यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 3
ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः
देवता - आत्मा देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
896
अ॒सु॒र्य्याः᳕ नाम॒ ते लो॒काऽअ॒न्धेन॒ तम॒सावृ॑ताः। ताँस्ते प्रेत्यापि॑ गच्छन्ति॒ ये के चा॑त्म॒हनो॒ जनाः॑॥३॥
स्वर सहित पद पाठअ॒सु॒र्य्याः᳕। नाम॑। ते। लो॒काः। अ॒न्धेन॑। तम॑सा। आवृ॑ता॒ इत्याऽवृ॑ताः ॥ तान्। ते। प्रेत्येति॒ प्रऽइ॑त्य। अपि॑। ग॒च्छ॒न्ति॒। ये। के। च॒। आ॒त्म॒हन॒ इत्या॑त्म॒ऽहनः॑। जनाः॑ ॥३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
असुर्या नाम ते लोकाऽअन्धेन तमसावृताः। ताँस्ते प्रेत्यापि गच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः॥३॥
स्वर रहित पद पाठ
असुर्य्याः। नाम। ते। लोकाः। अन्धेन। तमसा। आवृता इत्याऽवृताः॥ तान्। ते। प्रेत्येति प्रऽइत्य। अपि। गच्छन्ति। ये। के। च। आत्महन इत्यात्मऽहनः। जनाः॥३॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथात्महन्तारो जनाः कीदृशा इत्याह॥
अन्वयः
ये लोका अन्धेन तमसाऽऽवृता ये के चात्महनो जनाः सन्ति, तेऽसुर्य्या नाम ते प्रेत्यापि तान् गच्छन्ति॥३॥
पदार्थः
(असुर्य्याः) असुराणां प्राणपोषणतत्पराणामविद्यादियुक्तानामिमे सम्बन्धिनस्तत्सदृशः पापकर्माणः (नाम) प्रसिद्धौ (ते) (लोकाः) लोकन्ते पश्यन्ति ते जनाः (अन्धेन) अन्धकाररूपेण (तमसा) अत्यावरकेण (आवृताः) समन्ताद्युक्ता आच्छादिताः (तान्) दुःखान्धकारावृतान् भोगान् (ते) (प्रेत्य) मरणं प्राप्य (अपि) जीवन्तोऽपि (गच्छन्ति) प्राप्नुवन्ति (ये) (के) (च) (आत्महनः) य आत्मानं घ्नन्ति तद्विरुद्धमाचरन्ति ते (जनाः) मनुष्याः॥३॥
भावार्थः
त एव असुरा दैत्या राक्षसाः पिशाचा दुष्टा मनुष्या य आत्मन्यन्यद् वाच्यन्यत् कर्मण्यन्यदाचरन्ति, ते न कदाचिदविद्यादुःखसागरादुत्तीर्याऽऽनन्दं प्राप्तुं शक्नुवन्ति। ये च यदात्मना तन्मनसा यन्मनसा तद्वाचा यद्वाचा तत्कर्मणाऽनुतिष्ठन्ति, त एव देवा आर्य्या सौभाग्यवन्तोऽखिलं जगत् पवित्रयन्त इमामुत्रातुलं सुखमश्नुवते॥३॥
हिन्दी (5)
विषय
अब आत्मा के हननकर्त्ता अर्थात् आत्मा को भूले हुए जन कैसे होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
जो (लोकाः) देखने वाले लोग (अन्धेन) अन्धकाररूप (तमसा) ज्ञान का आवरण करनेहारे अज्ञान से (आवृताः) सब ओर से ढंपे हुए (च) और (ये) जो (के) कोई (आत्महनः) आत्मा के विरुद्व आचरण करनेहारे (जनाः) मनुष्य हैं (ते) वे (असुर्य्याः) अपने प्राणपोषण में तत्पर अविद्यादि दोषयुक्त लोगों के सम्बन्धी उनके पापकर्म करनेवाले (नाम) प्रसिद्ध में होते हैं (ते) वे (प्रेत्य) मरने के पीछे (अपि) और जीते हुए भी (तान्) उन दुःख और अज्ञानरूप अन्धकार से युक्त भोगों को (गच्छन्ति) प्राप्त होते हैं॥३॥
भावार्थ
वे ही मनुष्य असुर, दैत्य, राक्षस तथा पिशाच आदि हैं, जो आत्मा में और जानते वाणी से और बोलते और करते कुछ ही हैं, वे कभी अविद्यारूप दुःखसागर से पार हो आनन्द को नहीं प्राप्त हो सकते, और जो आत्मा, मन, वाणी और कर्म से निष्कपट एकसा आचरण करते हैं, वे ही देव, आर्य्य, सौभाग्यवान् सब जगत् को पवित्र करते हुए इस लोक और परलोक में अतुल सुख भोगते हैं॥३॥
पदार्थ
