यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 7
ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः
देवता - आत्मा देवता
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
976
यस्मि॒न्त्सर्वा॑णि भू॒तान्या॒त्मैवाभू॑द्विजान॒तः।तत्र॒ को मोहः॒ कः शोक॑ऽएकत्वम॑नु॒पश्य॑तः॥७॥
स्वर सहित पद पाठयस्मि॑न्। सर्वा॑णि। भू॒तानि॑। आ॒त्मा। ए॒व। अभू॑त्। वि॒जा॒न॒त इति॑ विऽजान॒तः ॥ तत्र॑। कः। मोहः॑। कः। शोकः॑। ए॒क॒त्वमित्ये॑क॒ऽत्वम्। अ॒नु॒पश्य॑त॒ऽइत्य॑नु॒पश्य॑तः ॥७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः । तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥
स्वर रहित पद पाठ
यस्मिन्। सर्वाणि। भूतानि। आत्मा। एव। अभूत्। विजानत इति विऽजानतः॥ तत्र। कः। मोहः। कः। शोकः। एकत्वमित्येकऽत्वम्। अनुपश्यतऽइत्यनुपश्यतः॥७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ केऽविद्यादिदोषान् जहतीत्याह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यस्मिन् परमात्मनि विजानतः सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूत्, तत्रैकत्वमनुपश्यतो योगिनः को मोहोऽभूत् कः शोकश्च॥७॥
पदार्थः
(यस्मिन्) परमात्मनि ज्ञाने विज्ञाने धर्मे वा (सर्वाणि) (भूतानि) (आत्मा) आत्मवत् (एव) (अभूत्) भवन्ति। अत्र वचनव्यत्ययेनैकवचनम्। (विजानतः) विशेषेण समीक्षमाणस्य (तत्र) तस्मिन् परमात्मनि स्थितस्य (कः) (मोहः) मूढावस्था (कः) (शोकः) परितापः (एकत्वम्) परमात्मनोऽद्वितीयत्वम् (अनुपश्यतः) अनुकूलेन योगाभ्यासेन साक्षाद् द्रष्टुः॥७॥
भावार्थः
ये विद्वांसः संन्यासिनः परमात्मना सहचरितानि प्राणिजातानि स्वात्मवद् विजानन्ति, यथा स्वात्मनो हितमिच्छन्ति तथैव तेषु वर्त्तन्त एकमेवाऽद्वितीयं परमात्मनः शरणमुपागताः सन्ति, तान् मोहशोकलोभादयो दोषाः कदाचिन्नाप्नुवन्ति, ये च स्वात्मानं यथावद् विज्ञाय परमात्मानं विदन्ति, ते सदा सुखिनो भवन्ति॥७॥
हिन्दी (5)
विषय
अब कौन अविद्यादि दोषों को त्यागते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! (यस्मिन्) जिस परमात्मा, ज्ञान, विज्ञान वा धर्म में (विजानतः) विशेषकर ध्यानदृष्टि से देखते हुए को (सर्वाणि) सब (भूतानि) प्राणीमात्र (आत्मा, एव) अपने तुल्य ही सुख-दुःखवाले (अभूत्) होते हैं, (तत्र) उस परमात्मा आदि में (एकत्वम्) अद्वितीय भाव को (अनुपश्यतः) अनुकूल योगाभ्यास से साक्षात् देखते हुए योगिजन को (कः) कौन (मोहः) मूढावस्था और (कः) कौन (शोकः) शोक वा क्लेश होता है अर्थात् कुछ भी नहीं॥७॥
भावार्थ
जो विद्वान् संन्यासी लोग परमात्मा के सहचारी प्राणीमात्र को अपने आत्मा के तुल्य जानते हैं अर्थात् जैसे अपना हित चाहते वैसे ही अन्यों में भी वर्त्तते हैं, एक अद्वितीय परमेश्वर के शरण को प्राप्त होते हैं, उनको मोह, शोक और लोभादि कदाचित् प्राप्त नहीं होते। और जो लोग अपने आत्मा को यथावत् जान कर परमात्मा को जानते हैं, वे सदा सुखी होते हैं॥७॥
पदार्थ
