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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1389
ऋषिः - सौभरि: काण्व: देवता - इन्द्रः छन्दः - काकुभः प्रगाथः (विषमा ककुप्, समा सतोबृहती) स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
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अ꣣भ्रातृव्यो꣢ अ꣣ना꣡ त्वमना꣢꣯पिरिन्द्र ज꣣नु꣡षा꣢ स꣣ना꣡द꣢सि । यु꣣धे꣡दा꣢पि꣣त्व꣡मि꣢च्छसे ॥१३८९॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣भ्रातृव्यः꣢ । अ꣣ । भ्रातृव्यः꣢ । अ꣣ना꣢ । त्वम् । अ꣡ना꣢꣯पिः । अन् । आ꣣पिः । इन्द्र । जनु꣡षा꣢ । स꣣ना꣢त् । अ꣣सि । युधा꣢ । इत् । आ꣣पित्व꣢म् । इ꣣च्छसे ॥१३८९॥


स्वर रहित मन्त्र

अभ्रातृव्यो अना त्वमनापिरिन्द्र जनुषा सनादसि । युधेदापित्वमिच्छसे ॥१३८९॥


स्वर रहित पद पाठ

अभ्रातृव्यः । अ । भ्रातृव्यः । अना । त्वम् । अनापिः । अन् । आपिः । इन्द्र । जनुषा । सनात् । असि । युधा । इत् । आपित्वम् । इच्छसे ॥१३८९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1389
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
हे जीवात्मन् ! (सनात्) सदा (जनुषा) शरीरधारणरूप जन्म से तू (अभ्रातृव्यः) न शत्रुओंवाला, (अना) न नेतावाला और (अनापिः) न किसी का बन्धु (असि) है, (युधा इत्) युद्ध से ही (आपित्वम्) किसी को बन्धु वा किसी को शत्रु (इच्छसे) मानने लगता है ॥१॥

भावार्थ - जब शिशु माता के गर्भ से जन्म लेता है, तब न उसका कोई शत्रु, न नेता, न ही बन्धु होता है। बड़ा होकर सांसारिक वासनाओं से वासित वह युद्ध आदि से किसी को शत्रु, किसी को नेता और किसी को बन्धु बना लेता है। युद्ध, विद्वेष आदि छोड़कर उसे सबके साथ मित्रता करके आपस में शान्ति के साथ रहना चाहिए ॥१॥

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