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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 205
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣡सृ꣢ग्रमिन्द्र ते꣣ गि꣢रः꣣ प्र꣢ति꣣ त्वा꣡मुद꣢꣯हासत । स꣣जो꣡षा꣢ वृष꣣भं꣡ पति꣢꣯म् ॥२०५॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡सृ꣢꣯ग्रम् । इ꣣न्द्र । ते । गि꣡रः꣢꣯ । प्र꣡ति꣢꣯ । त्वाम् । उत् । अ꣣हासत । सजो꣡षाः꣢ । स꣣ । जो꣡षाः꣢꣯ । वृ꣣षभ꣢म् । प꣡ति꣢꣯म् ॥२०५॥


स्वर रहित मन्त्र

असृग्रमिन्द्र ते गिरः प्रति त्वामुदहासत । सजोषा वृषभं पतिम् ॥२०५॥


स्वर रहित पद पाठ

असृग्रम् । इन्द्र । ते । गिरः । प्रति । त्वाम् । उत् । अहासत । सजोषाः । स । जोषाः । वृषभम् । पतिम् ॥२०५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 205
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 10;
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पदार्थ -
(इन्द्र) हे परमात्मन्! (ते) तेरे लिए (सजोषाः-गिरः) समान सेवनीय इष्टदेव जिनका है तुझ एक ही देव को लक्षित कर स्तुतियाँ (असृग्रम्) मैं सर्जित करता हूँ—सर्जन कर रहा हूँ—प्रेरित कर रहा हूँ, जो कि (त्वां-वृषभं पतिं प्रति) तुझ सुखपूर्वक पालक के प्रति (उदहासत) उछल-उछल कर जा रही हैं।

भावार्थ - परमात्मन्! तेरे लिए मेरी स्तुतियाँ हैं तुझे ही एक लक्ष्य बनाकर निरन्तर मैं कर रहा हूँ जो तुझ सुखवर्षक पालक की ओर उछल उछल कर जा रही हैं अतः मुझ जैसे अनन्य स्तुतिकर्ता की स्तुतियों को स्वीकार कर मुझे अपना बना अपनी शरण दे॥२॥

विशेष - ऋषिः—मधुच्छन्दाः (मीठी इच्छा वाला या मधुपरायण)॥<br>

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