पदार्थ = ( यस्मिन् ) = जिस ब्रह्म ज्ञान के प्राप्त होने से ( सर्वाणि भूतानि ) = सब जीव प्राणी ( आत्मा एव अभूद् ) = अपने आत्मा के तुल्य ही हो जाते हैं,समस्त जीव अपने समान दीखने लगते हैं तब ( एकत्वम् अनु पश्यतः ) = परमात्मा में एकता अद्वितीय भाव को ध्यान योग से साक्षात् जाननेवाले महापुरुष के ( कः मोहः ) = मूढ़ता कहाँ और ( कः शोकः ) = कौन सा शोक वा क्लेश रह सकता है अर्थात् उस महापुरुष से शोक मोहादि नष्ट हो जाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ = जो विद्वान् संन्यासी महात्मा लोग, परमात्मा के पुत्र प्राणिमात्र को अपने आत्मा के तुल्य जानते हैं, अर्थात् जैसे अपना हित चाहते हैं, वैसे ही अन्यों में भी वर्तते हैं। एक अद्वितीय परमात्मा की शरण को प्राप्त होते हैं, उनको शोक, मोह, लोभादि कदाचित् प्राप्त नहीं होते। और जो लोग, अपने आत्मा को यथार्थ जानकर परमात्म परायण हो जाते हैं, वे सदा सुखी रहते हैं, ईश्वर से विमुख को कभी सुख की प्राप्ति नहीं होती ।
विषय
सर्वत्र आत्मदर्शन ।
भावार्थ
( यस्मिन् ) जिस ब्रह्मज्ञान की दशा में ( सर्वाणि भूतानि ) समस्त जीव, प्राणी ( आत्मा एव अभूत् ) अपने आत्मा के समान ही हो जाता है, अर्थात् समस्त जीव अपने समान दीखने लगते हैं उस (एकत्वम् अनु पश्यतः) एकता या समानता को प्रतिक्षण देखने वाले (विजानतः) विशेष आत्मज्ञानी पुरुष को (तत्र) उस दशा में फिर (क: मोह :) कौन सा मोह और (कः शोकः) कौन सा शोक रह सकता है ?
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आत्मा । निचृद् अनुष्टुप् । गांधारः ॥
विषय
एकत्व का दर्शन
पदार्थ
१. मनुष्य सुनकर व पढ़कर यह जान जाता है कि मैं शरीर नहीं हूँ, यह तो एक वस्त्र है। मृत्यु वस्त्र- परिवर्तनमात्र है, परन्तु व्यवहार में आकर उसे यह बात भूल जाती है और वह यही कहने लगता है कि 'मैं बीमार हो गया, पतला हो गया। इस प्रकार उसका ज्ञान उथला ही प्रमाणित होता है। यह 'विजानन्' विशिष्ट ज्ञानी नहीं बना। विज्ञानन् पुरुष तो आत्मस्वरूप को समझता है। आत्मस्वरूप को समझने के साथ अपने शाश्वत सखा 'प्रभु' को अन्दर - बाहर सर्वत्र व्याप्त अनुभव करता है। २. इस (विजानतः) = विशिष्ट ज्ञानी पुरुष के दृष्टिकोण में प्रभु ने सबको व्याप्त किया हुआ है। 'प्रभु सबमें हैं, सब प्रभु में हैं' यह तो यही देखता है। इस प्रकार देखने के कारण यह परमात्मा ही परमात्मा को देखता है। हार की मणियों को न देखकर वह ओतप्रोत सूत्र को देखता है, अतः वह समावस्थित परमेश्वर को ही सर्वत्र देखने के कारण सब भूतों में आत्मभाव रखता है। जब ये सब भूत उस प्रभु में हैं तब उससे अलग हो ही कैसे सकते हैं! मन्त्र के शब्दों में (यस्मिन्) = जिस समय इस 'विज्ञानन्' की दृष्टि में (सर्वाणि भूतानि) = सब भूत [प्राणी] (आत्मा एव) = आत्मा ही (अभूत) = हो जाते हैं, (तत्र) = उस स्थिति में (एकत्वम्) = एकत्व को (अनुपश्यतः) = देखते हुए को (कः मोहः) = क्या तो मोह और (कः शोकः) = क्या शोक? यह (विजानन्) = पुरुष शोक मोह से ऊपर उठ जाता है। एकत्वदर्शन में शोक-मोह का स्थान नहीं है। ४. 'द्वितीयाद्वै भयं भवति' = भय तो दूसरे से ही होता है, अद्वैत में तो अभय-ही-अभय है। 'विश्व की नागरिकता' व ऐक्य भावना ही मानव कल्याणकारिणी है। पति-पत्नी भी मिलकर एक हो जाते हैं तभी तो शङ्का व भय दूर हो वास्तविक प्रेम उत्पन्न होता है । ५. एवं अद्वैतानुभव ही कल्याणकर है। यही वास्तविकता है, इसको जानकर ही विजानन् पुरुष शोक-मोह से अतीत होता है।
भावार्थ
भावार्थ- जीवात्मा व परमात्मा दो सत्ताएँ है, परन्तु सब जीव प्रभु में हैं, सो पृथक् न होने से 'आत्मा ही आत्मा' हैं, ऐसा अनुभव करके हम 'शोक-मोहातीत विजानन्' बनें।
