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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1693
ऋषिः - विश्वामित्रः प्रागाथः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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इ꣡न्द्रा꣢ग्नी रोच꣣ना꣢ दि꣣वः꣢꣫ परि꣣ वा꣡जे꣢षु भूषथः । त꣡द्वां꣢ चेति꣣ प्र꣢ वी꣣꣬र्य꣢꣯म् ॥१६९३॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । रो꣣चना꣢ । दि꣡वः꣢ । प꣡रि꣢꣯ । वा꣡जे꣢꣯षु । भू꣣षथः । त꣢त् । वा꣣म् । चेति । प्र꣢ । वी꣣र्यम्꣢ ॥१६९३॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्द्राग्नी रोचना दिवः परि वाजेषु भूषथः । तद्वां चेति प्र वीर्यम् ॥१६९३॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्द्राग्नी । इन्द्र । अग्नीइति । रोचना । दिवः । परि । वाजेषु । भूषथः । तत् । वाम् । चेति । प्र । वीर्यम् ॥१६९३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1693
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 3; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
हे (इन्द्राग्नी) आत्मा और मन ! (युवाम्) तुम दोनों (वाजेषु) देवासुरसङ्ग्रामों में (दिवः) प्रकाशक परमात्मा की (रोचना)ज्योति को (परि भूषथः) चारों ओर से प्राप्त करते हो। (तत्) वह प्रसिद्ध (वाम्) तुम दोनों का (वीर्यम्) बल (प्र चेति) सब के द्वारा प्रकृष्टरूप से जाना जाता है ॥१॥

भावार्थ - मनुष्य के आत्मा और मन को योग्य है कि आन्तरिक देवासुरसङ्ग्रामों में सब आसुरी भावों को पराजित करके परमात्मा की प्राप्ति के लक्ष्य तक पहुँचें ॥१॥

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