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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1466
ऋषिः - यजत आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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ऋ꣣त꣢मृ꣣ते꣢न꣣ स꣡प꣢न्तेषि꣣रं꣡ दक्ष꣢꣯माशाते । अ꣣द्रु꣡हा꣢ दे꣣वौ꣡ व꣢र्धेते ॥१४६६॥

स्वर सहित पद पाठ

ऋ꣣त꣢म् । ऋ꣣ते꣡न꣢ । स꣡प꣢꣯न्ता । इ꣣षिर꣢म् । द꣡क्ष꣢꣯म् । आ꣣शातेइ꣡ति꣢ । अ꣣द्रु꣡हा꣢ । अ꣣ । द्रु꣡हा꣢꣯ । दे꣣वौ꣢ । व꣣र्धेतेइ꣡ति꣢ ॥१४६६॥


स्वर रहित मन्त्र

ऋतमृतेन सपन्तेषिरं दक्षमाशाते । अद्रुहा देवौ वर्धेते ॥१४६६॥


स्वर रहित पद पाठ

ऋतम् । ऋतेन । सपन्ता । इषिरम् । दक्षम् । आशातेइति । अद्रुहा । अ । द्रुहा । देवौ । वर्धेतेइति ॥१४६६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1466
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 4; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(ऋतम्) अमृत—न मरने वाले उपासक आत्मा को (ऋतेन) अमृतरूप मोक्ष के साथ३ (सपन्ता) समवेत करता हुआ४ ‘मित्र’ संसार में कर्मभोग के लिये प्रेरक, ‘वरुण’ अपनी ओर अपवर्ग—मोक्षार्थ वरने वाला परमात्मा (इषिरं दक्षम्) एषणीय भोग को और समृद्ध सुख या प्रज्ञान—प्रकृष्ट ज्ञान—अनुभूत होने वाले मोक्ष को५ (आशाते) प्राप्त कराता है (देवौ-अद्रुहा वर्धेते) दोनों धर्मों वाला परमात्मा द्रोहरहित आपतु उपासक आत्मा को बढ़ाता है—उन्नत करता है॥२॥

विशेष - <br>

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