मन्त्रार्थ
(विजानत:) परमात्मा के विभुत्वदर्शी ज्ञानी के (यस्मिन्) जिस दर्शन-ज्ञान या मन में (सर्वाणि भूतानि) सब प्राणी (आत्मा-एव-अभूत्) केवल आत्मा ही हैं-स्त्री, पुरुष, बालक, गौ, हरिण, मोर आदि मोहक प्राणी तथा कुरूप जन, सिंह, सर्प आदि भयङ्कर प्राणी उसके सम्मुख अपना मोहक या विकराल भयानक व्यक्तित्व नहीं दिखलाते या वह उन मोहक और विकराल भयानक रूपों में उन्हें नहीं देखता किन्तु उसके सम्मुख आत्मभाव में सब मेरे जैसे आत्मा है ऐसा निश्चय या अनुभव हो गया शरीरभेद तो परमात्मा की रचनाकला है, पुनः उस ऐसे (एकत्वम्-अनुपश्यतः) एक आत्ममात्र दृष्टि से देखते हुए के (तत्) उस दर्शन-ज्ञान या मन में (कः-मोहः कः-शोकः) कौन मोह कौन शोक है ? अर्थात् कोई नहीं ॥७॥
टिप्पणी
'ङि' विभक्तेर्लुक् “सुपां सुलुक्०" (अष्टा० ७।१।३६)
विशेष
"आयुर्वै दीर्घम्” (तां० १३।११।१२) 'तमुग्राकांक्षायाम्,' (दिवादि०) "वस निवासे" (स्वादि०) "वस आच्छादने" (अदादि०) श्लेषालङ्कार से दोनों अभीष्ट हैं। आवश्यके ण्यत् "कृत्याश्च" (अष्टा० ३।३।१७१)
मराठी (2)
भावार्थ
जे विद्वान, सन्यासी परमेश्वराचा सखा (सहचर) बनून सर्व प्राणीमात्रांना आपल्या आत्म्याप्रमाणेच समजतात अर्थात् आपले हित जसे इच्छितात (जपतात) तसे इतरांचेही इच्छितात व त्याप्रमाणे वर्तन करतात. एका अद्वितीय परमेश्वराला ते शरण जातात. त्यांना लोभ, मोह, शोक वगैरे बांधून ठेवू शकत नाहीत. जे लोक आपल्या आत्म्यांना यथावत् जाणून परमेश्वराला जाणतात ते नेहमी सुखी होतात.
विषय
अविद्या आदी दोषांचा कोण त्याग करतात, याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यानो, (यस्मिन्) ज्या परमेश्वराला ज्ञान, विज्ञान आणि धर्म, यांद्वारे (विजानतः) विशेत्वाने ध्यानदृष्टीने पाहणारे (विद्वान, वा योगीजन) (सर्वाणि) (भूतानि) सर्व प्राण्यांमधे (आत्मा, एव) इतरांचे सुख-दुःख आपले सुख-दुःख मानतात (परमेश्वराला प्राणिमात्रात पाडून) (अभूत्) सर्वांना आपले मानतात (तत्र) त्या परमात्म्यात (एकत्वम्) अद्वितीय भाव (अनु, पश्यतः) पाहतात (अर्थात् तो एकच आहे, अनेक नाही, असो मानतात) तसेच योगाभ्यासाने त्याला साक्षात अनुभवतात, त्या योगीजनांना (कः) कसलाच कुठला (मोहः) मोहवा अज्ञान, संशय होणार? (सर्वांत तोच परमेश्वर असल्यामुळे आपला कोण व परका कोण/ईश्वराच्या नात्याने सर्व जण आपलेच असा शुद्ध भान असणार) तसेच योगीजनांना (कः) (शोकः) कसला शोक वा क्लेश? म्हणजे योगीजनांना मोह व शोक सतावणार नाही. ॥7॥
भावार्थ
भावार्थ - जे विद्वान संन्यासी परमेश्वराचे सहचारी होऊन (त्याला आपला साथीयातून व त्याला सर्वत्र विद्यमान मानतात, प्राणिमात्राला आपल्याप्रमाणे मानतात, म्हणजे जसे ते स्वहित चाहतात, त्याप्रमाणे इतरांच्या कल्याणासाठी झटतात. ते (सुखी होतात.) तसेच जे केवळ एकमेव अद्वितीय परमेश्वराच्या आनयात राहतात त्यांना मोह, लोक आणि लोभ आदी कदापि पीडा देणार नाहीत. जे लोक आपल्या आत्म्यास ओळखून परमेश्वराला ओळखतात, (म्हणजे मी कोण व ईश्वर कोण कसा असे स्पष्ट जाणतात) ते सदैव सुखी, आनंदी असतात. ॥7॥
इंग्लिश (3)
Meaning
A man contemplating upon God, feels in Him all beings like unto himself. Such a yogi looking upon God as an unequalled One, becomes free from delusion and grief.
