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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1759
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अश्विनौ छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम -
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य꣢द्यु꣣ञ्जा꣢थे꣣ वृ꣡ष꣢णमश्विना꣣ र꣡थं꣢ घृ꣣ते꣡न꣢ नो꣣ म꣡धु꣢ना क्ष꣣त्र꣡मु꣢क्षतम् । अ꣣स्मा꣢कं꣣ ब्र꣢ह्म꣣ पृ꣡त꣢नासु जिन्वतं व꣣यं꣢꣫ धना꣣ शू꣡र꣢साता भजेमहि ॥१७५९॥

स्वर सहित पद पाठ

यत् । यु꣣ञ्जा꣢थे꣢इ꣡ति꣢ । वृ꣡ष꣢꣯णम् । अ꣣श्विना । र꣡थ꣢꣯म् । घृ꣣ते꣡न꣢ । नः꣣ । म꣡धु꣢꣯ना । क्ष꣣त्र꣢म् । उ꣣क्षतम् । अस्मा꣡क꣢म् । ब्र꣡ह्म꣢꣯ । पृ꣡त꣢꣯नासु । जि꣣न्वतम् । वय꣢म् । ध꣡ना꣢꣯ । शू꣡र꣢꣯साता । शू꣡र꣢꣯ । सा꣣ता । भजेमहि ॥१७५९॥


स्वर रहित मन्त्र

यद्युञ्जाथे वृषणमश्विना रथं घृतेन नो मधुना क्षत्रमुक्षतम् । अस्माकं ब्रह्म पृतनासु जिन्वतं वयं धना शूरसाता भजेमहि ॥१७५९॥


स्वर रहित पद पाठ

यत् । युञ्जाथेइति । वृषणम् । अश्विना । रथम् । घृतेन । नः । मधुना । क्षत्रम् । उक्षतम् । अस्माकम् । ब्रह्म । पृतनासु । जिन्वतम् । वयम् । धना । शूरसाता । शूर । साता । भजेमहि ॥१७५९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1759
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
हे (अश्विना) प्राणापानो ! (यत्) जब, तुम (वृषणम्) बलवान् (रथम्) शरीर-रथ को (युञ्जाथे) चलने के लिए नियुक्त करते हो तब (नः) हमारे (क्षत्रम्) क्षात्रबल को (घृतेन) तेज से और (मधुना) माधुर्य से (उक्षतम्) सींचो (अस्माकम्) हम वीरों की (पृतनासु) सेनाओं में (ब्रह्म) ब्रह्मबल को (जिन्वतम्) प्रेरित करो। (वयम्) हम वीर (शूरसाता) देवासुरसङ्ग्राम में (धना) दिव्य और भौतिक ऐश्वर्यों को (भजेमहि) प्राप्त करें ॥२॥

भावार्थ - क्षत्रियों में केवल क्षात्रबल ही नहीं, प्रत्युत ब्रह्मबल भी अपेक्षित होता है। वैसे ही ब्राह्मणों में ब्रह्मबल के अतिरिक्त क्षात्रबल भी अभीष्ट होता है। दोनों के समन्वय से ही व्यक्तियों और राष्ट्रों की उन्नति होती है ॥२॥

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