पदार्थ = ( ते लोका: ) = वे मनुष्य ( असुर्या: ) = केवल अपने प्राणों के पुष्ट करनेवाले पापी असुर कहाने योग्य हैं जो ( अन्धेन ) = अन्धकार रूप ( तमसा ) = अज्ञान से ( आवृताः ) = सब ओर से ढके हुए हैं ( ये के च ) = और जो कोई ( नाम ) = प्रसिद्ध ( जना: ) = मनुष्य ( आत्महन: ) = आत्म हत्यारे हैं ( ते ) = वे ( प्रेत्य ) = मरकर ( अपि ) = और जीते हुए भी ( तान् ) = उन दुष्ट देहरूपी लोकों को ही ( गच्छन्ति ) = प्राप्त होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ = वे ही मनुष्य, असुर दैत्य, राक्षस तथा पिशाच आदि हैं, जो आत्मा में और जानते, वाणी से और बोलते और करते कुछ और ही हैं। ऐसे लोग कभी अज्ञान से पार होकर परमानन्द रूप मुक्ति को नहीं प्राप्त हो सकते । ऐसे पापी पुरुष अपने आत्मा के हनन करने हारे वेद में आत्महत्यारे कहे गए हैं । दूसरे वे भी आत्महत्यारे हैं, जो पिता की न्याईं सबके पालन-पोषण करने हारे समस्त संसार के कर्ता-धर्ता सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर को नहीं मानते न उसकी भक्ति करते, न ही उसकी वैदिक आज्ञा के अनुसार अपना जीवन बनाते हैं, केवल विषय भोगों में फँसकर, सारा जीवन उन भोगों की प्राप्ति के लिए लगा देना पामरपन नहीं तो और क्या है ? ईश्वर को न मानना ही सब पापों से बड़ा पाप है। ऐसे महापापी नास्तिक पुरुषों की सदा दुर्गति होती है । ऐसी दुर्गति देनेहारी नास्तिकतारूपी राक्षसी से सबको बचना और बचाना चाहिए ।
विषय
आत्मा के नाशकों के दुर्गति ।
भावार्थ
(ते) वे (लोकाः) लोक अर्थात् मनुष्य (असुर्याः) असुर कहाने योग्य, केवल अपने प्राण को पोषण करने हारे पापाचारी हैं, जो ( अन्धेन ) अन्धकाररूप (तमसा ) आत्मा को ढक लेने वाले तमोगुण से ( आवृताः) ढके हैं । (ये के च) जो कोई (जनाः) लोग भी (आत्महनः) . अपने आत्मा का घात करते हैं, उसके विरुद्ध आचरण करते हैं (ते) के ( प्रेत्य ) मर कर (अपि) और जीवनकाल में भी ( तान् ) उन उक्त प्रकार के लोकों को ही (गच्छन्ति) प्राप्त होते हैं । 'लोका:' ये लोकन्ते पश्यन्ति ते जनाः । लोक्यन्ते दृश्यन्ते भुज्यन्ते कर्मफलानि यत्रेति लोका जन्मानि । राष्ट्रपक्ष में - वे सूर्यरहित स्थान गहरे अन्धकार से ढके हैं जो आत्मा अर्थात् जीवों के देहों का नाश करते हैं । वे उन स्थानों पर जीते भी रक्खे जाते हैं और मरकर तो परलोक में वे तामस दशाओं का अनुभव करते ही हैं ।
टिप्पणी
३ – ० प्रेत्याभि० इति काण्व० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आत्मा | अनुष्टुप् । गान्धारः ॥
विषय
आत्मघात
पदार्थ
[क] प्रथम व द्वितीय मन्त्र में निम्न बाते कहीं गई हैं - १. प्रभु की सर्वव्यापकता को अनुभव करना २. त्यागपूर्वक उपभोग करना ३. लालच नहीं करना ४. प्रतिदिन इस प्रश्न का विचार करना कि 'भला, धन किसका है?' ५. जीवन को सदा क्रियामय रखना और आसक्ति से ऊपर उठकर नर बनकर काम करना तथा ६. सौ वर्ष जीने की प्रबल भावना रखना, तदनुसार ही जीवन को ढालना । [ख] ये छह बातें ही आत्मोन्नति का मार्ग हैं। इसी पर मनुष्य को चलने का प्रयत्न करना है । जो व्यक्ति इन बातों का ध्यान न करके १. प्रभुको स्मरण नहीं करता। अपने को अकेला समझ व्यसनों के प्रलोभन से नहीं बच पाता ३. भोग ही जिसके जीवन का लक्ष्य हो जाता है, अपने ही प्राणों व जीवन में रमा रहता है, 'असुषु रमन्ते' असुर बनकर अपने ही मुख