Meaning
In the state of knowledge wherein the knower knows all the forms of being as pervaded by the same One Soul, how can there be any illusion or suffering for the person who sees the same Unity in existence everywhere.
Translation
For the man, for whom, after realization, all the creatures have become Universal Self itself, what infatuation or what sorrow can there be, as he sees the oneness in all? (1)
Notes
Vijänataḥ, to him who has realized the truth about the world and the Self. Sarvāṇi bhūtāni atmā eva abhūt, all the beings have be come the Self itself. If there is only one universal Self inwoven in all the beings, there can be no jealousy, no grief, no undue attachment. No infatuation in gain and no sorrow in loss.
बंगाली (2)
विषय
অথ কেऽবিদ্যাদিদোষান্ জহতীত্যাহ ॥
এখন কে অবিদ্যাদি দোষ ত্যাগ করে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! (য়স্মিন্) যে পরমাত্মা জ্ঞান, বিজ্ঞান বা ধর্মে (বিজানতঃ) বিশেষ করিয়া ধ্যানদৃষ্টি দ্বারা দর্শনকারীকে (সর্বাণি) সকল (ভূতানি) প্রাণীমাত্র (আত্মা, এব) নিজের তুল্যই সুখ-দুঃখ সম্পন্ন (অভূৎ) হয় (তত্র) সেই পরমাত্মা আদিতে (একত্বম্) অদ্বিতীয় ভাবকে (অনুপশ্যতঃ) অনুকূল যোগাভ্যাস দ্বারা সাক্ষাৎ দেখিয়া যোগিদেরকে (কঃ) কে (মোহঃ) মূঢ়াবস্থা এবং (কঃ) কে (শোকঃ) শ্লোকযুক্ত বা ক্লেশ হয় অর্থাৎ কিছুই নহে ॥ ৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যে সব বিদ্বান্ সন্ন্যাসীগণ পরমাত্মার সহচর প্রাণিমাত্রকে স্বীয় আত্মার তুল্য জানেন অর্থাৎ যেমন নিজের হিত কামনা করেন সেইরূপ অন্যদের সঙ্গেও আচরণ করেন, এক অদ্বিতীয় পরমেশ্বরের শরণ প্রাপ্ত হইয়া থাকেন তাহাদের মোহ, শোক ও লাভাদি কদাচিৎ প্রাপ্ত হয় না । এবং যাহারা নিজের আত্মাকে যথাবৎ জানিয়া পরমাত্মাকে জানেন তাঁহারা সর্বদা সুখী হইয়া থাকেন ॥ ৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়স্মি॒ন্ৎসর্বা॑ণি ভূ॒তান্যা॒ত্মৈবাভূ॑দ্বিজান॒তঃ ।
তত্র॒ কো মোহঃ॒ কঃ শোক॑ऽএক॒ত্বম॑নু॒পশ্য॑তঃ ॥ ৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য়স্মিন্নিত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । আত্মা দেবতা । নিচৃদনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
পদার্থ
য়স্মিন্ সর্বাণি ভূতান্যাত্মৈবাভূদ্বিজানতঃ ।
তত্র কো মোহঃ কঃ শোকঽএকত্বমনুপশ্যতঃ ।।৯০।।
(যজু, ৪০।০৭)
পদার্থঃ হে মানুষ ! (য়স্মিন্) যে অবস্থায় পরমাত্মা, জ্ঞান, বিজ্ঞান, অথবা ধর্মের বিষয়ে (বিজানতঃ) সম্যকজ্ঞাতা ব্যক্তির নিকট (সর্বাণি) সকল (ভূতানি) প্রাণী (আত্মা এব) নিজের আত্মার সমতুল্যই (অভূৎ) অনুভূত হয়, (তত্র) সেই পরমাত্মাতে বিরাজমান (একত্বম্) পরমাত্মার একত্বকে (অনুপশ্যতঃ) সঠিক যোগাভ্যাসের দ্বারা সাক্ষাৎ দর্শনকারী যোগীগণের (কঃ) কী (মোহঃ) মোহ এবং (কঃ) কী (শোকঃ) শোক (অভূৎ) হয়!
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ যিনি সর্বদা সমস্ত জীবে ঈশ্বরের বাস দেখেন, সকল জীবকে নিজ আত্মার সাথে অভিন্নস্বরূপ দর্শন করেন, তিনিই যথার্থ তত্ত্বদর্শী জ্ঞানী । তাঁর শোকই বা কী? মোহই বা কী?।।৯০।।
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