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यजुर्वेद अध्याय - 40
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  • यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 17
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - आत्मा देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    2330

    हि॒र॒ण्मये॑न॒ पात्रे॑ण स॒त्यस्यापि॑हितं॒ मुखम्।यो॒ऽसावा॑दि॒त्ये पु॑रुषः॒ सोऽसाव॒हम्। ओ३म् खं ब्रह्म॑॥१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हि॒र॒ण्मये॑न॒। पात्रे॑ण। स॒त्यस्य॑। अपि॑हित॒मित्यपि॑ऽहितम्। मुख॑म् ॥ यः। अ॒सौ। आ॒दि॒त्ये। पुरु॑षः। सः। अ॒सौ। अ॒हम्। ओ३म्। खम्। ब्रह्म॑ ॥१७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् । यो सावादित्ये पुरुषः सो सावहम् । ओ३म् खं ब्रह्म ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्मयेन। पात्रेण। सत्यस्य। अपिहितमित्यपिऽहितम्। मुखम्॥ यः। असौ। आदित्ये। पुरुषः। सः। असौ। अहम्। ओ३म्। खम्। ब्रह्म॥१७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 40; मन्त्र » 17
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथान्ते मनुष्यानीश्वर उपदिशति॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! येन हिरण्मयेन पात्रेण मया सत्यस्यापिहितं मुखं विकाश्यते योऽसावादित्ये पुरुषोऽस्ति, सऽसावहं खम्ब्रह्मास्म्यो३मिति विजानीत॥१७॥

    पदार्थः

    (हिरण्मयेन) ज्योतिर्मयेन (पात्रेण) रक्षकेण (सत्यस्य) अविनाशिनः यथार्थस्य कारणस्य (अपिहितम्) आच्छादितम् (मुखम्) मुखवदुत्तमाङ्गम् (यः) (असौ) (आदित्ये) प्राणं सूर्यमण्डले वा (पुरुषः) पूर्णः परमात्मा (सः) (असौ) (अहम्) (ओ३म्) योऽवति सकलं जगत् तदाख्या (खम्) आकाशवद् व्यापकम् (ब्रह्म) सर्वेभ्यो गुणकर्मस्वरूपतो बृहत्॥१७॥

    भावार्थः

    सर्वान् मनुष्यान् प्रतीश्वर उपदिशति। हे मनुष्याः! योऽहमत्रास्मि स एवान्यत्र सूर्यादौ योऽन्यत्र सूर्य्यादावस्मि स एवाऽत्राऽस्मि सर्वत्र परिपूर्णः खवद् व्यापको न मत्तः किञ्चिदन्यद् बृहदहमेव सर्वेभ्यो महानस्मि मदीयं सुलक्षणपुत्रवत् प्राणप्रियं निजस्य नामौ३मिति वर्त्तते। यो मम प्रेमसत्याचरणभावाभ्यां शरणं गच्छति तस्यान्तर्यामि-रूपेणाहमविद्यां विनाश्य तदात्मानं प्रकाश्य शुभगुणकर्मस्वभावं कृत्वा सत्यस्वरूपावरणं स्थापयित्वा शुद्धं योगजं विज्ञानं दत्वा सर्वेभ्यो दुःखेभ्यः पृथक्कृत्य मोक्षसुखं प्रापयामीत्यो३म्॥१७॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    अब अन्त में मनुष्यों को ईश्वर उपदेश करता है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! जिस (हिरण्मयेन) ज्योतिःस्वरूप (पात्रेण) रक्षक मुझसे (सत्यस्य) अविनाशी यथार्थ कारण के (अपिहितम्) आच्छादित (मुखम्) मुख के तुल्य उत्तम अङ्ग का प्रकाश किया जाता (यः) जो (असौ) वह (आदित्ये) प्राण वा सूर्य्यमण्डल में (पुरुषः) पूर्ण परमात्मा है (सः) वह (असौ) परोक्षरूप (अहम्) मैं (खम्) आकाश के तुल्य व्यापक (ब्रह्म) सबसे गुण, कर्म और स्वरूप करके अधिक हूं (ओ३म्) सबका रक्षक जो मैं उसका ‘ओ३म्’ ऐसा नाम जानो॥१७॥

