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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1386
ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
5
प्र꣡ सु꣢न्वा꣣ना꣡यान्ध꣢꣯सो꣣ म꣢र्तो꣣ न꣡ व꣢ष्ट꣣ त꣡द्वचः꣢꣯ । अ꣢प꣣ श्वा꣡न꣢मरा꣣ध꣡स꣢ꣳ ह꣣ता꣢ म꣣खं꣡ न भृग꣢꣯वः ॥१३८६॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । सु꣣न्वाना꣡य꣢ । अ꣡न्ध꣢꣯सः । म꣡र्तः꣢꣯ । न । व꣣ष्ट । त꣢त् । व꣡चः꣢꣯ । अ꣡प꣢꣯ । श्वा꣡न꣢꣯म् । अ꣣राध꣡स꣢म् । अ꣣ । राध꣡स꣢म् । ह꣣त꣢ । म꣣ख꣢म् । न । भृ꣡ग꣢꣯वः ॥१३८६॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सुन्वानायान्धसो मर्तो न वष्ट तद्वचः । अप श्वानमराधसꣳ हता मखं न भृगवः ॥१३८६॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । सुन्वानाय । अन्धसः । मर्तः । न । वष्ट । तत् । वचः । अप । श्वानम् । अराधसम् । अ । राधसम् । हत । मखम् । न । भृगवः ॥१३८६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1386
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ५५३ क्रमाङ्क पर और उत्तरार्चिक में ७७४ क्रमाङ्क में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ उससे भिन्न व्याख्या प्रस्तुत है।
पदार्थ -
(अन्धसः) ब्रह्मानन्द-रूप सोमरस को (सुन्वानाय) अपने आत्मा के अन्दर प्रस्रुत करनेवाले मनुष्य के लिए (प्र) प्रशंसात्मक वचन कहो, (मर्तः) उससे भिन्न साधारण मनुष्य (तत् वचः) उस प्रशंसात्मक वचन का (न वष्ट) अधिकारी नहीं है। हे राज्याधिकारियो ! तुम (अराधसम्) परमेश्वर की आराधना न करनेवाले, (श्वानम्) श्वान के समान लोभ आदि में आसक्त, केवल पेट भरने में लगे हुए मनुष्य को (अपहत) विनष्ट कर दो, (भृगवः) सूर्य-किरणें (मखं न) जैसे व्याप्त अन्धकार को विनष्ट करती हैं ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥
भावार्थ - राज्याधिकारियों को चाहिए कि जो न परमेश्वर की आराधना करता है, न दीन जनों की सेवा करता है, केवल स्वार्थ-साधन में लगा हुआ पशुओं से भी अधिक निकृष्ट जीवन बिताता है, उसे यथायोग्य दण्डित करें ॥१॥
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