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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 629
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - सूर्यः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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चि꣣त्रं꣢ दे꣣वा꣢ना꣣मु꣡द꣢गा꣣द꣡नी꣢कं꣣ च꣡क्षु꣢र्मि꣣त्र꣢स्य꣣ व꣡रु꣢णस्या꣣ग्नेः꣢ । आ꣢प्रा꣣ द्या꣡वा꣢पृथि꣣वी꣢ अ꣣न्त꣡रि꣢क्ष꣣ꣳ सू꣡र्य꣢ आ꣣त्मा꣡ जग꣢꣯तस्त꣣स्थु꣡ष꣢श्च ॥६२९॥
स्वर सहित पद पाठचि꣣त्र꣢म् । दे꣣वा꣡ना꣢म् । उत् । अ꣣गात् । अनी꣢कम् । चक्षुः । मित्र꣢स्य । मि । त्रस्य । वरु꣢णस्य । अग्नेः । आ । अ꣣प्राः । द्या꣡वा꣢꣯ । पृ꣣थिवी꣡इति꣢ । अ꣣न्त꣡रि꣢क्षम् । सू꣡र्यः꣢꣯ । आ꣣त्मा꣢ । ज꣡ग꣢꣯तः । त꣣स्थु꣡षः꣢ । च꣣ ॥६२९॥
स्वर रहित मन्त्र
चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः । आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्षꣳ सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥६२९॥
स्वर रहित पद पाठ
चित्रम् । देवानाम् । उत् । अगात् । अनीकम् । चक्षुः । मित्रस्य । मि । त्रस्य । वरुणस्य । अग्नेः । आ । अप्राः । द्यावा । पृथिवीइति । अन्तरिक्षम् । सूर्यः । आत्मा । जगतः । तस्थुषः । च ॥६२९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 629
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 5; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 5; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5;
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विषय - अगले मन्त्र में सूर्योदय के समान परमात्मा के उदय का वर्णन है।
पदार्थ -
प्रथम—सूर्य के पक्ष में। (देवानाम्) प्रकाशक सूर्य-किरणों की (चित्रम्) अद्भुत अथवा रंगबिरंगी (अनीकम्) सेना (उद् अगात्) उदय को प्राप्त हुई है, जो (मित्रस्य) शरीर में प्राण की तथा बाहर दिन की, (वरुणस्य) शरीर में अपान की तथा बाहर रात्रि की और (अग्नेः) शरीर में वाणी की तथा बाहर पार्थिव अग्नि की (चक्षुः) प्रकाशक है। (सूर्यः) सूर्य ने (द्यावापृथिवी) द्युलोक और भूमिलोक को तथा (अन्तरिक्षम्) मध्यवर्ती अन्तरिक्षलोक को (आ अप्राः) प्रकाश से परिपूर्ण कर दिया है। वह सूर्य (जगतः) जंगम मनुष्य, पशु, पक्षी आदि का तथा (तस्थुषः) स्थावर वृक्ष, पर्वत आदि का (आत्मा) जीवनाधार है ॥ द्वितीय—परमात्मा के पक्ष में। (देवानाम्) सत्य, अहिंसा आदि दिव्यगुणों की (चित्रम्) चाहने योग्य (अनीकम्) सेना (उद् अगात्) मेरे हृदय में उदित हुई है, जो (मित्रस्य) मैत्री के गुण की, (वरुणस्य) पापनिवारण के गुण की और (अग्नेः) अध्यात्म-ज्योति की (चक्षुः) प्रकाशक है। हे परमात्मसूर्य ! आपने (द्यावापृथिवी) आनन्दमयकोश तथा अन्नमयकोश को और (अन्तरिक्षम्) मध्य के प्राणमय, मनोमय एवं विज्ञानमय कोश को (आ अप्राः) अपने तेज से भर दिया है, अथवा (द्यावापृथिवी) द्युलोक और भूलोक को, तथा (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्षलोक को (आ अप्राः) अपनी कीर्ति से भर दिया है। (सूर्यः) वह सूर्यवत् प्रकाशक आप (जगतः) जंगम के और (तस्थुषः) स्थावर के (आत्मा) अन्तर्यामी हो ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेष और स्वभावोक्ति अलङ्कार है ॥३॥
भावार्थ - जैसे सूर्य किरणों को बखेर कर स्थावर-जंगम का उपकार करता है, वैसे ही परमेश्वर हृदय में दिव्यगुणों को विकीर्ण कर मनुष्यों का हित सिद्ध करता है ॥३॥
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