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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 45
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - अग्निः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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ए꣣ना꣡ वो꣢ अ꣣ग्निं꣡ नम꣢꣯सो꣣र्जो꣡ नपा꣢꣯त꣣मा꣡ हु꣢वे । प्रि꣣यं꣡ चेति꣢꣯ष्ठमर꣣ति꣡ꣳ स्व꣢ध्व꣣रं꣡ विश्व꣢꣯स्य दू꣣त꣢म꣣मृ꣡त꣢म् ॥४५॥
स्वर सहित पद पाठए꣣ना꣢ । वः꣣ । अग्नि꣢म् । न꣡म꣢꣯सा । ऊ꣣र्जः꣢ । न꣡पा꣢꣯तम् । आ । हु꣣वे । प्रिय꣢म् । चे꣡ति꣢꣯ष्ठम् । अर꣣ति꣢म् । स्व꣣ध्वरम् । सु । अध्वर꣢म् । वि꣡श्व꣢꣯स्य दू꣣त꣢म् । अ꣣मृ꣡त꣢म् । अ꣣ । मृ꣡त꣢꣯म् ॥४५॥
स्वर रहित मन्त्र
एना वो अग्निं नमसोर्जो नपातमा हुवे । प्रियं चेतिष्ठमरतिꣳ स्वध्वरं विश्वस्य दूतममृतम् ॥४५॥
स्वर रहित पद पाठ
एना । वः । अग्निम् । नमसा । ऊर्जः । नपातम् । आ । हुवे । प्रियम् । चेतिष्ठम् । अरतिम् । स्वध्वरम् । सु । अध्वरम् । विश्वस्य दूतम् । अमृतम् । अ । मृतम् ॥४५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 45
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5;
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विषय - प्रथम मन्त्र में परमात्मा के गुणों का वर्णन है।
पदार्थ -
मैं (एना) इस (नमसा) नमस्कार द्वारा (ऊर्जः नपातम्) बल एवं प्राणशक्ति के पुत्र अर्थात् अतिशय बलवान् और प्राणवान् (प्रियम्) प्रिय, (चेतिष्ठम्) सबसे अधिक ज्ञानी और ज्ञानप्रदाता, (अरतिम्) सर्वव्यापक वा सुखप्रापक, (स्वध्वरम्) उत्कृष्ट, अहिंसामय सृष्टिसंचालन-रूप यज्ञ के कर्ता, (विश्वस्य) सबके (दूतम्) दुःख, दोष आदि को दूर करनेवाले, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करानेवाले तथा काम-क्रोधादि शत्रुओं को उपतप्त करनेवाले, (अमृतम्) स्वरूप से नाश-रहित (वः) आप (अग्निम्) परमात्मा को (आहुवे) पुकारता हूँ ॥१॥
भावार्थ - जो परमात्मा बल और प्राण का खजाना, भक्तवत्सल, पूर्णज्ञानी, सर्वव्यापक, सुखज्ञान आदि का प्रदाता, दुःख-दारिद्र्य आदि का विनाशक, विविध यज्ञ करने में कुशल, दोषों को दग्ध करनेवाला, गुणों को प्राप्त करानेवाला और मरणधर्म से रहित है, उसकी सबको प्रेम से श्रद्धापूर्वक स्तुति करनी चाहिए ॥१॥
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