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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 751
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - उषाः छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम -
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प्र꣡त्यु꣢ अदर्श्याय꣣त्यू꣢३꣱च्छ꣡न्ती꣢ दुहि꣣ता꣢ दि꣣वः꣢ । अ꣡पो꣢ म꣣ही꣡ वृ꣢णुते꣣ च꣡क्षु꣢षा꣣ त꣢मो꣣ ज्यो꣡ति꣢ष्कृणोति सू꣣न꣡री꣢ ॥७५१॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣡ति꣢꣯ । उ꣣ । अदर्शि । आयती꣢ । आ꣣ । यती꣢ । उ꣣च्छ꣡न्ती꣢ । दु꣣हिता꣢ । दि꣣वः꣢ । अ꣡प꣢꣯ । उ꣣ । मही꣢ । वृ꣣णुते । च꣡क्षुषा꣢꣯ । त꣡मः꣢꣯ । ज्यो꣡तिः꣢꣯ । कृ꣣णोति । सून꣡री꣢ । सु꣣ । न꣡री꣢꣯ ॥७५१॥


स्वर रहित मन्त्र

प्रत्यु अदर्श्यायत्यू३च्छन्ती दुहिता दिवः । अपो मही वृणुते चक्षुषा तमो ज्योतिष्कृणोति सूनरी ॥७५१॥


स्वर रहित पद पाठ

प्रति । उ । अदर्शि । आयती । आ । यती । उच्छन्ती । दुहिता । दिवः । अप । उ । मही । वृणुते । चक्षुषा । तमः । ज्योतिः । कृणोति । सूनरी । सु । नरी ॥७५१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 751
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
(आयती) आती हुई, (उच्छन्ती) हृदय-प्राङ्गण में उदित होती हुई, (दिवः दुहिता) तेजस्वी परमात्मा की पुत्री के समान विद्यमान अध्यात्मप्रभा (चक्षुषा) अपने दिव्य प्रकाश से (तमः) मोहरूप अन्धकार को (अप उ वृणुते) दूर कर रही है। (सूनरी) उत्कृष्ट नेतृत्व करनेवाली यह अध्यात्मप्रभारूप उषा (ज्योतिः) विवेकख्यातिरूप ज्योति को (कृणोति) उत्पन्न कर रही है ॥१॥

भावार्थ - परमात्मा की उपासना से हृदय में प्रकट होती हुई दिव्यप्रभा समस्त तामसिकता के जाल को विच्छिन्न करके अन्तःकरण को निर्मल बना देती है ॥१॥

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