    भावार्थ

    सब मनुष्यों के प्रति ईश्वर उपदेश करता है कि हे मनुष्यो! जो मैं यहां हूं, वही अन्यत्र सूर्य्यादि लोक में, जो अन्यस्थान सूर्य्यादि लोक में हूं वही यहां हूं, सर्वत्र परिपूर्ण आकाश के तुल्य व्यापक मुझसे भिन्न कोई बड़ा नहीं, मैं ही सबसे बड़ा हूं। मेरे सुलक्षणों के युक्त पुत्र के तुल्य प्राणों से प्यारा मेरा निज नाम ‘ओ३म्’ यह है। जो मेरा प्रेम और सत्याचरण भाव से शरण लेता, उसकी अन्तर्यामीरूप से मैं अविद्या का विनाश, उसके आत्मा को प्रकाशित करके शुभ, गुण, कर्म, स्वभाववाला कर सत्यस्वरूप का आवरण स्थिर कर योग से हुए शुद्ध विज्ञान को दे और सब दुःखों से अलग करके मोक्षसुख को प्राप्त कराता हूं। इति॥१७॥

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    पदार्थ


    पदार्थ = ( सत्यस्य ) = सत्यस्वरूप परमात्मा वा ज्ञान रूप मोक्ष का  ( मुखम् ) = द्वार ( हिरण्मयेन ) = सुवर्णादि  ( पात्रेण ) = दरिद्रता रूपी दुःख से रक्षक धन सम्पत्ति से ( अपिहितम् ) = ढका हुआ है  ( यः असौ ) = जो यह  ( आदित्ये ) = प्रलय में सब को संहार करनेवाला जो ईश्वर, उसमें जो  ( पुरुषः ) = जीव है  ( सः असो अहम् ) = सो वह मैं हूं।  ( ओ३म् खम् ब्रह्म ) = सब से उत्तम नाम परमेश्वर का ओ३म् है, वह  ( खम् ) = आकाश के सदृश व्यापक और  ( ब्रह्म ) = सब से बड़ा है । 

    भावार्थ

    पदार्थ = जो पुरुष धन को प्राप्त हो कर धन को शुभ कामों में लगाते हैं, पाप कर्मों में कभी नहीं लगाते वे पुरुष धन्यवाद के योग्य हैं । प्रायः सुवर्णादि धन से प्रमादी लोग, पाप करके मोक्ष मार्ग को प्राप्त नहीं हो सकते। इसलिए मन्त्र में कहा है कि सुवर्णादि धन से मुक्ति का द्वार ढका हुआ है, इसीलिए उपनिषद में कहा है—"तत्त्वं पूषन् अपावृणु" हे सबके पालन पोषण कर्त्ता प्रभो ! उस विघ्न को दूर कर ताकि मैं मुक्ति का पात्र बन सकूं।"ओ३म्" यह परमात्मा का सब से उत्तम नाम है। इस नाम की उत्तमता वेद, उपनिषद्, दर्शन और गीता आदि स्मृतियों में वर्णन की गई है। इसमें वेदों को माननेवालों को कभी सन्देह नहीं हो सकता । उसको (खम्) आकाश की न्याईं व्यापक और सबसे बड़ा होने से ब्रह्म वेद ने कहा है।

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    भावार्थ

    (हिरण्मयेन) सबके हृदयग्राही, हित और रमणीय ज्योतिर्मय (पात्रेण) पालक द्वारा (सत्यस्य) सत्य आत्मा और परमात्म तत्व का ( अपिहितम् ) ढका हुआ ( मुखम् ) मुख खोला जाता है । (यः) जो (असौ) वह (आदित्ये) सूर्य अर्थात् प्राण में (पुरुषः) पुरुष, शक्तिमान् प्रकाशकर्त्ता है ( असौ अहम् ) वह ही मैं हूँ | ( ओ३म् ) सब संसार का रक्षा करने हारा वह (खम् ) आकाश के समान व्यापक, अनन्त और आनन्दमय है और वही (ब्रह्म) गुण, कर्म, स्वभाव में सबसे बड़ा है । (२) अथवा, ढकने से जैसे वस्तु छिपी रहती है उसी प्रकार ज्योतिर्मय पदार्थों से परम शक्ति का सत् पदार्थों में विद्यमान मेरा सत्यस्वरूप छिपा है, दृष्टान्त के रूप से जो महान् शक्ति सूर्य में विद्यमान है वही मैं हूँ । ( यंदादित्यगतं तेजो जगद् भासयतेऽखिलम् । [ मं० १७ यचन्द्रमसि यचानौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ॥ गीता १५ । १२ ॥ ३म् खं ब्रह्मं

