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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 246
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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आ꣢ म꣣न्द्रै꣡रि꣢न्द्र꣣ ह꣡रि꣢भिर्या꣣हि꣢ म꣣यू꣡र꣢रोमभिः । मा꣢ त्वा꣣ के꣢ चि꣣न्नि꣡ ये꣢मु꣣रि꣢꣫न्न पा꣣शि꣢꣫नोऽति꣣ ध꣡न्वे꣢व꣣ ता꣡ꣳ इ꣢हि ॥२४६॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । म꣣न्द्रैः꣢ । इ꣣न्द्र । ह꣡रि꣢꣯भिः । या꣣हि꣢ । म꣣यू꣡र꣢रोमभिः । म꣣यू꣡र꣢ । रो꣣मभिः । मा꣢ । त्वा꣣ । के꣢ । चित् । नि꣢ । ये꣣मुः । इ꣢त् । न । पा꣣शि꣡नः꣢ । अ꣡ति꣢꣯ । ध꣡न्व꣢꣯ । इ꣣व । ता꣢न् । इ꣣हि ॥२४६॥
स्वर रहित मन्त्र
आ मन्द्रैरिन्द्र हरिभिर्याहि मयूररोमभिः । मा त्वा के चिन्नि येमुरिन्न पाशिनोऽति धन्वेव ताꣳ इहि ॥२४६॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । मन्द्रैः । इन्द्र । हरिभिः । याहि । मयूररोमभिः । मयूर । रोमभिः । मा । त्वा । के । चित् । नि । येमुः । इत् । न । पाशिनः । अति । धन्व । इव । तान् । इहि ॥२४६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 246
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2;
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विषय - अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि इन्द्र निर्बाध हमारे समीप आ जाए।
पदार्थ -
प्रथम—अध्यात्म के पक्ष में। हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् ! आप (मन्द्रैः) आनन्ददायक (मयूररोमभिः) मोरपंखों के समान मृदु (हरिभिः) प्राणों के द्वारा (आयाहि) आइये, अर्थात् हमारे हृदय में प्रकट होइये। (त्वा) प्रकट होते हुए आपको (केचित्) कोई भी योगमार्ग में बाधक व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व, अनवस्थितत्व रूप विघ्न (मा नियेमुः) न रोक सकें, (न) जैसे (पाशिनः) जाल हाथ में लिये व्याध (इत्) गतिमान् अर्थात् भूमि पर चलते हुए अथवा आकाश में उड़ते हुए पशु-पक्षी आदि को जाल द्वारा रोक लेते हैं। (तान्) उन प्रतिबन्धकों को (धन्व इव) अन्तरिक्ष के समान (अति इहि) पार करके प्रकट हो जाइए, अर्थात् जैसे विमानों से अन्तरिक्ष को पार करके कोई आता है, वैसे ही उन बाधकों को पार करके आप हमारे हृदय में प्रकट होइए। अथवा (धन्व इव) धनुष धारी के समान आप उन बाधक शत्रुओं को पराजित करके प्रकट हो जाइए ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे (इन्द्र) शत्रुविदारक वीर राजन् ! आप (मन्द्रैः) स्तुतियोग्य अथवा गम्भीर स्वरवाले, (मयूररोमभिः) मोरों के रोमों के समान मृदु केसरोंवाले (हरिभिः) रथ में जोते हुए उत्कृष्ट जाति के घोड़ों द्वारा (आयाहि) संकट-काल में प्रजा की रक्षा के लिए आइए ! (न) जैसे (इत्) भूमि पर चलते या आकाश में उड़ते हुए पशु-पक्षी आदि को (पाशिनः) पाशधारी व्याध बाँध लेते हैं, वैसे (त्वा) आपको (केचित्) कोई भी शत्रुजन (मा नियेमुः) बाँध न सकें, (धन्व इव) धनुष के समान आप (तान्) उन शत्रुओं को (अति इहि) अतिक्रान्त अर्थात् पराजित कर दीजिए ॥४॥ इस मन्त्र में श्लेषा तथा उपमालङ्कार है। रेफ, मकार और नकार की अनेक बार आवृत्ति में वृत्त्यनुप्रास है। न्द्रै, न्द्र न्नि, न्न में छेकानुप्रास है ॥४॥
भावार्थ - प्राणों का स्वरूप मोर के रोमों के समान मृदु होता है, इसीलिए प्राणविद्या मधुविद्या के नाम से प्रसिद्ध है। प्राणायाम द्वारा हम परमात्मा को अपने हृदय के अन्दर प्रकट कर सकते हैं। प्रकट किया गया वह हमारी योगसाधना में आनेवाले विघ्नों को दूर कर देता है। इसीप्रकार प्रजाजनों से पुकार गया राजा सब शत्रुओं को पराजित करके राष्ट को उन्नत करता है ॥४॥
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