Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1318
ऋषिः - वसुर्भारद्वाजः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
6
क꣣वि꣡र्वे꣢ध꣣स्या꣡ पर्ये꣢꣯षि꣣ मा꣡हि꣢न꣣म꣢त्यो꣣ न꣢ मृ꣣ष्टो꣢ अ꣣भि꣡ वाज꣢꣯मर्षसि । अ꣣पसे꣡ध꣢न्दुरि꣣ता꣡ सो꣢म नो मृड घृ꣣ता꣡ वसा꣢꣯नः꣣ प꣡रि꣢ यासि नि꣣र्णि꣡ज꣢म् ॥१३१८॥
स्वर सहित पद पाठक꣣विः꣢ । वे꣣धस्या꣢ । प꣡रि꣢꣯ । ए꣣षि । मा꣡हि꣢꣯नम् । अ꣡त्यः꣢꣯ । न । मृ꣣ष्टः꣢ । अ꣣भि꣢ । वा꣡ज꣢꣯म् । अ꣣र्ष꣡सि । अपसे꣡ध꣢न् । अ꣣प । से꣡ध꣢꣯न् । दु꣣रिता꣢ । दुः꣣ । इता꣢ । सो꣣म । नः । मृड । घृता꣢ । व꣡सा꣢꣯नः । प꣡रि꣢꣯ । या꣣सि । निर्णि꣡ज꣢म् । निः꣣ । नि꣡ज꣢꣯म् ॥१३१८॥
स्वर रहित मन्त्र
कविर्वेधस्या पर्येषि माहिनमत्यो न मृष्टो अभि वाजमर्षसि । अपसेधन्दुरिता सोम नो मृड घृता वसानः परि यासि निर्णिजम् ॥१३१८॥
स्वर रहित पद पाठ
कविः । वेधस्या । परि । एषि । माहिनम् । अत्यः । न । मृष्टः । अभि । वाजम् । अर्षसि । अपसेधन् । अप । सेधन् । दुरिता । दुः । इता । सोम । नः । मृड । घृता । वसानः । परि । यासि । निर्णिजम् । निः । निजम् ॥१३१८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1318
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 9; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 9; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
Acknowledgment
विषय - अगले मन्त्र में जीवात्मा को उद्बोधन दिया गया है।
पदार्थ -
हे सोम ! हे शान्तिप्रिय जीवात्मन् ! (कविः) मेधावी तू (वेधस्या) महान् कार्य को करने की इच्छा से (माहिनम्) महान् परमात्मा की (पर्येषि) उपासना कर। (मृष्टः) ब्रुश से रगड़कर साफ़ किये गये (अत्यः न) घोड़े के समान (मृष्टः) यम, नियम आदि से शोधित तू, विजयप्राप्ति के लिए (वाजम् अभि) देवासुरसङ्ग्राम में (अर्षसि) जा। हे (सोम) जीवात्मन् ! (दुरिता) दुर्गुण, दुर्व्यसन आदियों को (अपसेधन्) दूर करता हुआ तू (नः) हमें (मृड) सुखी करऔर (घृता) तेजों को (वसानः) धारण करता हुआ तू (निर्णिजम्) शुद्ध रूप को (परियासि) प्राप्त कर ॥ सोम ओषधि के पक्ष में भी अर्थयोजना करनी चाहिए। सोम ओषधि का रस (माहिनम्) महान् द्रोणकलश में जाता है, शुद्ध किया जाकर (वाजम्) यज्ञ में ले जाया जाता है, पान करने पर (दुरितानि) दुर्विचारों को दूर करके सद्विचारों को उत्तेजित करता है और (घृता) जलों के साथ मिलता है ॥३॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥३॥
भावार्थ - मनुष्यों को चाहिए कि परमात्मा की उपासना, देवासुरसङ्ग्राम में विजय, दुरितों के ध्वंस, पुण्यकर्मों की समृद्धि और तेज को धारण करके योग-क्षेम को सिद्ध करें ॥३॥ इस खण्ड में परमात्मा के ध्यान से ब्रह्मानन्द की प्राप्ति का, जीवात्मा के उद्बोधन का और प्रसङ्गतः सोम ओषधि के विषय का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ दशम अध्याय में नवम खण्ड समाप्त ॥
इस भाष्य को एडिट करें