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  • यजुर्वेद - अध्याय 37/ मन्त्र 10
    ऋषिः - दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - स्वराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    ऋ॒जवे॑ त्वा सा॒धवे॑ त्वा सुक्षि॒त्यै त्वा॑।म॒खाय॑ त्वा म॒खस्य॑ त्वा शी॒र्ष्णे।म॒खाय॑ त्वा म॒खस्य॑ त्वा शी॒र्ष्णे।म॒खाय॑ त्वा म॒खस्य॑ त्वा शी॒र्ष्णे॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒जवे॑ त्वा॒। सा॒धवे॑। त्वा॒। सु॒क्षि॒त्याऽइति॑ सुक्षि॒त्यै। त्वा॒। म॒खाय॑। त्वा॒। म॒खस्य॑। त्वा॒। शी॒र्ष्णे। म॒खाय॑। त्वा॒। म॒खस्य॑। त्वा॒। शी॒र्ष्णे। म॒खाय॑। त्वा॒। म॒खस्य॑। त्वा॒। शी॒र्ष्णे ॥१० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋजवे त्वा साधवे त्वा सुक्षित्यै त्वा मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ऋजवे त्वा। साधवे। त्वा। सुक्षित्याऽइति सुक्षित्यै। त्वा। मखाय। त्वा। मखस्य। त्वा। शीर्ष्णे। मखाय। त्वा। मखस्य। त्वा। शीर्ष्णे। मखाय। त्वा। मखस्य। त्वा। शीर्ष्णे॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 37; मन्त्र » 10
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    अन्वयः - हे विद्वन्! ऋजवे त्वा मखाय त्वा मखस्य शीर्ष्णे त्वा साधवे त्वा मखाय त्वा मखस्य शीर्ष्णे त्वा सुक्षित्यै त्वा मखाय त्वा मखस्य शीर्ष्णे त्वा वयं स्थापयामः॥१०॥

    पदार्थः -
    (ऋजवे) सरलाय (त्वा) त्वाम् (साधवे) परोपकारसाधकाय (त्वा) (सुक्षित्यै) उत्तमायै भूम्यै (त्वा) (मखाय) विदुषां सत्काराय (त्वा) (मखस्य) यज्ञस्य (त्वा) (शीर्ष्णे) (मखाय) (त्वा) (मखस्य) (त्वा) (शीर्ष्णे) (मखाय) (त्वा) (मखस्य) (त्वा) (शीर्ष्णे)॥१०॥

    भावार्थः - ये विनयसाधुत्वाभ्यां युक्ताः प्रयत्नेन सर्वोपकारख्यं यज्ञं साध्नुवन्ति, ते महद्राज्यमाप्नुवन्ति॥१०॥

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