में आहुति देता है '(स्वेषु आस्येषु जुह्वतश्चेरुः')। इसके जीवन में त्याग का कोई स्थान नहीं होता। ३. इसकी लोलुपता उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है ४. यह समझता है कि धन का वही स्वामी है, धन को उससे कौन छीन सकता है ? ५. धन की वृद्धि करके यह अपने जीवन को आरामपसन्द बना लेता है, इसका जीवन क्रियाशील नहीं रहता और इस प्रकार अनजाने में क्षीणशक्ति होता जाता है । ५. सौ वर्ष जीने की तो कल्पना करके भी यह कई बार व्याकुल हो जाता है, वृद्धावस्था के कष्टों की कल्पना करके ही घबरा उठता है। इसके जीवन का संक्षिप्त ध्येय 'Eat, Drink and be Merry' हो जाता है। यही व्यक्ति आत्महन्' है, यह आत्मा का घात कर रहा है। प्रभु की ओर न जाकर अन्ततः प्रकृति के पाँओं तले रौंदा जाता है। [ग] (ये के च आत्महनो जनाः) = जो कोई भी आत्महन् लोग होते हैं (ते) = वे (प्रेत्य) = इस शरीर से प्रयाण करने के अनन्तर तान्-उन लोकों की अपि गच्छन्ति ओर जाते हैं जो लोक कि इस प्रकार की आसुरवृत्तिवाले लोगों के लिए हितकर हैं [असुर + य] ते (लोकाः) = वे लोक (असुर्या नाम) = 'असुर्य' [असुरों के लिए हितकर] इस नामवाले हैं। ये लोक (अन्धेन तमसा) = घने अँधेरे से (आवृताः) = आच्छादित हैं। इन लोकों में प्रकाश नहीं। पशु देखते हैं [पश्यन्ति], समझते नहीं । वृक्ष इत्यादि तो एकदम अन्त: संज्ञी ही हैं- उनकी चेतना पूर्णतया लुप्त सी है। ये ही योनियाँ असुर्य हैं। केवल अपने प्राण-पोषण में रत लोगों के लिए ये भोगयोनियाँ ही उपयुक्त हैं। एवं प्रभु इन आत्महन् असुरों को इन्हीं योनियों में जन्म देते हैं। इनमें रहते हुए वे भोग भोगने में रत रहते हैं। उनका कोई कर्त्तव्य नहीं होता- उन्हें भोग ही भोगने होते हैं। ये लोक अन्धतमस् व अज्ञान से आवृत हैं। इनमें ज्ञान का नितान्त अभाव है। यहाँ कर्त्तव्य ही नहीं है, अतः कर्त्तव्यार्त्तव्य के विवेक का प्रश्न ही नहीं उठता। के भोग से रजकर, या इस प्रसुप्त-सी अवस्था में पिछले संस्कारों सम्भवतः इन भोगों को भूलकर ये चिरकाल पश्चात् फिर मानव-जीवन को प्राप्त करेंगे और एक बार फिर इन्हें आत्मोन्नति के मार्ग पर चलने का अवसर प्राप्त होगा ।
भावार्थ
भावार्थ- हम आत्मोन्नति के मार्ग पर चलें। आत्महन् बनकर असुर्य लोकों में जन्म के भागी न बनें।
मन्त्रार्थ
(असुर्या:-नाम ते लोका:) हां! असुर सम्बन्धी वे स्थान या जन्म हैं ? जो (अन्धेन तमसा-आवृताः) घने अन्धकार से आच्छादित हैं (तान्) उन जन्मों दशाओं-स्थानों को (ते प्रेत्य-अपि गच्छन्ति) वे मर कर भी तथा जीते भी प्राप्त होते हैं (ये के च) जो कोई (आत्महनः-जना:) आत्मघाती मनुष्य हैं जो कि त्याग से भोगविधान और निष्काम कर्म तथा कर्मार्थ जीवन लक्ष्यका उल्लंघन करते हैं ॥३॥
टिप्पणी
“कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः । एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे" ॥२॥ इस उत्तर मन्त्र से 'नर' शब्द सम्बद्ध है । "लक्षणहेत्वोः क्रियायाः” (अष्टा० ३।२।१२६) से लक्षण और हेतु अर्थ में शतृ प्रत्यय श्लेषालङ्कार से दोनों अर्थ है । "शत बहुनाम" (निघं० ३।१)"समानां संवत्सराणाम्” (निरु० ११।१५)
विशेष
"आयुर्वै दीर्घम्” (तां० १३।११।१२) 'तमुग्राकांक्षायाम्,' (दिवादि०) "वस निवासे" (स्वादि०) "वस आच्छादने" (अदादि०) श्लेषालङ्कार से दोनों अभीष्ट हैं। आवश्यके ण्यत् "कृत्याश्च" (अष्टा० ३।३।१७१)
