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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1024
ऋषिः - वसुश्रुत आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
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ओ꣡भे सु꣢꣯श्चन्द्र विश्पते꣣ द꣡र्वी꣢ श्रीणीष आ꣣स꣡नि꣢ । उ꣣तो꣢ न꣣ उ꣡त्पु꣢पूर्या उ꣣क्थे꣡षु꣢ शवसस्पत꣣ इ꣡ष꣢ꣳ स्तो꣣तृ꣢भ्य꣣ आ꣡ भ꣢र ॥१०२४॥

स्वर सहित पद पाठ

आ꣢ । उ꣣भे꣡इति꣣ । सु꣣श्चन्द्र । सु । चन्द्र । विश्पते । द꣢र्वी꣢꣯इ꣡ति꣢ । श्री꣣णीषे । आस꣡नि꣢ । उ꣣त꣢ । उ꣣ । नः । उ꣣त् । पु꣣पूर्याः । उक्थे꣡षु꣢ । श꣣वसः । पते । इ꣡ष꣢꣯म् । स्तो꣣तृ꣡भ्यः꣢ । आ । भ꣣र ॥१०२४॥


स्वर रहित मन्त्र

ओभे सुश्चन्द्र विश्पते दर्वी श्रीणीष आसनि । उतो न उत्पुपूर्या उक्थेषु शवसस्पत इषꣳ स्तोतृभ्य आ भर ॥१०२४॥


स्वर रहित पद पाठ

आ । उभेइति । सुश्चन्द्र । सु । चन्द्र । विश्पते । दर्वीइति । श्रीणीषे । आसनि । उत । उ । नः । उत् । पुपूर्याः । उक्थेषु । शवसः । पते । इषम् । स्तोतृभ्यः । आ । भर ॥१०२४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1024
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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पदार्थ -
हे (सुश्चन्द्र) शुभ आह्लाद देनेवाले, (विश्पते) प्रजापालक अग्रनायक परमात्मन् ! आप (आसनि) खोले हुए मुख के तुल्य खाली स्थान में (उभे दर्वी) द्युलोक-पृथिवीलोक दोनों को (आश्रीणीषे) चारों ओर से परिपक्व करते हो। (उत उ) और, हे (शवसः पते) बल के अधीश्वर ! (उक्थेषु) प्रशंसित धर्म-कर्मों में (नः) हमें (उत्पुपूर्याः) पूर्ण करो। (स्तोतृभ्यः) हम स्तोताओं के लिए (इषम्) अभीष्ट गुण-कर्म-स्वभाव आदि (आभर) लाओ ॥३॥

भावार्थ - जैसे जगदीश्वर द्यावापृथिवी को परिपक्व और परिपूर्ण करता है, वैसे ही वह स्तोताओं को परिपक्व मतिवाला तथा धर्म-कर्म में पूर्ण करे ॥३॥

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