Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 318
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
7
इ꣢न्द्रं꣣ न꣡रो꣢ ने꣣म꣡धि꣢ता हवन्ते꣣ य꣡त्पार्या꣢꣯ यु꣣न꣡ज꣢ते꣣ धि꣢य꣣स्ताः꣢ । शू꣢रो꣣ नृ꣡षा꣢ता꣣ श्र꣡व꣢सश्च꣣ का꣢म꣣ आ꣡ गोम꣢꣯ति व्र꣣जे꣡ भ꣢जा꣣ त्वं꣡ नः꣢ ॥३१८॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्र꣢꣯म् । न꣡रः꣢꣯ । ने꣣म꣡धि꣢ता । ने꣣म꣢ । धि꣣ता । हवन्ते । य꣢त् । पा꣡र्याः꣢ । यु꣣न꣡ज꣢ते । धि꣡यः꣢꣯ । ताः । शू꣡रः꣢꣯ । नृ꣡षा꣢꣯ता । नृ । सा꣣ता । श्र꣡व꣢꣯सः । च । ꣣ का꣡मे꣢꣯ । आ । गो꣡म꣢꣯ति । व्र꣣जे꣢ । भ꣣ज । त्व꣢म् । नः꣣ ॥३१८॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रं नरो नेमधिता हवन्ते यत्पार्या युनजते धियस्ताः । शूरो नृषाता श्रवसश्च काम आ गोमति व्रजे भजा त्वं नः ॥३१८॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्रम् । नरः । नेमधिता । नेम । धिता । हवन्ते । यत् । पार्याः । युनजते । धियः । ताः । शूरः । नृषाता । नृ । साता । श्रवसः । च । कामे । आ । गोमति । व्रजे । भज । त्वम् । नः ॥३१८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 318
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 9;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 9;
Acknowledgment
विषय - अगले मन्त्र में परमात्मा और राजा से प्रार्थना की गयी है।
पदार्थ -
(इन्द्रम्) वीर परमात्मा वा राजा को (नरः) प्रजाजन (नेमधिता) आन्तरिक वा बाह्य संग्राम में और यज्ञ में (हवन्ते) सहायतार्थ पुकारते हैं। (पार्याः) पार होने योग्य वे, आन्तरिक और बाह्य विघ्नों को पार करने के लिए (यत्) जिस साधन का (युनजते) उपयोग करते हैं (ताः) वे (धियः) बुद्धियाँ और कर्म हैं, अर्थात् बुद्धि और कर्म का अवलम्बन करके वे सब शत्रुओं और विघ्नों को पार करते हैं। हे परमात्मन् वा राजन् ! (शूरः) शूरवीर (त्वम्) आप (नृषाता) संग्राम में (यशसः च) और यश की (कामे) अभिलाषा-पूर्ति में, और (गोमति व्रजे) प्रशस्त भूमि, वाणी, इन्द्रिय, दुधार गायों आदि के समूह में (नः) हमें (आ भज) भागी बनाइए, अर्थात् आप हमारी यशस्वी होने की कामना को पूर्ण कीजिए तथा हमें पृथिवी का राज्य, वाणी का बल, इन्द्रियों का बल और उत्तम जाति की गायें आदि प्राप्त कराइए ॥६॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेष अलङ्कार है ॥६॥
भावार्थ - परमात्मा की कृपा, राजा की सहायता एवं अपने बुद्धिकौशल तथा पुरुषार्थ से शत्रु-विजय, परम कीर्ति, भूमण्डल का साम्राज्य आदि सब अभीष्ट वस्तुएँ प्राप्त की जा सकती हैं ॥६॥
इस भाष्य को एडिट करें