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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1439
ऋषिः - कविर्भार्गवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
6

प꣡व꣢मानो असिष्यद꣣द्र꣡क्षा꣢ꣳस्यप꣣ज꣡ङ्घ꣢नत् । प्र꣣त्नव꣢द्रो꣣च꣢य꣣न्रु꣡चः꣢ ॥१४३९॥

स्वर सहित पद पाठ

प꣡व꣢꣯मानः । अ꣣सिष्यदत् । र꣡क्षा꣢꣯ꣳसि । अ꣣पज꣡ङ्घ꣢नत् । अ꣣प । ज꣡ङ्घ꣢꣯नत् । प्र꣣त्नव꣢त् । रो꣣च꣡यन् । रु꣡चः꣢꣯ ॥१४३९॥


स्वर रहित मन्त्र

पवमानो असिष्यदद्रक्षाꣳस्यपजङ्घनत् । प्रत्नवद्रोचयन्रुचः ॥१४३९॥


स्वर रहित पद पाठ

पवमानः । असिष्यदत् । रक्षाꣳसि । अपजङ्घनत् । अप । जङ्घनत् । प्रत्नवत् । रोचयन् । रुचः ॥१४३९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1439
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 5
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 5
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पदार्थ -
(पवमानः) पवित्रतादायक आनन्दवर्षी जगदीश्वर (रक्षांसि) काम, क्रोध आदि रिपुओं को और पापों को (अपजङ्घनत्) नष्ट करता हुआ (प्रत्नवत्) पुरातन अग्नि के समान (रुचः) तेजों को (रोचयन्) प्रदीप्त करता हुआ (असिष्यदत्) बह रहा है ॥५॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥५॥

भावार्थ - परमेश्वर की कृपा से उपासक के अन्तःकरण से वासनाएँ क्षीण हो जाती हैं, तेज दमकते हैं और हृदय कालिमा से रहित पवित्र हो जाता है ॥५॥

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