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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1466
ऋषिः - यजत आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
4

ऋ꣣त꣢मृ꣣ते꣢न꣣ स꣡प꣢न्तेषि꣣रं꣡ दक्ष꣢꣯माशाते । अ꣣द्रु꣡हा꣢ दे꣣वौ꣡ व꣢र्धेते ॥१४६६॥

स्वर सहित पद पाठ

ऋ꣣त꣢म् । ऋ꣣ते꣡न꣢ । स꣡प꣢꣯न्ता । इ꣣षिर꣢म् । द꣡क्ष꣢꣯म् । आ꣣शातेइ꣡ति꣢ । अ꣣द्रु꣡हा꣢ । अ꣣ । द्रु꣡हा꣢꣯ । दे꣣वौ꣢ । व꣣र्धेतेइ꣡ति꣢ ॥१४६६॥


स्वर रहित मन्त्र

ऋतमृतेन सपन्तेषिरं दक्षमाशाते । अद्रुहा देवौ वर्धेते ॥१४६६॥


स्वर रहित पद पाठ

ऋतम् । ऋतेन । सपन्ता । इषिरम् । दक्षम् । आशातेइति । अद्रुहा । अ । द्रुहा । देवौ । वर्धेतेइति ॥१४६६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1466
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 4; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
ये मित्र-वरुण अर्थात् ब्राह्मण-क्षत्रिय (ऋतम्) राष्ट्र-यज्ञ की (ऋतेन) सत्य ब्रह्मबल वा सत्य क्षात्रबल से (सपन्ता) सेवा करते हुए (इषिरम्) प्रेरक (दक्षम्) उत्साह को (आशाते)प्राप्त करते हैं। (अद्रुहा) आपस में द्रोह न करनेवाले (देवौ) ब्रह्मवर्चस वा क्षात्र तेज से प्रकाशमान, दानादि गुणों से युक्त ये (वर्धेते) वृद्धि प्राप्त करते हैं ॥२॥

भावार्थ - आपस में द्रोह न करते हुए, अपितु सहयोग करते हुए ब्राह्मण और क्षत्रिय ब्रह्मबल और क्षात्रबल का उपयोग करके स्वयं बढ़ते हुए राष्ट्र को भी बढ़ाते हैं ॥२॥

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