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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 117
ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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गा꣢व꣣ उ꣡प꣢ वदाव꣣टे꣢ म꣣हि꣢ य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ र꣣प्सु꣡दा꣢ । उ꣣भा꣡ कर्णा꣢꣯ हिर꣣ण्य꣡या꣢ ॥११७॥
स्वर सहित पद पाठगा꣡वः꣢꣯ । उ꣡प꣢꣯ । व꣣द । अवटे꣢ । म꣣ही꣡इति꣢ । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । र꣣प्सु꣡दा꣢ । र꣣प्सु꣢ । दा꣣ । उभा꣢ । क꣡र्णा꣢꣯ । हि꣣रण्य꣡या꣢ ॥११७॥
स्वर रहित मन्त्र
गाव उप वदावटे महि यज्ञस्य रप्सुदा । उभा कर्णा हिरण्यया ॥११७॥
स्वर रहित पद पाठ
गावः । उप । वद । अवटे । महीइति । यज्ञस्य । रप्सुदा । रप्सु । दा । उभा । कर्णा । हिरण्यया ॥११७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 117
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1;
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पदार्थ -
(गावः) वाक् स्तुतियो! (अवटे उप ‘उपगत्य’) रक्षणधाम आश्रयरूप आनन्दरूप ऐश्वर्यवान् इन्द्र—परमात्मा के समीप जाकर (वद ‘वदत’ ‘वचनव्यत्ययः’) मुझ स्तुति करने वाले को बतलाओ सूचित करो कि (यज्ञस्य) मेरे अध्यात्म की (रप्सुदा) रूप देने वाली—(मही) भूमियाँ—अभ्यास और वैराग्य योग भूमियाँ “मही पृथिवीनाम” [निघं॰ १.१] (उभा कर्णा) दोनों सिरे—(हिरण्यया) तुझ परमात्म ज्योतिःस्वरूप हिरण्यमय तुझे प्राप्त करने वाले बन गए। “स्वाध्यायाद् योगमासीत योगात्स्वाध्यायमामनेत् स्वाध्याययोगसम्पत्त्या परमात्मा प्रकाशते।” [योग॰ १.२८ व्यास]।
भावार्थ - स्तुतियाँ ज्योतिःस्वरूप परमात्मा में आश्रित हो जाती हैं उपासक की हृद्भावना को सूचित करती हुईं परमात्मा को झुकाती हैं अध्यात्मयज्ञ को रूप देने वाले अभ्यास और वैराग्य या जप और अर्थभावन रूप दोनों योग्य भूमियों को जो कि दो दिशाएँ हैं वे परमात्मा के प्रकाश वाली बन जाती हैं॥३॥
विशेष - ऋषिः—हर्य्यतः प्रगाथः (प्रकृष्ट गाथा—उत्तम स्तुतिवाक् में कुशल कान्तिमान् तेजस्वीजन)॥<br>
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