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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 927
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्रः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
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पि꣢बा꣣ सो꣡म꣢मिन्द्र꣣ म꣡द꣢तु त्वा꣣ यं꣡ ते꣢ सु꣣षा꣡व꣢ हर्य꣣श्वा꣡द्रिः꣢ । सो꣣तु꣢र्बा꣣हु꣢भ्या꣣ꣳ सु꣡य꣢तो꣣ ना꣡र्वा꣢ ॥९२७॥

स्वर सहित पद पाठ

पि꣡ब꣢꣯ । सो꣡म꣢꣯म् । इ꣣न्द्र । म꣡न्द꣢꣯तु । त्वा꣣ । य꣢म् । ते꣣ । सुषा꣢व꣡ । ह꣣र्यश्व । हरि । अश्व । अ꣡द्रिः꣢꣯ । अ । द्रिः꣣ । सोतुः꣢ । बा꣣हु꣢भ्या꣢म् । सु꣡य꣢꣯तः । सु । य꣣तः । न꣢ । अ꣡र्वा꣢꣯ ॥९२७॥


स्वर रहित मन्त्र

पिबा सोममिन्द्र मदतु त्वा यं ते सुषाव हर्यश्वाद्रिः । सोतुर्बाहुभ्याꣳ सुयतो नार्वा ॥९२७॥


स्वर रहित पद पाठ

पिब । सोमम् । इन्द्र । मन्दतु । त्वा । यम् । ते । सुषाव । हर्यश्व । हरि । अश्व । अद्रिः । अ । द्रिः । सोतुः । बाहुभ्याम् । सुयतः । सु । यतः । न । अर्वा ॥९२७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 927
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
हे (हर्यश्व) आकर्षणशक्तियुक्त हैं व्याप्त सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि लोक जिसके ऐसे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् ! आप (सोमम्) मेरे भक्तिरस को (पिब) पान कीजिए, स्वीकार कीजिए। वह मेरा भक्तिरस (त्वा) आपको (मन्दतु) आनन्दित करे, जिस भक्तिरस को (सोतुः) रथ प्रेरक सारथि की (बाहुभ्याम्) भुजाओं से (सुयतः) सुनियन्त्रित (अर्वा न) घोड़े के समान (सुयतः) यम-नियम आदियों से सुनियन्त्रित (अद्रिः) अविनश्वर मेरे अन्तरात्मा ने (ते) आपके लिए (सुषाव) अभिषुत किया है ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥

भावार्थ - मनुष्य का आत्मा तप और श्रद्धा के साथ वेदमन्त्रों को गा-गाकर जब परमात्मा के लिए भक्तिरस प्रवाहित करता है तब परमात्मा उसके अन्दर सद्गुणों और सत्कर्मों को प्रेरित कर उसे महान् बना देता है ॥१॥

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