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    विषय

    हिरण्मय पात्र

    पदार्थ

    'मनुष्य क्यों कुटिलता व पाप से धन कमाने लगता है?' इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत मन्त्र में इस प्रकार दिया है कि (हिरण्मयेन पात्रेण) = स्वर्ण के बने देदीप्यमान पात्र से (सत्यस्य) = सत्य का (मुखम्) = स्वरूप (अपिहितम्) = ढका हुआ है। यह संसार की सीपी [ शुक्ति] चमकती है और हम इसे चाँदी समझ बैठते हैं, विषयों की आपात रमणीयता से उनका पर्यन्तपरितापित्व छिपा रहता है। विष का माधुर्य उसके विषत्व को विस्मृत करा देता है। संसार चमकता है और उस चमक को ही हम सत्य मान लेते हैं। हमें यह जनश्रुति भूल जाती है कि " All that glitters is not gold." मन्त्र कहता है कि यह चमक उस वस्तु की नहीं। अपने शरीर को ही देखो। यहाँ कब तक चमक है? जब तक अन्दर आत्मा है। आत्मा गई और यह आभाशून्य होकर विश्लिष्ट [Disintigrated] व दुर्गन्धित होने लगा। इसी प्रकार सूर्य आदि में चमक अन्तःस्थित पुरुष [परमात्मा] के ही कारण है। यह सूर्यादि की अपनी चमक नहीं । (यः) = जो (असौ) = वह (आदित्ये) = सूर्यमण्डल में (पुरुषः) = अधिष्ठातृरूपेण स्थित पुरुष है (सः) = वह पुरुष (असौ) = तेरे प्राणों में भी है [असवः प्राणाः], अर्थात् क्या सूर्य की चमक और क्या तेरे इस छोटे से पिण्ड की चमक ये सब उस अन्तःस्थ पुरुष की चमक है। यह इनकी अपनी चमक नहीं। संसार में सर्वत्र उस पुरुष ही की चमक है। ये प्राकृतिक पदार्थ अपने में निष्प्रभ हैं। प्रभु कहते हैं कि इन पदार्थों को प्रभा देनेवाला वह पुरुष ही (अहम्) = मैं हूँ। (खम् ब्रह्म) = आकाश की तरह मैं बढ़ा हुआ व्यापक हूँ। मेरी व्याप्ति से ही प्रकृति में दीप्ति है। हे जीव ! इस दीप्ति को प्रकृति समझकर तू उसमें न उलझ । यदि तू इसमें नहीं उलझेगा तो धन को छल छिद्र से जुटाने के लिए तू लालायित भी क्यों होगा ? तेरा अज्ञानान्धकार दूर हो जाएगा। तू 'दीर्घ-तम' बन जाएगा।

    भावार्थ

    भावार्थ - सांसारिक चमक से हमारी आँखें चुँधियाँ न जाएँ, तभी हम सत्य को देख पाएँगे।

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    मन्त्रार्थ

    (हिरण्मयेन पात्रेण) सुनहरे चमकीले पात्रसमान सूर्य जो संसार को स्वप्रकाश देने से मार्ग दर्शक बना हुआ है इसके द्वारा (सत्यस्य मुखम् अपिहितम्) सत्य स्वरूप सत्य ज्ञानप्रकाश स्वरूप सत्यमार्गदर्शक का स्वरूप ढका गया है इसके बाह्यरूप से वह ढका गया है । परन्तु (आदित्येयः-सौ पुरुषः) सूर्य में जो वह पूर्ण पुरुष है उसे पूरित किए हुए उसमें व्यापे हुए हैं जिसके व्यापने से वह प्रकाशमान तथा संसार का मार्गदर्शक बना हुआ है (सः-असौ-अहम्-ओ३म् खं ब्रह्म) सो वह पुरुष मैं ओ३म् नाम से प्रसिद्ध व्यापक ब्रह्म हूँ तू यह जान ॥१७॥

    विशेष

    "आयुर्वै दीर्घम्” (तां० १३।११।१२) 'तमुग्राकांक्षायाम्,' (दिवादि०) "वस निवासे" (स्वादि०) "वस आच्छादने" (अदादि०) श्लेषालङ्कार से दोनों अभीष्ट हैं। आवश्यके ण्यत् "कृत्याश्च" (अष्टा० ३।३।१७१)

