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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1815
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - अग्निः
छन्दः - अत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
5
स꣢꣫ हि पु꣣रू꣢ चि꣣दो꣡ज꣢सा वि꣣रु꣡क्म꣢ता꣣ दी꣡द्या꣢नो꣣ भ꣡व꣢ति द्रु꣢ह꣣न्त꣡रः प꣢र꣣शु꣡र्न द्रु꣢꣯हन्त꣣रः꣢ । वी꣣डु꣢ चि꣣द्य꣢स्य꣣ स꣡मृ꣢तौ꣣ श्रु꣢व꣣द्व꣡ने꣢व꣣ य꣢त्स्थि꣣र꣢म् । नि꣣ष्ष꣡ह꣢माणो यमते꣣ ना꣡य꣢ते धन्वा꣣स꣢हा꣣ ना꣡य꣢ते ॥१८१५॥
स्वर सहित पद पाठसः । हि । पु꣣रु꣢ । चि꣣त् । ओ꣡ज꣢꣯सा । वि꣣रु꣡क्म꣢ता । वि꣣ । रु꣡क्म꣢꣯ता । दी꣡द्या꣢꣯नः । भ꣡व꣢꣯ति । द्रु꣣हन्तरः꣢ । द्रु꣣हम् । तरः꣢ । प꣣रशुः꣢ । न । द्रु꣣हन्तरः꣢ । द्रु꣣हम् । तरः꣢ । वी꣣डु꣢ । चि꣣त् । य꣡स्य꣢꣯ । स꣡मृतौ꣢꣯ । सम् । ऋ꣣तौ । श्रु꣡व꣢꣯त् । व꣡ना꣢꣯ । इ꣣व । य꣢त् । स्थि꣣र꣢म् । नि꣣ष्ष꣡ह꣢माणः । निः꣣ । स꣡ह꣢꣯मानः । य꣣मते । न꣢ । अ꣣यते । धन्वास꣡हा꣢ । ध꣣न्व । स꣡हा꣢꣯ । न꣢ । अ꣣यते ॥१८१५॥
स्वर रहित मन्त्र
स हि पुरू चिदोजसा विरुक्मता दीद्यानो भवति द्रुहन्तरः परशुर्न द्रुहन्तरः । वीडु चिद्यस्य समृतौ श्रुवद्वनेव यत्स्थिरम् । निष्षहमाणो यमते नायते धन्वासहा नायते ॥१८१५॥
स्वर रहित पद पाठ
सः । हि । पुरु । चित् । ओजसा । विरुक्मता । वि । रुक्मता । दीद्यानः । भवति । द्रुहन्तरः । द्रुहम् । तरः । परशुः । न । द्रुहन्तरः । द्रुहम् । तरः । वीडु । चित् । यस्य । समृतौ । सम् । ऋतौ । श्रुवत् । वना । इव । यत् । स्थिरम् । निष्षहमाणः । निः । सहमानः । यमते । न । अयते । धन्वासहा । धन्व । सहा । न । अयते ॥१८१५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1815
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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विषय - अगले मन्त्र में जीवात्मा का रणकौशल वर्णित है।
पदार्थ -
(विरुक्मता) दीप्तियुक्त (ओजसा) प्रताप से (पुरु चित्) बहुत अधिक (दीद्यानः) द्युतिमान् (स हि) वह अग्नि अर्थात् अग्रनायक जीवात्मा (द्रुहन्तरः) द्रोह करनेवाले काम, क्रोध आदि शत्रु को पार करनेवाला (भवति) हो जाता है, (परशुः न) परशु के समान (द्रुहन्तरः) द्रोहकर्ता का वध करनेवाला हो जाता है, (यस्य) जिस जीवात्मा की (समृतौ) टक्कर होने पर (वीडु चित्) बलवान् भी, (वना इव) वन के समान (यत् स्थिरम्) जो स्थिर है, वह भी (श्रुवत्) विनष्ट हो जाता है या डगमगा जाता है, जो (निष्षहमाणः) शत्रुओं को तिरस्कृत करता हुआ, उन्हें (यमते) युद्ध से हटा देता है, (न अयते) स्वयं युद्ध से पलायन नहीं करता, अपितु (धन्वसहा न) धनुर्धारी के समान (अयते) देवासुरसङ्ग्राम में जाता है ॥३॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है, तीन उपमाएँ हैं। ‘द्रुहन्तरः’ और ‘नायते’ की आवृत्ति में यमक है ॥३॥
भावार्थ - देहधारी जीवात्मा जड़ जमाये हुए भी आन्तरिक तथा बाह्य सब शत्रुओं का उन्मूलन करके रणकुशल सेनापति के समान देवासुरसङ्ग्राम में विजयी हो ॥३॥ इस खण्ड में परमात्मा और जीवात्मा के विषय का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ नवम प्रपाठक में प्रथम अर्ध समाप्त ॥
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