferior to his own self.

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    बंगाली (2)

    विषय

    অথেশ্বরবিষয়মাহ ॥
    এখন ঈশ্বর বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! (ত্বা) যে বিদ্বান্ (আত্মন্) পরমাত্মার ভিতর (এব)(সর্বাণি) সকল (ভূতানি) প্রাণী-অপ্রাণী সকলকে (অনুপশ্যতি) বিদ্যা, ধর্ম ও যোগাভ্যাস করিবার পশ্চাৎ সমীক্ষা করে (তু) এবং যে (সর্বভূতেষু) সব প্রকৃত্যাদি পদার্থ সকলে (আত্মানম্) আত্মাকে (চ) ও দেখে সে বিদ্বান্ (ততঃ) তদনন্তর (না) নয় (বি, চিকিৎসতি) সংশয়কে প্রাপ্ত হয়, এইরকম তুমি জান ॥ ৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যাহারা সর্বব্যাপী ন্যায়কারী সর্বজ্ঞ সনাতন সকলের আত্মা অন্তর্য্যামী সকলের দ্রষ্টা পরমাত্মাকে জানিয়া সুখ-দুঃখ, ক্ষতি-লাভে স্বীয় আত্মার তুল্য সকল প্রাণিদিগকে জানিয়া ধার্মিক হয়, তাহারাই মোক্ষ লাভ করিয়া থাকে ॥ ৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়স্তু সর্বা॑ণি ভূ॒তান্যা॒ত্মন্নে॒বানু॒পশ্য॑তি ।
    স॒র্ব॒ভূ॒তেষু॑ চা॒ত্মানং॒ ততো॒ ন বি চি॑কিৎসতি ॥ ৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়স্ত্বিত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । আত্মা দেবতা । নিচৃদনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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    পদার্থ

    য়স্তু সর্বাণি ভূতান্যাত্মন্যেবানুপশ্যতি ।
    সর্বভূতেষু চাত্মনং ততো ন বি চিকিৎসতি ।।৮৯।।
    (যজু, ৪০।০৬)
    পদার্থঃ হে মানুষ ! (য়ঃ) যে বিদ্বানগণ (আত্মন্) পরমাত্মাতেই (সর্বাণি) সকল (ভূতানি) জড় ও চেতন ভূতসমূহকে (অনুপশ্যতি) বিদ্যা, ধর্মাচরণ এবং যোগাভ্যাসের পশ্চাৎ দর্শন করেন (যঃ তু) এবং যেসব বিদ্বান (সর্বভূতেষু) সকল প্রকৃতি আদি পদার্থের মধ্যে (আত্মানম্) সর্বত্র ব্যাপক পরমাত্মার দর্শন করেন, তিনি (ততঃ) ঐরূপ সম্যকদর্শনের পরে (ন চিকিৎসতি) কোনো সংশয়গ্রস্থ হন না, এরূপ তোমরা জানো ।

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ যে মহান ব্যক্তি সকল জীবের মাঝে ঈশ্বরকে অনুভব করেন, সকলকে পরমাত্মার অংশ ভাবেন, সর্বভূতে ঈশ্বরের দর্শন করেন, সুখে-দুঃখে, ক্ষতি-লাভে আপন আত্মার সমান সকল প্রাণীকে মনে করেন; তিনি কখনও কোনও কিছুর প্রতি বা কারও প্রতি বিদ্বেষভাব প্রাপ্ত না।।৮৯।। 

    এজন্যেই স্বামী বিবেকানন্দ বলেছিলেন, "জীবে প্রেম করে যেইজন, সেইজন সেবিছে ঈশ্বর।" 

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