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    सर्व माणसांना ईश्वर उपदेश करतो की, हे माणसांनो ! मी येथे सूर्यलोकात व त्याबाहेर इतर सूर्य लोकातही आहे व आकाशाप्रमाणे सर्वत्र व्यापक आहे. माझ्यापेक्षा कोणी मोठा नाही. मीच सर्वांत मोठा आहे. सुलक्षणी पुत्राप्रमाणे माझे प्रिय नाव ओ३म् आहे. जो माझी भक्ती करतो व सत्याचरण करून शरण येतो. त्याच्या अविद्येचा नाश करून मी अंतर्यामी रूपाने त्याच्या आत्म्यात प्रकाश पाडतो. त्याला शुभ, गुण, कर्म स्वभावाचा बनवितो व सत्यस्वरूपाचे आवरण स्थिर करून योगाच्या साह्याने विज्ञानयुक्त बनवून त्याची सर्व दुःखातून सुटका करतो आणि मोक्ष सुख प्राप्त करून देतो.

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    विषय

    अनन्तः ईश्‍वर मनुष्यांना उपदेश देत आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (ईश्‍वर उपदेश देत आहे) हे मनुष्यानो, जो (हिरण्मयेन जोतिस्वरूप (पात्रेण) आणि सर्वांचा रक्षक असून (सत्यस्य) जो अविनाशी यथार्थ कारण आहे. ज्याद्वारे (अपिहितम्) हे सर्व आच्छादित आहे. (मुखम्) मुखाप्रमाणे उत्तम अंगाद्वारे (जसे तुम्ही) वाणी प्रकाशित करता, तसा) उत्तम वेदवाणीचा प्रकाश) (यः) जो करतो, (असौ) तो जो (आदित्ये) प्राणात वा सूर्यमंडळात व्याप्त (पुरुष) पूर्ण परमात्मा आहे (सः) तो (असौ) परोक्षरूप (अहम्) मी असून मीच (खम्) आकाशाप्रमाणे व्यापक असून (ब्रह्म) गुण, कर्म, स्वभाव यांदृष्टीने सर्वाहून अधिक आहे (ओ3म्) सर्वाचा रक्षक जो मी, त्याचे नांव (ओ3म्) ओ3म् आहे, असे जाणा ॥17॥

    भावार्थ

    भावार्थ - ईश्‍वर मनुष्यमात्रासाठी उपदेश देत आहे की हे मनुष्यानो, जो मी इथे (भूगोलावर) आहे, तोच मी अन्यत्र सूर्य आदी सर्व लोकांमधे आहे जो मी अन्य सूर्यादी स्थानात आहे, तोच व तसाच मी येथेही आहे. मी सर्वत्र परिपूर्ण भरलेला असून आकाशात व्यापक आहे माझ्यापासून कोण वेगळा वा दूर नाही आणि माझ्याहून कोणी महान नाही. मी सर्वांहून महान आहे. माझ्या सुलक्षणांनी संपन्न, मला पुत्रवत प्रिय प्राणांहून प्रिय असे माझे नाम ओ3म् आहे. जो कोणी प्रेमाने व सत्याचरणाद्वारे माझ्या आश्रयात येतो, मी अंतर्यामी असल्यामुळे त्याच्या अज्ञानाचा नाश करतो आणि त्याच्या आत्म्यात ज्ञान प्रकाशित करतो. त्याला शुभगुण, कर्म, स्वभावमय करून त्याच्यावर माझे सत्यावरण स्थिर करतो. योगाद्वारे विशेष ज्ञान देऊन त्याला सर्व दुःखापासून मुक्त करतो आणि त्यास मोक्षसुख प्रदान करतो ॥इति॥17॥

