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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1317
ऋषिः - वसुर्भारद्वाजः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
3
प꣣र्ज꣡न्यः꣢ पि꣣ता꣡ म꣢हि꣣ष꣡स्य꣢ प꣣र्णि꣢नो꣣ ना꣡भा꣢ पृथि꣣व्या꣢ गि꣣रि꣢षु꣣ क्ष꣡यं꣢ दधे । स्व꣡सा꣢र꣣ आ꣡पो꣢ अ꣣भि꣢꣫ गा उ꣣दा꣡स꣢र꣣न्त्सं꣡ ग्राव꣢꣯भिर्वसते वी꣣ते꣡ अ꣢ध्व꣣रे꣢ ॥१३१७॥
स्वर सहित पद पाठप꣣र्ज꣡न्यः꣢ । पि꣣ता꣢ । म꣣हिष꣡स्य꣢ । प꣣र्णि꣡नः꣢ । ना꣡भा꣢꣯ । पृ꣣थिव्याः꣢ । गि꣣रि꣡षु꣢ । क्ष꣡य꣢꣯म् । द꣣धे । स्व꣡सा꣢꣯रः । आ꣡पः꣢꣯ । अ꣣भि꣢ । गाः । उ꣣दा꣡स꣢रन् । उ꣡त् । आ꣡स꣢꣯रन् । सम् । ग्रा꣡व꣢꣯भिः । व꣣सते । वीते꣢ । अ꣣ध्वरे꣢ ॥१३१७॥
स्वर रहित मन्त्र
पर्जन्यः पिता महिषस्य पर्णिनो नाभा पृथिव्या गिरिषु क्षयं दधे । स्वसार आपो अभि गा उदासरन्त्सं ग्रावभिर्वसते वीते अध्वरे ॥१३१७॥
स्वर रहित पद पाठ
पर्जन्यः । पिता । महिषस्य । पर्णिनः । नाभा । पृथिव्याः । गिरिषु । क्षयम् । दधे । स्वसारः । आपः । अभि । गाः । उदासरन् । उत् । आसरन् । सम् । ग्रावभिः । वसते । वीते । अध्वरे ॥१३१७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1317
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 9; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 9; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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विषय - अगले मन्त्र में पुनः सोम नाम से सोम ओषधि और जीवात्मा का वर्णन है।
पदार्थ -
प्रथम—सोम ओषधि के पक्ष में। (महिषस्य) महान्, (पर्णिनः) पत्तों या डंठलोंवाले इस ओषधिराज सोम का (पर्जन्यः) बादल (पिता) पिता है। यह सोम (पृथिव्याः नाभा) भूमि के केन्द्रस्थलों में और (गिरिषु) पर्वतों पर (क्षयम्) निवास को (दधे) धारण करता है। बादल से (स्वसारः आपः) बहिनों के समान साथ-साथ चलनेवाली जल-धाराएँ (गाः अभि) भूमि-प्रदेशों की ओर (उद् आ सरन्) ऊपर से आती हैं। इस प्रकार (अध्वरे) वर्षारूप यज्ञ के (वीते) प्रवृत्त होने पर वे जल (गाः) भूमियों को (ग्रावभिः) प्राणों से (सं वसत) आच्छादित कर देते हैं ॥ अथर्ववेद में भी कहा गया है कि वर्षा के साथ भूमि पर प्राण बरसता है— प्रा॒णो अ॒भ्यव॑र्षीद् व॒र्षेण॑ पृथि॒वीं म॒हीम् (अथ० ११।४।५) ॥२॥ द्वितीय—जीवात्मा के पक्ष में। (महिषस्य) महत्त्वशाली, (पर्णिनः) ज्ञान-कर्म रूप पङ्खोंवाले इस सोम नामक जीवात्मा का (पिता) देह में जन्मदाता और पालनकर्ता (पर्जन्यः) मेघवत् सुखवर्षक परमात्मा है। यह आत्मा (पृथिव्याः) पार्थिव शरीर के (नाभा) केन्द्रभूत हृदय में और (गिरिषु) पर्वत के समान उन्नत मस्तिष्क-प्रकोष्ठों में (क्षयं) निवास को (दधे) धारण करता है। (स्वसारः) शरीर में रखी हुई (आपः) ज्ञानवाहक तन्तु-नाड़ियाँ (गाः अभि) ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की ओर (उदासरन्) ऊपर से आती हैं और (अध्वरे) ज्ञान-यज्ञ तथा कर्म-यज्ञ के (वीते) प्रवृत्त होने पर (ग्रावभिः) ग्राह्य विषयों के साथ (संवसते) मिलती हैं, जिससे मनसहित ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान का ग्रहण और मनसहित कर्मेन्द्रियों से कर्म संपन्न होता है ॥२॥ यहाँ श्लेषालङ्कार है ॥२॥
भावार्थ - वर्षा से जो भूमि पर सोम आदि ओषधियाँ उत्पन्न होती हैं और प्राण बरसता है तथा शरीर में जो जीवात्मा मनसहित ज्ञानेन्द्रियों वा कर्मेन्द्रियों से ज्ञान ग्रहण करता वा कर्म करता है, वह सब जगदीश्वर के ही कर्तृत्व को प्रकट करता है ॥२॥
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