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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 818
ऋषिः - नहुषो मानवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
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अ꣣यं꣢ पू꣣षा꣢ र꣣यि꣢꣫र्भगः꣣ सो꣡मः꣢ पुना꣣नो꣡ अ꣢र्षति । प꣢ति꣣र्वि꣡श्व꣢स्य꣣ भू꣡म꣢नो꣣꣬ व्य꣢꣯ख्य꣣द्रो꣡द꣢सी उ꣣भे꣢ ॥८१८॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣य꣢म् । पू꣣षा꣢ । र꣣यिः꣢ । भ꣡गः꣢꣯ । सो꣡मः꣢꣯ । पु꣡नानः꣢ । अ꣡र्षति । प꣡तिः꣢꣯ । वि꣡श्व꣢꣯स्य । भू꣡म꣢꣯नः । वि । अ꣣ख्यत् । रो꣡द꣢꣯सी꣣इ꣡ति꣢ । उ꣣भे꣡इति꣢ ॥८१८॥


स्वर रहित मन्त्र

अयं पूषा रयिर्भगः सोमः पुनानो अर्षति । पतिर्विश्वस्य भूमनो व्यख्यद्रोदसी उभे ॥८१८॥


स्वर रहित पद पाठ

अयम् । पूषा । रयिः । भगः । सोमः । पुनानः । अर्षति । पतिः । विश्वस्य । भूमनः । वि । अख्यत् । रोदसीइति । उभेइति ॥८१८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 818
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
(पूषा) शारीरिक तथा आत्मिक पुष्टि का प्रदाता, (रयिः) विद्याधन से युक्त, (भगः) भजनीय, समित्पाणि शिष्यों से सेवनीय (अयं सोमः) यह सद्विद्याओं का प्रेरक आचार्य (पुनानः) शिष्यों को पवित्र करता हुआ (अर्षति) क्रियाशील होता है। (विश्वस्य भूमनः) समस्त विस्तृत ज्ञान का (पतिः) स्वामी यह आचार्य, ज्ञान-प्रदान द्वारा शिष्यों के सम्मुख (उभे रोदसी) आकाश-भूमि दोनों को (व्यख्यत्) प्रकाशित कर देता है। कहा भी है—आचार्य विस्तृत, गम्भीर इन दोनों द्यावापृथिवी को ब्रह्मचारी के सम्मुख घड़कर प्रकट कर देता है। उन्हें वह ब्रह्मचारी तप से अपने अन्दर धारण करता है। उसमें सब देव अनुकूल मनवाले हो जाते हैं (अथ० ११।५।८) ॥१॥

भावार्थ - विद्वान् आचार्य को चाहिए कि वह ब्रह्मचारियों को आकाश-भूमि दोनों के सूर्य, नक्षत्र, जल, वायु, विद्युत्, मेघ, नदी, समुद्र, ओषधि, वनस्पति, भूगर्भ आदि का ज्ञान और चारित्रिक शिक्षा देता हुआ उन्हें पवित्र करे ॥१॥

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