    टिप्पणी

    या अध्यायात ईश्‍वराच्या गुरांचे वर्णन, अधर्म त्यागाविषयी उपदेश, सदा सर्वकाळी सत्कर्म करण्याची आवश्यकता, अधर्माचरणाची निन्दा, परमेश्‍वराच्या अतिसूक्ष्म स्वरूपाचे वर्णन, विद्वानाने विद्यावान असणे, अविद्वानाला आपल्या अज्ञानाची जाणीव असणे, सर्वत्र तोच परमात्मा असल्यामुळे वा आपल्याप्रमाणे सर्वांचा आत्मा याची जाणीव ठेऊन. हिंसेपासून दूर असणे वा अहिंसाधर्माचे रक्षण, त्यामुळे मोह, शोक आदींचा त्याग, ईश्‍वराचे जन्म आदी दोषांपासून मुक्त असणे, वेदविद्येचा उपदेश, कार्यकारणरूप अचेतन जगताच्या उपासनेचा निषेध त्या कार्यकारणाने मृत्यूस निवेदित करून मोक्षादीची सिद्धी, जड म्हणजे अचेतन वस्तुच्या उपासनेचा निषेध, चेतन ईश्‍वराच्या उपासनेचा विधी, चेतन-अचेतन दोघांचे स्वरूप यथार्थरूपाने जाणण्याची आवश्यकता, शरीराचा स्वभाव, समाधीद्वारा परमेश्‍वराला आपल्या आत्म्यात धारण करून शरीर त्यागणें, मृतदेहाच्या दहनानंतर अन्य कोणती क्रिया करण्याविषयी निषेध, अधर्मत्यागाकरिता आणि धर्मवृद्धीकरिता परमेश्‍वराची प्रार्थना, ईश्‍वराच्या स्वस्वरूपाचे वर्णन, आणि ‘ओ’म्’ हे नाव सर्व नांवा घेता उत्तम, या सर्व विषयांचे या अध्यायात प्रतिपादन केले आहे. यामुळे या (४० व्या) अध्यायात सांगितलेल्या अर्थाची संगती या पुर्वीच्या (३९ व्या) अध्यायाच्या अर्थाशी आहे, असे जाणावे. ॥^श्रीमान् महर्षी दयानंद सरस्वती कृत यजुर्वेद हिन्दी भाष्याच्या ४०व्या अध्यायाचा मराठी भाष्यानुवाद समाप्त

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O men, by me the Resplendent Protector is covered the face of Eternal Cause, the Matter. The Spirit yonder in the Sun, that spirit dwelling there am I. I am vast like the atmosphere, Greatest of all in merit, action, and nature am I. Om is My name.

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    Meaning

    The face of truth is covered by a golden veil. The veil is removed by the Lord of golden glory. The life and light that shines in the sun is that Supreme Purusha. That is there, and that is here in me. Om is the saviour. Om is Brahma, Brahma is infinite, sublime. Swami Dayananda has accepted this version of Yajurveda chapter 40. There is another version, which is also accepted as Ishopanishad, and that has eighteen mantras. That version from mantra 15 to mantra 18 is given below: 15. The face of truth is covered with a golden veil (the veil of Prakrti). That veil, O Lord preserver and promoter of life, unveil so that we may see the Truth and eternal Dharma. 16. Lord giver of life and protection, universal guide, eternal light, lord of creation, Sole Lord, one and absolute, universal Eye, seer omniscient, gather up your light for me. The splendour that is yours is the most auspicious and sublime form I see. The light that shines in the sun is the Purusha. That is there, That is in me. 17. The end of the body is ash. The breath of life goes to eternal energy. The soul is immortal. O soul, remember Om. Remember your karma. Lord of yajna, agent of karma, remember the actions performed. 18. Agni, light of life, lead us on by the right path to the wealth of life. Brilliant lord omniscient of all laws and ways of existence, and all our thoughts and deeds, remove from us all sin and crookedness. We sing songs of celebration in praise of you. Homage to you again and again Note: In the Vaidic tradition of religious studies, thought and practice specially after Swami Shankaracharya, three works have been prominent. They are: Vedanta Sutras, Upanishads, and the Gita. The three together are known as Prasthana-trayi, and summed up as ‘Vedanta’ in popular parlance. And Vedanta is sometimes understood to be an ‘End of the Vedas’, a ‘take off’ and even a substitute for the Vedas. For the information of the dedicated readers it is important to mention that: 1. The Vedanta Sutras are an extensive commentary on the closing words of Yajurveda. The closing words of Yajurveda are: Om Kham Brahma. And the opening words of Vedanta Sutras are: Athato Brahma Jijnasa Which means: And now, an enquiry into the nature of Brahma. Clearly the Vedanta Sutras are an extensive act of meditation on the open-ended close of Yajurveda. Similarly Mandukyopanishad also is an expansive act of meditation on OM, the first of the closing words quoted above and Yajurveda (40, 15): Om Krato Smara. 2. Chief among Upanishads for the common reader are Ishopanishad and Mandukyopanishad. Ishopanishad is a literal version of the closing chapter of Yajurveda, and Mandukya, an act of meditation on OM. 3. The Gita is a call to action, an extensive commentary on the second mantra of the closing chapter of Yajurveda: Prasthana-trayi thus is neither the ‘End of the Vedas’, nor a substitute, nor a take off. Each work is a continuation of Vedic studies in its own context of meditation, meditative teaching, and a rousing call to action in a situation of karmic crisis. The three are, thus, not a departure from the Vedas, they are a homage to the Vedas.

