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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1472
ऋषिः - उशनाः काव्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
8
स꣢ ई꣣ꣳ र꣢थो꣣ न꣡ भु꣢रि꣣षा꣡ड꣢योजि म꣣हः꣢ पु꣣रू꣡णि꣢ सा꣣त꣢ये꣣ व꣡सू꣢नि । आ꣢दीं꣣ वि꣡श्वा꣢ नहु꣣꣬ष्या꣢꣯णि जा꣣ता꣡ स्व꣢र्षाता꣣ व꣡न꣢ ऊ꣣र्ध्वा꣡ न꣢वन्त ॥१४७२॥
स्वर सहित पद पाठसः । ई꣣म् । र꣡थः꣢꣯ । न । भु꣣रिषा꣢ट् । अ꣣योजि । महः꣢ । पु꣣रू꣡णि꣢ । सा꣣त꣡ये꣢ । व꣡सू꣢꣯नि । आत् । ई꣣म् । वि꣡श्वा꣢꣯ । न꣣हुष्या꣢णि । जा꣣ता꣢ । स्व꣡र्षा꣢ता । स्वः꣡ । सा꣣ता । व꣡ने꣢꣯ । ऊ꣣र्ध्वा꣡ । न꣣वन्त ॥१४७२॥
स्वर रहित मन्त्र
स ईꣳ रथो न भुरिषाडयोजि महः पुरूणि सातये वसूनि । आदीं विश्वा नहुष्याणि जाता स्वर्षाता वन ऊर्ध्वा नवन्त ॥१४७२॥
स्वर रहित पद पाठ
सः । ईम् । रथः । न । भुरिषाट् । अयोजि । महः । पुरूणि । सातये । वसूनि । आत् । ईम् । विश्वा । नहुष्याणि । जाता । स्वर्षाता । स्वः । साता । वने । ऊर्ध्वा । नवन्त ॥१४७२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1472
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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विषय - अगले मन्त्र में परमात्मा की मैत्री का फल वर्णित है।
पदार्थ -
(सः ईम्) वह यह (भुरिषाट्) बहुत-से विघ्नों को परास्त करनेवाला, (महः) महान् सोम नामक जीवात्मा (पुरूणि वसूनि) बहुत से ऐश्वर्यों को (सातये) प्राप्त करने के लिए (रथः न) रथ के समान (अयोजि) परमात्मा के साथ जुड़ गया है। (आत् ईम्) तदनन्तर ही (विश्वा) सब (जाता) बलवान् बने हुए (नहुष्याणि) मनुष्य के मन, बुद्धि आदि (स्वर्षाता) प्रकाश की प्राप्ति हो जाने पर (वने) तेज में (ऊर्ध्वा) ऊर्ध्वगामी होकर (नवन्त) क्रियाशील हो गये हैं ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥
भावार्थ - जैसे रथ जब बिजली रूप अग्नि के साथ जुड़ जाता है, तब तुरन्त सक्रिय हो जाता है, वैसे ही परमात्मा की मित्रता में जुड़ा हुआ जीवात्मा स्वयं पुरुषार्थी होकर मन, बुद्धि आदि को भी सक्रिय कर देता है ॥२॥
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