Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 24
    ऋषिः - विश्वदेव ऋषिः देवता - मेधाविनो देवताः छन्दः - भुरिग्विकृतिः स्वरः - मध्यमः
    6

    अ॒ग्नेर्भा॒गोऽसि दी॒क्षाया॒ऽ आधि॑पत्यं॒ ब्रह्म॑ स्पृ॒तं त्रि॒वृत्स्तोम॑ऽ इन्द्र॑स्य भा॒गोऽसि॒ विष्णो॒राधि॑पत्यं क्ष॒त्रꣳ स्पृ॒तं प॑ञ्चद॒श स्तोमो॑ नृ॒चक्ष॑सां भा॒गोऽसि धा॒तुराधि॑पत्यं ज॒नित्र॑ꣳ स्पृ॒तꣳ स॑प्तद॒श स्तोमो॑ मि॒त्रस्य॑ भा॒गोऽसि॒ वरु॑ण॒स्याधि॑पत्यं दि॒वो वृष्टि॒र्वात॑ स्पृ॒तऽ ए॑कवि॒ꣳश स्तोमः॑॥२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नेः। भा॒गः। अ॒सि॒। दी॒क्षायाः॑। आधि॑पत्य॒मित्याधि॑ऽपत्यम्। ब्रह्म॑। स्पृ॒तम्। त्रि॒वृदिति॑ त्रि॒ऽवृत्। स्तोमः॑। इन्द्र॑स्य। भा॒गः। अ॒सि॒। विष्णोः॑। आधि॑पत्य॒मित्याधि॑ऽपत्यम्। क्ष॒त्रम्। स्पृ॒तम्। प॒ञ्च॒द॒श इति॑ पञ्चऽद॒शः। स्तोमः॑। नृ॒चक्ष॑सा॒मिति॑ नृ॒ऽचक्ष॑साम्। भा॒गः। अ॒सि॒। धा॒तुः। आधि॑पत्य॒मित्याधि॑ऽपत्यम्। ज॒नित्र॑म्। स्पृ॒तम्। स॒प्त॒ऽद॒श इति॑ सप्तऽद॒शः। स्तो॑मः। मि॒त्रस्य॑। भा॒गः। अ॒सि॒। वरु॑णस्य। आधि॑पत्य॒मित्याधि॑ऽपत्यम्। दि॒वः। वृष्टिः॑। वातः॑। स्पृ॒तः। ए॒क॒वि॒ꣳश इत्ये॑कऽवि॒ꣳशः। स्तोमः॑ ॥२४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नेर्भागोसि दीक्षाया आधिपत्यम्ब्रह्म स्पृतन्त्रिवृत्स्तोमऽइन्द्रस्य भागोसि विष्णोराधिपत्यङ्क्षत्रँ स्पृतम्पञ्चदशः स्तोमो नृचक्षसाम्भागोसि धातुराधिपत्यञ्जनित्रँ स्पृतँ सप्तदशः स्तोमो मित्रस्य भागोसि वरुणस्याधिपत्यन्दिवो वृष्टिर्वात स्पृत एकविँश स्तोमो वसूनाम्भागः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नेः। भागः। असि। दीक्षायाः। आधिपत्यमित्याधिऽपत्यम्। ब्रह्म। स्पृतम्। त्रिवृदिति त्रिऽवृत्। स्तोमः। इन्द्रस्य। भागः। असि। विष्णोः। आधिपत्यमित्याधिऽपत्यम्। क्षत्रम्। स्पृतम्। पञ्चदश इति पञ्चऽदशः। स्तोमः। नृचक्षसामिति नृऽचक्षसाम्। भागः। असि। धातुः। आधिपत्यमित्याधिऽपत्यम्। जनित्रम्। स्पृतम्। सप्तऽदश इति सप्तऽदशः। स्तोमः। मित्रस्य। भागः। असि। वरुणस्य। आधिपत्यमित्याधिऽपत्यम्। दिवः। वृष्टिः। वातः। स्पृतः। एकविꣳश इत्येकऽविꣳशः। स्तोमः॥२४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 14; मन्त्र » 24
    Acknowledgment

    Meaning -
    O learned person, thou art like the year. Practising celibacy, attain to the sovereignty of a Brahmin family. Being pure in body, word and mind, and worthy of praise, thou art the embodiment of supremacy ; attain to the sovereignty of a royal Kshatriya family, loved by the All-pervading God. Being fifteen-fold praiser, thou art like the part of Objects described by the people ; attain to the desired birth and right of a sustainer. Laudable in seventeen ways, thou art the part of Pran ; attain to the sovereignty of waters. Served by air, thou art like the twenty-one-fold praiser, draw rain from the sun through Homa (sacrificial fire).

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top