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    Translation

    The face of the Ultimate is hidden by a golden cover. The cosmic Man, who is there in the sun, that I am Myself, i. e. Om, the abstract, the Divine Supreme. (1)

    Notes

    Satyasya, of the ultimate reality; the truth. Hiranmayena pätrena, with a golden cover or lid. Om, प्रणव:, a name of the God Supreme. Kham आकाशस्वरूपं, in the form of sky; Abstract. Brahma, the God Supreme; Absolute Principle.

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    बंगाली (2)

    विषय

    অথান্তে মনুষ্যানীশ্বর উপদিশতি ॥
    এখন অবশেষে মনুষ্যাদিগকে ঈশ্বর উপদেশ করেন ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যে (হিরন্ময়েন) জ্যোতিঃস্বরূপ (পাত্রেণ) রক্ষক আমার দ্বারা (সত্যস্য) অবিনাশী যথার্থ কারণের (অপিহিতম্) আচ্ছাদিত (মুখম্) মুখের তুল্য উত্তম অঙ্গের প্রকাশ করা হয় (য়ঃ) যে (অসৌ) তিনি (আদীত্য) প্রাণ বা সূর্য্য মন্ডলে (পুরুষঃ) পূর্ণ পরমাত্মা (সঃ) সেই (অসৌ) পরোক্ষরূপ (অহম্) আমি (খম্) আকাশতুল্য ব্যাপক (ব্রহ্ম) সর্বাপেক্ষা গুণ, কর্ম্ম ও স্বরূপ করিয়া অধিক (ও৩ম্) সকলের রক্ষক আমি তাহার (ও৩ম্) এইরকম নাম জানিবে ॥ ১৭ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- সকল মনুষ্যদিগের প্রতি ঈশ্বর উপদেশ করেন যে, হে মনুষ্যগণ ! আমি এখানে আছি, সেই অন্যত্র সূর্যাদি লোকে, অন্যস্থান সূর্যাদি লোকে আছি তাহাই এখানে আছি, সর্বত্র পরিপূর্ণ আকাশ তুল্য ব্যাপক আমা হইতে ভিন্ন কেউ বড় নয়, আমিই সর্বাপেক্ষা বড় । আমার সুলক্ষণ দ্বারা যুক্ত পুত্রতুল্য প্রাণপ্রিয় আমার নিজ নাম “ও৩ম্” ইহা । যে আমার প্রেম ও সত্যাচরণ ভাবপূর্বক শরণ গ্রহণ করে তাহার অন্তর্য্যামীরূপে আমি অবিদ্যার বিনাশ, তাহার আত্মা প্রকাশিত করিয়া শুভ গুণ, কর্ম, স্বভাবযুক্ত করিয়া সত্যস্বরূপের আবরণ স্থির করিয়া যোগ দ্বারা হওয়া শুদ্ধ বিজ্ঞান দিই এবং সকল দুঃখ হইতে পৃথক করিয়া মোক্ষসুখ প্রাপ্ত করাই । ইতি ॥ ১৭ ॥
    এই অধ্যায়ে ঈশ্বরের গুণ বর্ণন, অধর্ম ত্যাগের উপদেশ, সর্বকালে সৎকর্ম্মের অনুষ্ঠানের প্রয়োজনীয়তা, অধর্মাচরণের নিন্দা, পরমেশ্বরের অতিসূক্ষ্ম স্বরূপের বর্ণন, বিদ্বান্কে জানিবার যোগ্য হওয়া, অবিদ্বানের অজ্ঞেয়তা হওয়া, সর্বত্র আত্মা জানিয়া অহিংসা ধর্মের রক্ষা, তাহার মোহ-শোকাদি পরিত্যাগ ঈশ্বরের জন্মাদি দোষরহিত হওয়া, বেদবিদ্যার উপদেশ, কার্য্যকারণরূপ জড় জগতের উপাসনার নিষেধ, সেই কার্য্যকারণ দ্বারা মৃত্যুর নিবারণ করিয়া মোক্ষাদি সিদ্ধ করা, জড় বস্তুর উপাসনা নিষেধ, চেতনের উপাসনার বিধি, সেই জড়-চেতন উভয়ের স্বরূপকে জানিবার আবশ্যকতা শরীরের স্বভাবের বর্ণন, সমাধি দ্বারা পরমেশ্বরকে নিজ আত্মায় ধারণ করিয়া শরীর ত্যাগ করা, দাহ করিবার পরে অন্য ক্রিয়ার অনুষ্ঠানের নিষেধ, অধর্মের ত্যাগ এবং ধর্মকে বৃদ্ধি করানোর জন্য পরমেশ্বররের প্রার্থনা, ঈশ্বরের স্বরূপ বর্ণন এবং সব নাম অপেক্ষা “ও৩ম্” এই নামের উত্তমতা প্রতিপাদন করা হইয়াছে । ইহাতে এই অধ্যায়ে কথিত অর্থের অর্থ সহ সঙ্গতি আছে, এইরূপ জানিবে ।
    ইতি শ্রীমৎপরমহংসপরিব্রাজকাচার্য়্যাণাং শ্রীপরমবিদুষাং বিরজানন্দসরস্বতীস্বামিনাং শিষ্যেণ শ্রীমদ্দয়ানন্দসরস্বতীস্বামিনা নির্মিতে সংস্কৃতার্য়্যভাষাভ্যাং সমন্বিতে সুপ্রমাণয়ুক্তে য়জুর্বেদভাষ্যে চত্বারিংশত্তমোऽধ্যায়ঃ সমাপ্তঃ ॥
    সমাপ্তশ্চায়ং গ্রন্থ ইতি ॥
    ॥ মার্গশীর্ষ কৃষ্ণ ১ শনি বিক্রমীয় শ্রী সংবৎ ১ঌ৩ঌ-এ সমাপ্ত করিলাম ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    হি॒র॒ণ্ময়ে॑ন॒ পাত্রে॑ণ স॒ত্যস্যাপি॑হিতং॒ মুখ॑ম্ ।
    য়ো॒ऽসাবা॑দি॒ত্যে পু॑রুষঃ॒ সো᳕ऽসাব॒হম্ । ও৩ম্ খং ব্রহ্ম॑ ॥ ১৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    হিরণ্ময়েনেত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । আত্মা দেবতা । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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    পদার্থ

