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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 942
ऋषिः - अग्निश्चाक्षुषः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
5
अ꣡स꣢र्जि क꣣ल꣡शा꣢ꣳ अ꣣भि꣢ मी꣣ढ्वा꣢꣫न्त्सप्ति꣣र्न꣡ वा꣢ज꣣युः꣢ । पु꣣नानो꣡ वाचं꣢꣯ ज꣣न꣡य꣢न्नसिष्यदत् ॥९४२॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡स꣢꣯र्जि । क꣣ल꣡शा꣢न् । अ꣣भि꣢ । मी꣣ढ्वा꣢न् । स꣡प्तिः꣢꣯ । न । वा꣣ज꣢युः । पु꣣नानः꣢ । वा꣡च꣢꣯म् । ज꣣न꣡य꣢न् । अ꣣सिष्यदत् ॥९४२॥
स्वर रहित मन्त्र
असर्जि कलशाꣳ अभि मीढ्वान्त्सप्तिर्न वाजयुः । पुनानो वाचं जनयन्नसिष्यदत् ॥९४२॥
स्वर रहित पद पाठ
असर्जि । कलशान् । अभि । मीढ्वान् । सप्तिः । न । वाजयुः । पुनानः । वाचम् । जनयन् । असिष्यदत् ॥९४२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 942
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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विषय - अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा का विषय है।
पदार्थ -
(मीढ्वान्) आनन्दरस को सींचनेवाला, (वाजयुः) स्तोताओं को आत्मबल देने का इच्छुक पवमान सोम अर्थात् पवित्रकर्ता रसनिधि परमेश्वर (कलशान् अभि) अन्नमय-प्राणमय-मनोमय आदि कोशों को लक्ष्य करके (असर्जि) छोड़ा गया है, (सप्तिः न) जैसे घोड़ा संग्राम को लक्ष्य करके छोड़ा जाता है। (पुनानः) पवित्रता देता हुआ वह (वाचं जनयन्) उपदेश-वाणी को उत्पन्न करता हुआ (असिष्यदत्) अन्तरात्मा में प्रवाहित हो रहा है ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥३॥
भावार्थ - परमात्मा की उपासना से आनन्दरस, आत्मबल, अन्तःकरण की पवित्रता और आत्मोत्थान का सन्देश प्राप्त होता है ॥३॥
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