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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1620
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
5
इ꣡न्द्रं꣢ वो वि꣣श्व꣢त꣣स्प꣢रि꣣ ह꣡वा꣢महे꣣ ज꣡ने꣢भ्यः । अ꣣स्मा꣡क꣢मस्तु꣣ के꣡व꣢लः ॥१६२०॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्र꣢꣯म् । वः꣣ । विश्व꣡तः꣢ । प꣡रि꣢꣯ । ह꣡वा꣢꣯महे । ज꣡ने꣢꣯भ्यः । अ꣣स्मा꣡क꣢म् । अ꣣स्तु । के꣡व꣢꣯लः ॥१६२०॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रं वो विश्वतस्परि हवामहे जनेभ्यः । अस्माकमस्तु केवलः ॥१६२०॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्रम् । वः । विश्वतः । परि । हवामहे । जनेभ्यः । अस्माकम् । अस्तु । केवलः ॥१६२०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1620
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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विषय - प्रथम मन्त्र में इन्द्र नाम से परमात्मा का विषय है।
पदार्थ -
हे साथियो ! (विश्वतः परि) सबसे ऊपर, हम (इन्द्रम्) विघ्ननाशक, परमैश्वर्यवान् परमात्मा को (जनेभ्यः वः) आप प्रजाजनों के लिए (हवामहे) पुकारते हैं। वह (अस्माकम्)हम श्रोताओं का (केवलः) अद्वितीय सखा (अस्तु) होवे ॥१॥
भावार्थ - भले ही माता, पिता, राजा आदि हमें सुख देनेवाले होते हैं, परन्तु सदा सहायक, सदा अशरण-शरण, सदा धैर्यप्रदाता सखा तो जगदीश्वर ही है ॥१॥
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