मराठी (2)
भावार्थ
जी माणसे विचार एक, वाणी दुसरी व कर्म तिसरेच करतात अशी माणसेच असूर, दैत्य, राक्षस व पिशाच्च असतात व ती माणसे अविद्यारूपी दुःख सागरातून बाहेर पडून आनंद प्राप्त करू शकत नाहीत. जी माणसे आत्मा, मन, वाणी व कर्म यांनी निष्कपट व एकसारखे आचरण करतात तीच देव, श्रेष्ठ (आर्य) भाग्यवान असतात व सर्व जगाला पवित्र करतात आणि इहलोक व परलोकांचे अतुल सुख भोगतात.
विषय
आत्म्याचे हनन करणारे म्हणजे आत्म्याचे (स्वरूप व कार्य, यांना विसरणारे मनुष्य कसे असतात, याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - जी माणसे (लोकाः) पाहणारी म्हणजे डोळे असलेली पण (अन्धेन) अंधकाररूप (तमसा) ज्ञानाचा नाश करणार्या अमानाने (आवृताः) ज्यांचे डोळे आवृथ वा झाकलेले असतात (ज्यांची बुद्धी अज्ञानाने झाकलेली असते) (च) आणि (ये) जी (जनाः) माणसें (आत्महनः) आत्म्याच्या आवाजाविरूद्ध आचरण करणारी असतात (ते) ती माणसें (असुर्य्याः) आपल्याच शरीराचे पोषण-वर्धनामधे तत्पर असून अविद्या आदी दोषांत लिप्त होतात आणि परिणामी पापी वा पापकर्मी (नाम) म्हणून जगात कुख्यात होतात. (ते) अशी माणसें (प्रेत्य) मृत्यूनंतर (अपि) देखील आणि जीवितावस्थेतही (तान्) त्या दुःखरूप, अज्ञानरूप अंधकारात सापडून दु:खमय भोग (गच्छन्ति) भोगतात. ॥3॥
भावार्थ
भावार्थ - त्या लोकांना असुर, दैत्य, राक्षस आणि पिशाच आदी मानावे की जे आपल्या आत्म्यात एक विचार, तर वाणीने दुसराच विचार सांगतात आणि कृतीमधे तिसराच विचार आणतात. अशी माणसे कधीही अविद्यारूप दुःखसागराच्या पार जाऊ शकत नाही आणि कधीही आनंद प्राप्त करू शकत नाहीत. या विपरीत जे लोक आत्मा, मन, वाणी आणि कृती या सर्वांत सारखेपणा ठेवतात, निष्कपट आचरण करतात, त्यांनाच देवता, आर्य मानावे अशी भाग्यशाली माणसे सर्व जगास पावन करतात आणि इहलोकीं व परलोकी (पुढील जन्मात) सुख-आनंद उपभोगतात. ॥3॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Verily, the men engulfed in the darkness of ignorance, and those who disobey the dictates of conscience, are sinners given to carnal pleasures. They, in this life, and after death, attain to those sexual enjoyments enwrapt in affliction and ignorance.
Meaning
Surely after death and even while living, demonical souls sunk in darkness who kill their conscience and live only a physical existence (void of virtue) go to those sunless regions of the world which are covered in the impenetrable darkness of sufferance.
Translation
There are demoniac worlds enwrapped in blinding darkness. To those worlds proceed the men, even after death, who kill their self. (1)
Notes
Asurya, belonging to Asuras; demoniac. Also, असूर्या, where there no sun shines; with no light at all. Andhena tamasā āvṛtāḥ, covered with blinding darkness; most fearful. Ātmahanaḥ, who kill their self; who act against their con science. Also, who kill the self; ignore the self for the sake of worldly desires. Pretya api, even after death; also, after departing from this world.
