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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 46
ऋषिः - भर्गः प्रागाथः
देवता - अग्निः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
16
शे꣢षे꣣ वने꣡षु꣢ मा꣣तृ꣢षु꣣ सं꣢ त्वा꣣ म꣡र्ता꣢स इन्धते । अ꣡त꣢न्द्रो ह꣣व्यं꣡ व꣢हसि हवि꣣ष्कृ꣢त꣣ आ꣢꣫दिद्दे꣣वे꣡षु꣢ राजसि ॥४६॥
स्वर सहित पद पाठशे꣡षे꣢꣯ । व꣡ने꣢꣯षु । मा꣣तृ꣡षु꣢ । सम् । त्वा꣣ । म꣡र्ता꣢꣯सः । इ꣣न्धते । अ꣡त꣢꣯न्द्रः । अ । त꣣न्द्रः । ह꣣व्यम् । व꣣हसि । हविष्कृ꣡तः꣢ । ह꣣विः । कृ꣡तः꣢꣯ । आत् । इत् । दे꣣वे꣡षु꣢ । रा꣣जसि ॥४६॥
स्वर रहित मन्त्र
शेषे वनेषु मातृषु सं त्वा मर्तास इन्धते । अतन्द्रो हव्यं वहसि हविष्कृत आदिद्देवेषु राजसि ॥४६॥
स्वर रहित पद पाठ
शेषे । वनेषु । मातृषु । सम् । त्वा । मर्तासः । इन्धते । अतन्द्रः । अ । तन्द्रः । हव्यम् । वहसि । हविष्कृतः । हविः । कृतः । आत् । इत् । देवेषु । राजसि ॥४६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 46
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5;
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विषय - अब भौतिक अग्नि के सादृश्य से परमात्मा के कर्म का वर्णन करते हैं।
पदार्थ -
प्रथम—यज्ञाग्नि के पक्ष में। हे यज्ञाग्नि ! तू (वनेषु) वनों में, वन के काष्ठों में, और (मातृषु) अपनी माता-रूप अरणियों के गर्भ में (शेषे) सोता है, छिपे रूप से विद्यमान रहता है। (त्वा) तुझे (मर्तासः) याज्ञिक मनुष्य (समिन्धते) अरणियों को मथकर प्रज्वलित करते हैं। प्रज्वलित हुआ तू (अतन्द्रः) तन्द्रारहित होकर, निरन्तर (हविष्कृतः) हवि देनेवाले यजमान की (हव्यम्) आहुत हवि को (वहसि) स्थानान्तर में पहुँचाता है। (आत् इत्) उसके अनन्तर ही, तू (देवेषु) विद्वान् जनों में (राजसि) राजा के समान प्रशंसित होता है ॥ यहाँ अचेतन यज्ञाग्नि में चेतन के समान व्यवहार आलङ्कारिक है। अचेतन में शयन और तन्द्रा का सम्बन्ध सम्भव न होने से शयन की प्रच्छन्नरूप से विद्यमानता होने में लक्षणा है, इसी प्रकार अतन्द्रत्व की नैरन्तर्य में लक्षणा है। वनों में शयन करता है, इससे अग्नि एक वनवासी मुनि के समान है, यह व्यञ्जना निकलती है ॥ द्वितीय—परमात्मा के पक्ष में। हे परमात्मन् ! आप (वनेषु) वनों में और (मातृषु) वनों की मातृभूत नदियों में (शेषे) शयन कर रहे हो, अदृश्यरूप से विद्यमान हो। (त्वा) उन आपको (मर्तासः) मनुष्य, योगाभ्यासी जन (समिन्धते) संदीप्त करते हैं, जगाते हैं, योगसाधना द्वारा आपका साक्षात्कार करते हैं। अन्यत्र कहा भी है—पर्वतों के एकान्त में और नदियों के संगम पर ध्यान द्वारा वह परमेश्वर प्रकट होता है। साम० १४३। (अतन्द्रः) निद्रा, प्रमाद, आलस्य आदि से रहित आप, उनकी (हव्यम्) आत्मसमर्पणरूप हवि को (वहसि) स्वीकार करते हो। (आत् इत्) तदनन्तर ही, आप (देवेषु) उन विद्वान् योगी जनों में, अर्थात् उनके जीवनों में (विराजसि) विशेषरूप से शोभित होते हो ॥ यहाँ भी परमात्मा के निराकार होने से उसमें शयन और संदीपन रूप धर्म संगत नहीं हैं, इस कारण शयन की गूढरूप से विद्यमानता होने में और संदीपन की योग द्वारा साक्षात्कार करने में लक्षणा है ॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है, और भौतिक अग्नि एवं परमेश्वर का उपमानोपमेयभाव ध्वनित हो रहा है ॥२॥
भावार्थ - जैसे भौतिक अग्नि वन के काष्ठों में अथवा अरणियों में अदृश्य हुआ मानो सो रहा होता है और अरणियों के मन्थन से यज्ञकुण्ड में प्रदीप्त हो जाता है, वैसे ही परमेश्वर भी वनों के तरु, लता, पत्र, पुष्प, नदी, सरोवर आदि के सौन्दर्य में प्रच्छन्न रूप से स्थित रहता है और वहाँ ध्यानस्थ योगियों द्वारा हृदय में प्रदीप्त किया जाता है। जैसे यज्ञवेदि में प्रदीप्त किया हुआ भौतिक अग्नि सुगन्धित, मधुर, पुष्टिदायक और आरोग्यवर्धक घी, कस्तूरी, केसर, कन्द, किशमिश, अखरोट, खजूर, सोमलता, गिलोय आदि की आहुति को वायु के माध्यम से स्थानान्तर में पहुँचाकर वहाँ आरोग्य की वृद्धि करता है, वैसे ही परमेश्वर उपासकों की आत्मसमर्पण-रूप हवि को स्वीकार करके उनमें सद्गुणों को बढ़ाता है ॥२॥
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