    হিরণ্ময়েন পাত্রেণ সত্যস্যাপিহিতং মুখম্ ।

    য়োঽসাবাদিত্যে পুরুষঃ সোঽসাবহম্ । ও৩ম্ খং ব্রহ্ম ।।১০০।।

    (যজু ৪০।১৭)

    পদার্থঃ হে মানব ! (হিরণ্ময়েন) জ্যোতি দ্বারা পরিপূর্ণ (পাত্রেণ) সবার রক্ষক এই আমার দ্বারা (সত্যস্য) অবিনাশী সৎরূপ কারণের [প্রকৃতির] (অপিহিতম্) আচ্ছাদিত (মুখম্) মুখের তুল্য উত্তম অঙ্গ প্রকাশিত হয়। (য়ঃ) যিনি (অসৌ) এই (আদিত্যে) প্রাণ ও সূর্যমণ্ডলে (পুরুষঃ) পূর্ণ পরমাত্মা (সঃ) সেই তিনি (অসৌ) পরোক্ষরূপে (অহম্) আমি (খম্) আকাশের ন্যায় ব্যাপক (ব্রহ্ম) গুণ, কর্ম, স্বভাবের দৃষ্টিতে সবার থেকে মহান। (ও৩ম্) আমি সকল জগতের রক্ষক "ও৩ম্" – এরূপ জানো।।১০০।।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ পরম সত্যের সেই স্বরূপ হিরণ্যরূপ সুবর্ণ জ্যোতির দ্বারা আবৃত। সূর্যের প্রখর আলোর শক্তিতে যিনি ব্যাপ্ত, আমার মধ্যেও ব্যাপ্ত সেই তিনিই। যে তিনি এখানে, সেই তিনিই অন্যত্র, সূর্য আদিতে, সর্বত্র এবং যে তিনি অন্যত্র সূর্যাদিতে সেই তিনিই এখানে, আমাদের মাঝে। ও৩ম্ ই ব্রহ্ম, ও৩ম্ ই অনন্ত, ও৩ম্ ই শ্রেষ্ঠ ।।১০০।।

     

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