बंगाली (2)
विषय
অথাত্মহন্তারো জনাঃ কীদৃশা ইত্যাহ ॥
এখন আত্মার হননকর্ত্তা অর্থাৎ আত্মবিস্মৃতজন কী রকম হয় সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- যে (লোকাঃ) দর্শনকারীগণ (অন্ধেন) অন্ধকাররূপ (তমসা) জ্ঞানের আবরণকারী অজ্ঞান দ্বারা (আবৃতাঃ) সব দিক দিয়া আচ্ছাদিত (চ) এবং (য়ে) যাহারা (কে) কোন (আত্মহনঃ) আত্মার বিরুদ্ধ আচরণকারী (জনাঃ) মনুষ্যগুলি (তে) তাহারা (অসুর্য়্যা) নিজের প্রাণপোষণে তৎপর অবিদ্যাদি দোষযুক্ত লোকসম্পর্কীয় তাহাদের পাপকর্ম্মকারীরা (নাম) প্রসিদ্ধ হইয়া থাকে । (তে) তাহারা (প্রেত্যা) মরিবার পরে (অপি) এবং বাঁচিয়াও (তান্) সেই দুঃখ ও অজ্ঞানরূপ অন্ধকার দ্বারা যুক্ত ভোগ (গচ্ছন্তি) প্রাপ্ত হইয়া থাকে ॥ ৩ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- সেই সব মনুষ্য অসুর, দৈত্য, রাক্ষস তথা পিশাচাদি হয় যাহারা আত্মায় অন্য কিছু জানে, বাণী দ্বারা অন্য বলে, এবং করে কিছু অন্য । তাহারা কখনও অবিদ্যা রূপ দুঃখসাগর হইতে উত্তীর্ণ হওয়া আনন্দ প্রাপ্ত করিতে পারে না এবং যাহারা আত্মা, মন, বাণী ও কর্ম্ম দ্বারা নিষ্কপট সমান আচরণ করে তাহারাই দেব আর্য্য সৌভাগ্যবান সকল জগৎকে পবিত্র করিয়া এই লোকেও পরলোকে অতুল সুখ ভোগ করে ॥ ৩ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অ॒সু॒র্য়্যা᳕ নাম॒ তে লো॒কাऽঅ॒ন্ধেন॒ তম॒সাবৃ॑তাঃ ।
তাঁস্তে প্রেত্যাপি॑ গচ্ছন্তি॒ য়ে কে চা॑ত্ম॒হনো॒ জনাঃ॑ ॥ ৩ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অসুর্য়্যা ইত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । আত্মা দেবতা । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
পদার্থ
অসুর্য়্যা নাম তে লোকাঽঅন্ধেন তমসাবৃতাঃ ।
তাঁস্তে প্রেত্যাপি গচ্ছন্তি য়ে কে চাত্মহনো জনাঃ ।।৮৬।।
(যজু, ৪০।০৩)
পদার্থঃ যে সকল (লোকাঃ) মানুষ (অন্ধেন) অজ্ঞানের আবরণ দ্বারা (আবৃতাঃ) সর্বতোভাবে আচ্ছাদিত (য়ে, কে, চ) এবং যে সকল (আত্মহনঃ) আত্মার বিরুদ্ধ আচরণকারী (জনাঃ) মানুষ, (তে) তারা (অসুর্য়্যাঃ) নিজের প্রাণপোষণে তৎপর, অবিদ্যা আদি দোষযুক্ত মানুষের মতো পাপকর্মকারীরূপে (নাম) প্রসিদ্ধ, (তে) তারা (প্রেত্য) মৃত্যুর পর (অপি) এবং জীবিত অবস্থাতেও (তান্) সেই দুঃখ অজ্ঞানরূপ অন্ধকারযুক্ত ভোগসমূহকে (গচ্ছতি) প্রাপ্ত হয় ।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ সে যেই হোক না কেন, যে মনুষ্য কেবল নিজের কল্যাণে কাজ করে, কেবল ভোগবৃত্তিতেই মত্ত থাকে, সেই অসুরস্বভাব ব্যক্তি প্রকারান্তরে আত্মারই হনন করে। সে মৃত্যুর পর বা বেঁচে থেকেও অজ্ঞানরূপ অন্ধকারে প্রবেশ করে, কখনোই পরমানন্দময় মুক্তির দেখা পায় না। যে ব্যক্তি অজ্ঞানরূপ অন্ধকার দ্বারা আচ্ছন্ন, কেবল আত্মপোষণে ব্যস্ত থেকে আত্মার বিরুদ্ধাচারণ করে; তারাই আত্মহন্তক।।৮৬।।
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